धर्म श्रद्धा का सृजनात्मक सदुपयोग

August 1979

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आत्म-क्षेत्र तक पहुँच मात्र एक ही उपकरण की है-और वह है अध्यात्म। साधनों से सुविधाएँ बढ़ती हैं। बलिष्ठता से पराक्रम सम्भव होता है। बुद्धि से वैभव और वर्चस्व कमाया जाता है। इन तीन आधारों पर परिस्थिति बनती बिगड़ती है। साँसारिक सफलताओं में प्रायः इन्हीं तीन क्षमताओं का उपयोग होता रहता है। धन, बल और बुद्धि का चमत्कार सर्वत्र बिखरा पड़ा है। इनका महत्व समझा जाता है और उपार्जन का प्रयत्न चलता है। इतने पर भी यह तथ्य अपने स्थान पर अडिग है कि आस्थाओं का क्षेत्र स्वतन्त्र है और वह इन समस्त साधनों से भी प्रभावित नहीं होती। उच्च अन्तःकरण न धनिकों को मिलता है-न बलिष्ठों को-न बुद्धिमानों को। उनके आरोपण एवं अभिवर्धन जिसके माध्यम से हो सकता है वह मात्र अध्यात्म दर्शन ही हो सकता है। आस्था संकट का निवारण- सद्भावनाओं का सम्वर्धन यदि सचमुच ही अभीष्ट हो तो उसके चिन्तन के लिए ब्रह्म विद्या का और व्यवहार में धारणा का आश्रय लेना होगा।

प्रदर्शन एवं प्रशिक्षण की दृष्टि से कितने ही महत्वपूर्ण आयोजन आये दिन होते रहते हैं। साहित्य सृजा जाता है और प्रवचनों का उपक्रम बनता है। लेखनी और वाणी की शक्ति को नकारा नहीं जा सकता किन्तु यह भी सत्य है कि इनसे मात्र मस्तिष्क ही प्रशिक्षित होता है। बुद्धि कौशल के अनेक प्रकार हैं उन्हीं में से एक का नाम आदर्शवादिता भी हो सकता है। मस्तिष्क को आदर्शों की उपयोगिता स्वीकार करने के लिए तर्क और तथ्यों के सहारे सहमत किया जा सकता है इतने पर भी यह आवश्यक नहीं कि उतने भर से आस्थाएँ भी प्रभावित परिवर्तित हो सकें।

आस्थाओं की जड़ें शरीर और मस्तिष्क की निचली परतों में नहीं अन्तःकरण की गहराई में जमी होती हैं। वहाँ श्रद्धा के अतिरिक्त अन्य किसी का प्रवेश निषिद्ध है। श्रद्धा भरे उपचारों से ही भाव सम्वेदनाओं को जगाने एवं जीवन को प्रभावित करने वाली मान्यताओं को जमाने की सम्भावनाएँ सन्निहित रहती हैं। अस्तु व्यक्ति के अन्तराल को बदलने के लिए धर्म श्रद्धा से भरे पूरे उपाय उपचारों का प्रयोग करना होता है। एक शब्द में इस तथ्य को यों भी कहा जा सकता है कि धर्मतन्त्र के माध्यम से वह लोक शिक्षण सम्भव है जो आत्माओं के उत्कर्ष का चमत्कारी परिवर्तन प्रस्तुत कर सके।

यों यह बात धर्म क्षेत्र के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है कि धर्मजीवी लोग भी कहाँ आस्थावान होते हैं। मस्तिष्क तक सीमित धार्मिकता भी अन्य प्रकार के छद्मों में से ही एक है। छद्म भी एक आक्रामक तत्व है वह भी अन्य दुष्टताओं की तरह अपने प्रथम चरण में ही कुछ समय के लिए सफलता जैसी चमक दिखाता है। वास्तविकता के अभाव में वह देर तक ठहर नहीं पाता और जादुई खिलवाड़ों की तरह अविश्वस्त एवं उपहासास्पद बन जाता है। धर्म छद्म एवं वस्तु है और धर्म धारणा। दोनों को एक नहीं कहा जा सकता। असत्य कितना ही विस्तृत क्यों न ही सत्य की प्रतिष्ठा अपने स्थान पर अक्षुण्ण ही बनी रहेगी भले ही उसका परिपालन करने वाले स्वल्प मात्रा में ही क्यों न हों। प्रज्ञावतार की गतिविधियाँ धर्म छद्म पर नहीं धर्म धारणा पर अवलम्बित होंगी। आप स्तर की ऋषि प्रणीत धर्म चेतना का दर्शन और व्यवहार आज नये सिरे से खोजना और क्रियान्वित करना होगा तो भी उसकी उपयोगिता पर किसी प्रकार का सन्देह करने की गुंजाइश नहीं है। खिलौने की बन्दूकों से भी बाजार भरा पड़ा है फिर भी लड़ाई के मैदान में बन्दूक का प्रयोग करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। धर्म छद्म को तमिस्रा के रहते हुए भी धर्म धारणा का अवलम्बन लिये बिना प्रज्ञावतार का प्रयोजन, आस्थाओं का अभिवर्धन सम्भव नहीं हो सकता।

