युग देवता की दो प्रत्यक्ष प्रेरणाऐं

August 1979

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प्रज्ञा का आरम्भिक उद्गम जागृत आत्माओं से आरम्भ होता है। इस ऊर्जा से अनुप्राणित व्यक्ति सर्व प्रथम अपने चिन्तन और चरित्र को बदलते हैं। उनकी चेतना नर कीटकों जैसा क्षुद्र जीवन जीने से स्पष्ट इन्कार करती है। पुरानी इच्छाएँ-रुचियों और आदतें बदलना आमतौर से सामान्य व्यक्तियों के लिए अतिकठिन होता है। इसे समुद्र तैरने और पर्वत लाँघते जैसा दुम बताया गया हैं। लोग श्रेष्ठता की दिशा में सोचते तो बहुत कुछ हैं पर संकल्प बल के अभाव में कर कुछ नहीं पाते। शेखचिल्ली जैसे सपने गढ़ते, दिवास्वप्न देखते और कल्पना लोक में उड़ते-उड़ते ही जिन्दगी बीत जाती हैं और सड़ी कीचड़ से निकलने की बात बनती ही नहीं। किन्तु प्रज्ञा पुरुष अन्तः प्रेरणा की प्रचण्डता से प्रेरित होकर असाधारण साहसिकता का परिचय देता हैं और पुराने ढर्रे को मकड़ी की तरह अपने बुने ताने-बाने को समेटकर अपने ही पेट में निगल लेते हैं। आत्म परिवर्तन सामान्य लोगों के लिए निस्संदेह अतिकठिन हैं, पर प्रज्ञा पुरुष अपनी दैवी साहसिकता के सहारे उसे इतनी अच्छी तरह सम्पन्न कर लेते हैं कि साथियों को उसे दांतों तले उँगली दबाकर ‘आश्चर्यवत् पश्यति कश्चिदेव’ की पुनरावृत्ति खुली आँखों से देखनी पड़ती हैं।

दैवी अनुग्रह का प्रथम चिन्ह यही हैं कि सामान्य से असामान्य की दिशा में छलाँग लगाये। संसार के ऐतिहासिक महामानवों में से प्रत्येक को महानता का पहला पाठ यही पढ़ना पड़ा है कि साथी सम्बन्धियों के परामर्श और अपने कुसंस्कारों की प्रत्यक्ष अवमानना करके ऐसा कदम उठाये जिसे अपने मतलब से मतलब रखने वाले मोहान्ध में जकड़े हुए व्यक्ति अव्यावहारिक बताये और घाटे का सौदा ठहराये। प्रवाह में तो हाथी तक बहते चले जाते हैं। धारा को चीरकर उलटा चलने का साहस मछली वर्ग के असाधारण शक्ति सम्पन्न प्राणियों में ही होता हैं। महानता का जाप इसी स्तर की साहसिकता के साथ होता हैं। वे लोभ मोह की महत्वकाँक्षाओं के बन्धन काटते हैं और लिप्सा, लालसाओं को ताक पर रखकर आदर्शवादिता के मार्ग पर चलते हैं, पर आने वाली कठिनाइयों को जान-बूझकर स्वीकार शिरोधार्य करते हैं।

देव मानव वे हैं जो आदर्शों के क्रियान्वयन की योजना बनाते और सुविधा की ललक लिप्सा को अस्वीकार करके युग धर्म के निर्वाह की काँटों भरी राह पर एकाकी चल पड़ते हैं। यही साहसिकता उन्हें आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण के दुहरे प्रयोजन पूरे कराती हुई पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचती है। प्रज्ञावतार की प्रथम प्रेरणा प्रथम प्रक्रिया देव मानवों के उत्पादन की होती है। वे आत्म-परिवर्तन का आदर्श उपस्थिति करके अनेकानेकों के अनुगमन की प्रेरणा देता हैं। अग्रगमन ही साहसिकता है। यह पराक्रम देवमानवों के भाग्य में ही बढ़ा होता है। समयानुसार अनुगमन तो असंख्यों करने लगते है। आँधी के साथ उड़ने वाले पत्ते तो अपना रुख बदलते, ऊँचे उछलने, नीचे गिरने की हलचलें सहज ही करते रहते हैं।