अध्यात्मक चिन्तन हैं और धर्म व्यवहार। दोनों का मिलाने पर ही समग्र धर्मतन्त्र बनता हैं। यहीं है वह प्रक्रिया जो लोक मानस के अन्तराल तक पहुँचने उसे बदलने और उत्कृष्टता के चरम लक्ष्य तक पहुँचाने में समर्थ हो सकती हैं। आस्थावान और धार्मिक एक ही होते हैं। प्रचलित धर्म परम्परा में भारी परिवर्तन करने की आवश्यकता हैं। वर्तमान प्रचलनों में से अनेकों के प्रति आक्रोश उत्पन्न करने की आवश्यकता हैं। इतने पर भी धर्म तत्व की आत्मा को अपनाये बिना देव मानवों की नई पीढ़ी उत्पन्न कर सकना अन्य किसी उपाय से सम्भव नहीं हो सकता। आस्थाओं का उन्नयन बिना धर्म धारणा का आश्रय लिए सम्भव हो ही नहीं सकता।

जन-जन तक धर्म धारणा का आलोक पहुंचाना प्रज्ञावतार के क्रिया-कलापों का प्रमुख अंग हैं। इसके लिए प्रथम चरण गायत्री शक्तियों की स्थापना एवं प्रव्रज्या अभियान की परिपक्वता के रूप में महाकाल ने कदम उठाया हैं। इन दोनों को मिलाकर शरीर और प्राण मिलने से जीवन तत्व जैसी एक इकाई बनती है। प्रव्रज्या से लोक चेतना उत्पन्न होगी। जन-संपर्क उसी के द्वारा सधेगा। घर-घर पहुँचने और जन-जन को नव युग का सन्देश सुनाने वाले सृजन के अग्रदूत आलोक वितरण का अपना प्रयास निरन्तर जारी रखेंगे। किन्तु उनकी गतिविधियाँ हवा में उड़ने वाले पत्तों की तरह अनिश्चित तो नहीं हो सकती। वे निराश्रित तो नहीं टिकते रह सकते। प्राचीन काल में मन्दिर, मठ, धर्मशाला, आश्रम जैसे संस्थानों का निर्माण एक ही उद्देश्य से होता हैं कि-धर्म सेवा देवालयों के वहाँ निवास निर्वाह जैसी सुविधाओं का तथा संपर्क केन्द्र के माध्यम से बनने वाली सुव्यवस्था का लाभ मिलता रहें। आज धर्म संस्थाओं की संख्या तो बहुत हैं पर उस उद्देश्य की पूर्ति कहीं भी होती दिखाई नहीं पड़ती जिसके लिए ऋषियों ने देवालयों की-स्थापना का आन्दोलन उठाया और उसे सफल बनाया था। आत्मा शरीर में आश्रय पाता हैं और उसे सुनियोजित रीति से कार्य संलग्न भी करता हैं। प्रव्रज्या को गायत्री शक्ति पीठों के आश्रय मिले और सुयोग संयोग से धर्म धारणा को जन-जन के मन में अपना आलोक पहुँचाने का अवसर मिलने लगेगा।

कर्मकाण्डों, उपासनात्मक, विधि-विधानों, कथा, प्रसंगों, धर्मानुष्ठानों के बाह्य स्वरूप का सीधा महत्व समझने समझाने में कठिनाई होती है किन्तु जब उनमें सन्निहित प्रेरणाओं का भाव भरे वातावरण में हृदयंगम होने और चमत्कारी सत्परिणाम उत्पन्न करने की प्रतिक्रिया सामने आती हैं तब पता चलता हैं कि यह निरर्थक जैसी लगने वाली प्रक्रिया किन्तु मर्मस्पर्शी और कितनी प्रभावोत्पादक है।

दैनिक उपासना द्वारा दिव्य सत्ता के साथ घनिष्ठता और आदान-प्रदान का उपक्रम-योगाभ्यास और तप साधना द्वारा अति मानवी क्षमताओं का उन्नयन षोड्श संस्कारों के साथ सम्पन्न होने वाली ज्ञान गोष्ठियाँ द्वारा पारिवारिक वातावरण शालीनता का संवर्धन पर्व त्यौहारों में सन्निहित सामाजिक सत्प्रवृत्तियों का परिपोषण जैसे अनेकानेक उच्चस्तरीय उद्देश्य धार्मिक किया-कृत्यों के सहारे भाव भरे वातावरण में सरलता पूर्वक सम्पन्न होते रह सकते हैं। कथा पुराणों में रोचक संस्मरणों के सहारे संस्कृति की महान् परम्पराओं को बाल वृद्ध, नर-नारी जिस प्रकार सुनते, समझते और अपनाते हैं उसे देखते हुए प्रतीत होता हैं। प्रत्यक्ष निर्देशन की अपेक्षा यह देव इतिहासों का कथन श्रवण अन्तरंग की गहराई तक अधिक अच्छी तरह प्रविष्ट हो सकता हैं। आदर्शवादी अनुकरण प्रत्यक्ष न मिल सकें तो उस अभाव की पूर्ति ऐतिहासिक महापुरुषों के द्वारा अपनाई गई देव परम्पराओं के दृश्य मनःक्षेत्र में विचरते रहने पर भी एक बड़ा काम हो सकता है। अनुकरण का उत्साह उठ सकता है। जन-जागरण को घर-घर पहुंचाना और जन-जन से संपर्क साधना आवश्यक है। प्रभावशाली श्रेष्ठ सज्जन इस पुनीत कार्य में श्रद्धा पूर्वक जुट पड़ें तो यह वातावरण उत्पन्न करना तीर्थ यात्रा की पुण्य परम्परा में उत्साह भरने से सम्भव हो सकता हैं। यह सारे कार्य ऐसे हैं जो शासकीय अथवा दूसरे मंचों से किये जाने वाले समाज कल्याण जैसे कार्यों द्वारा किये जाने वाले रचनात्मक प्रयासों की तुलना में कहीं अधिक गहरा एवं चिरस्थायी सत्परिणाम उत्पन्न करेंगे।

भारत धर्म प्रधान देश हैं। इसमें अशिक्षा, गरीबी एवं अन्धविश्वास का बाहुल्य होते हुए भी धर्म श्रद्धा की परम्परागत मात्रा अधिकाँश लोगों में विद्यमान हैं। इसे सही मार्ग न मिलने से उमड़ती हुई धर्म भावना का निरर्थक एवं अनर्थ मूलक कार्या में अपव्यय होता हैं। इस बर्बादी को बचाया और रचनात्मक प्रयोजनों में लगाया जाना आवश्यक हैं। भारत में 60 लाख के करीब भिक्षा व्यवसायी साधु सन्त हैं। यदि 7 लाख गाँवों के इस देश में इन्हें श्रमदान, समाज सुधार, प्रौढ़ शिक्षा जैसे कार्या में लगाया जा सके तो हर गाँव पीछे आठ सन्त स्वयं सेवक इतना काम कर सकते है जिससे देश का काया-कल्प ही हो सके। 60 लाख पूरा समय धर्म प्रयोजनों के लिए लगाने वाले और करोड़ों आधा अधूरा समय इन्हीं कृत्यों में लगाने वालों की जन-शक्ति का मूल्याँकन किया जाय तो उसका वजन लगभग उतना ही हो जाता हैं जितना कि सरकारी एवं अर्ध सरकारी संस्थाओं में काम करने वाले कर्मचारियों का। इतनी बड़ी जन-शक्ति को अव्यवस्था फैलाने से विरत करके रचनात्मक कार्या में नियोजित करने का उद्देश्य उनसे-उनके पोषणकर्ताओं से सम्बन्ध मिलाकर ही पूरा हो सकता हैं। गायत्री शक्ति पीठों के माध्यम से लोक मंगल की सर्वतोमुखी योजनाओं को क्रियान्वित करने वाले परिव्राजकों का एक विशिष्ट प्रयत्न यह भी होगा कि धर्म क्षेत्र से सघनता उत्पन्न करके उसमें लगी जनशक्ति को समय की माँग पूरी करने के लिए सहमत करने का जी तोड़ प्रयास करें।