अवतार के अनुयायी आरम्भ में थोड़े ही होते हैं पीछे वह समुदाय बढ़ता चला जाता हैं। राम के साथियों में सुग्रीव, हनुमान जैसे कुछ ही साथी थे। कृष्ण के प्रारम्भिक सहयोगी पाँच पाण्डव थे। बुद्ध की प्रथम दीक्षा में सात सम्मिलित हुए थे। ईसा के व्रतवद्ध शिष्य तेरह थे। अग्रगामियों के कंधों पर सेनापतियों जैसी योजना बनाने और व्यवस्था जुटाने का उत्तरदायित्व आता है। साधनों और सहयोगियों के अभाव में भी पर्वत उठाने और समुद्र लाँघने जैसे असम्भव दीखने वाले कार्या के लिए आत्म-बल और ईश्वरीय सहयोग पर विश्वास करते हुए कटिबद्ध हो जाना यही सिद्ध करता हैं कि इन आत्माओं पर दैवी आवेश अवतरित हो चला। कालान्तर में ऐसी ही आत्माओं के लोग अवतार या अवतार उपकरण कहने लगते हैं। प्रथम चरण में ढलाई इन्हीं की होती है।

अवतार के द्वितीय चरण में अनेक व्यक्ति आदर्शवादी साहस का परिचय देते दिखाई पड़ते है। कृपणों को उदारता अपनाते, डरपोकों की साहस करते, स्वार्थियों को परमार्थ अपनाते पतितों को आदर्श अपनाते देखकर यही सिद्ध होता हैं कि हवा का रुख बदला और मौसम पलटा। वर्षा ऋतु आते ही सारा माहौल बदल आता हैं। आसमान में छाई धूल और धुन्ध को धकेलकर सुहावनी घटाएँ अपना अड्डा जमाती हैं। तवे जैसी जलती भूमि पर जल भरा दीखता है। हरियाली उगती और सोये मेंढकों की आवाज हर दिशा में सुनाई पड़ती हैं। जबकि हर व्यक्ति स्वार्थ सिद्धि के लाने-बाने बुनने के अतिरिक्त और कुछ सोचने करने से आगे बढ़ ही न पाये। तब कुछेक व्यक्तियों की परमार्थ परायणता निस्सन्देह आश्चर्यवत् प्रतीत होती हैं और उसे किसी आवेश का चमत्कार कहा जाता हैं। आदर्शों को चर्चा का विषय और वाक् विलास का प्रसंग भर माना जाता हैं। उन्हें प्रत्यक्ष अपनाया जाने लगे तो समझना चाहिए कि कहीं कुछ विशिष्ट उतरा और महान् उभरा हैं। अवतार की चेतना जन-समाज में घुले मिले उत्कृष्ट तत्वों को ऐसे ही साधारण आचरण करने-उदास का परिचय देने एवं ऐसा कर गुजरने के लिए उकसाती हैं जिसे अभिनंदनीय और अनुकरणीय कहा जा सके। अवतार काल में उन्हीं उदाहरणों की संख्या बढ़ती और परम्परा बनती चली जाती है।

प्रज्ञावतार की इस पुण्य वेला में इस स्तर की अनुकृतियाँ द्रुतगति से बढ़ रहीं हैं। भविष्य में उनका विस्तार और भी तेली से होगा। युग निर्माण परिवार में उनका विस्तार और भी तेजी होगा। युग निर्माण परिवार में लाखों सदस्य अपना समय दान और अंशदान अन्तः प्रेरणा से अनुप्राणित होकर कर रहें है। उन बूँद-बूँद अनुदानों का समुच्चय नव युग के अनुरूप वातावरण बनाता चला जा रहा है। जागृत आत्माओं को युग देवता का आह्वान, सर्वत्र भाव श्रद्धा के साथ सुना गया है। आत्माहुतियाँ लेकर जीवनदानियों का एक समर्थ वर्ग शान्ति कुँज पहुँचा है और सृजन प्रयोजन में अदम्य उत्साह के साथ जुट गया है। प्रव्रज्या अभियान के विस्तार में ऐसे ही झरने झरते दृष्टिगोचर होते है। वरिष्ठ, कनिष्ठ और समयदानी वर्ग के परिव्राजकों के बादल जिस तरह उमड़ रहे है उनसे यह अनुमान लगाने में तनिक भी कठिनाई नहीं होती कि तवे-सी जली धरती पर मखमली चादर बिछाने और जीवनदानी हरितमा उगने में अब बहुत विलम्ब नहीं रह गया है।