धर्म परम्पराओं के निर्वाह में कितनी धन शक्ति लगती हैं इसका अनुमान लगाने से प्रतीत होता है कि यह राशि लगभग सरकारी राजस्व जितनी बड़ी होती हैं। तीर्थ यात्रा का एक ही प्रसंग ऐसा है कि उसमें हर वर्ष 100 करोड़ से भी अधिक धन खर्च होता हैं। देवालयों पर, कर्मकाण्डों पर, आयोजन समारोहों पर खर्च होने वाली दान दक्षिणा की राशि इतनी बड़ी है कि उसे विवेकवान धर्म धारणा के लिए नियोजित किया जा सके तो संसार भर में होने वाले ईसाई मिशनों जितना काम भारतीय धर्मनिष्ठा द्वारा ही सम्पन्न हो सकता हैं। धार्मिक साहित्य, धार्मिक प्रवचन का रुझान यदि थोड़ा-सा बदला जा सके तो उतने भर से व्यक्ति, परिवार और समाज की अभिनव संरचना के लिए सहज ही आवश्यक वातावरण उत्पन्न हो सकता हैं। धर्म तन्त्र की समर्थता सर्वविदित हैं। भूतकाल में उसने मानव समाज को सुसंस्कृत एवं समुन्नत बनाने में भारी सफलता पाई है। अब फिर उसकी पुनरावृत्ति हो सकती हैं। धर्म का तत्वदर्शन और उसके द्वारा आकर्षित उत्पादित होने वाले भौतिक बल यदि मानवी उत्कर्ष का भाव परिष्कार पक्ष संभाल सके तो उसे इस धरती पर बरसा हुआ देव लोक का अजस्र वरदान ही माना जायगा।

धर्म परायण अर्थात् चरित्र निष्ठ-व्यक्तित्व सम्पन्न, आदर्शवादी, प्रतिभाशाली, परमार्थ परायण। यही परिभाषा प्राचीन काल में समझी जाती थी। धर्म तत्व के प्रति अगाध निष्ठा अन्धविश्वास की तरह नहीं वरन् उसकी उपयोगिता एवं प्रतिक्रिया को देखकर ही उत्पन्न होती है। इस ढाँचे का लड़खड़ा जाना, मनुष्य का एक अत्यन्त कष्टकारक दुर्भाग्य हैं। स्थिति को बदला जना आवश्यक है। धर्म क्षेत्र पर छाई हुई प्रतिगामिता की प्रगतिशीलता में अन्ध परम्परा को विवेक युक्त सत् श्रद्धा के रूप में परिवर्तित किया जाता है तभी वह युग परिवर्तन की उज्ज्वल भविष्य के निर्धारण की भूमिका निभा सकेगी।

प्रज्ञावतार के लीला भवन गायत्री शक्ति पीठों के रूप में विनिर्मित हो रहे हैं। उनमें न्यूनतम पांच और अधिकतम दर्जनों परिव्राजक सुविस्तृत क्षेत्र में रचनात्मक प्रयास करेंगे। इन प्रयासों को धर्म तंत्र के द्वारा लोक-शिक्षण प्रक्रिया के अनुरूप क्रियान्वित किया जा रहा है। सच तो यह है कि धर्म तत्व का सर्वोपयोगी- सर्वमान्य स्वरूप खड़ा करने से लेकर धर्म श्रद्धा का युग सृजन के महान प्रयोजन में लगा देने की यह भूमिका है। इसकी सफलता सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों के समर्थ होने और नव सृजन का सुनिश्चित स्थिति उत्पन्न कर सकेगी। प्रस्तुत प्रयास में इसी महान संभावना के समस्त आधार विद्यमान देखे जा सकते हैं।


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