अपने देव परिवार के परिजनों द्वारा नव सृजन के एक से एक बढ़कर उच्चस्तरीय आदर्श अनुदान उपस्थित करने में इन दिनों होड़-सी लग रही है। गायत्री शक्ति पीठों के निर्माण में कितनों ने अपनी सामर्थ्य को लाँघते हुए कितने बढ़े-चढ़े अनुदान प्रस्तुत किये है, इसका इतिहास अगले दिनों एक विशाल ग्रन्थ के रूप में सचित्र छपेगा। उसे पढ़ने वाले देखेंगे कि इस युग चुनौती को किस उच्चस्तरीय भाव श्रद्धा के साथ स्वीकार किया गया और उस निर्माण में कितने सहास भरे त्याग बलिदान का नियोजन किया गया। इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित भूतकालीन महामानवों के त्याग बलिदान चिरकाल से अनेकों पीढ़ियों को आदर्शवादी प्रेरणाएं देते रहे है। उनसे अनुप्राणित होकर असंख्यों ने अपने जीवन की दिशा धारा बदली और अनुकरण की हिम्मत जुटाई है। अग्रगामी आदर्शवादी ही अन्तरिक्ष के ग्रह-तारकों की तरह धरती बालों को प्रकाश देते और वस्तुस्थिति जताने से लेकर रास्ता दिखाने तक का महान प्रयोजन पूरा करते है।

मध्य काल में यह परम्परा शिथिल ही नहीं लगभग समाप्त हो गई थी। साधु, ब्राह्मण तक धर्म व्यवसायी बंध गये थे। देश भक्ति, लोक सेवा, जन-कल्याण का आवरण तो अनेकों ने ओढ़ा और वाक् शक्ति के आधार पर धुएं के बादल भी खड़े किये पर अपने निजी आवरण से ऐसी प्रेरणा प्रस्तुत न कर सके। जिससे वे श्रद्धा के पात्र बन और भाव भरी प्रेरणा देकर दूसरों को अनुकरण के लिए सहमत करते। प्राचीन काल में भारतीय देव मानवों की एक ही प्रमुख विशेषता थी कि वे उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व से अपने जीवन श्रम को पूरी तरह सजे थे। उनके क्रिया-कलाप साहसिक परमार्थ प्रयोजनों भरे रहते थे। त्याग बलिदान की ही वैभव और वचनों मानते थे। यह परम्परा नष्ट हुई और धर्म का स्वरूप छत्र बनकर रह गया। ऐसी दशा में विनिर्मित हुए वातावरण में महामानवों का उत्पादन बन्द हो जाना स्वाभाविक ही था। यही है वह मान क्षति जिसका दुष्परिणाम वर्तमान हेय परिस्थितियों और विकट विपत्तियों के रूप में अपनी पीढ़ी को भुगतना पड़ रहा है। युग बदलना है तो प्रवाह भी बदलेगा ही। महान् व्यक्तियों का उत्पादन-सामान्य लोगों द्वारा आदर्शवादी क्रिया-कृत्यों का सम्पादन यह दोनों ही कार्य ऐसे है जिनसे निराशा भरी परिस्थितियों में भी आशा की चमक उत्पन्न होती है। सामान्य समझे जाने वाले लोगों को भी जय अन्तःप्रेरणा में प्रेरित होकर परमार्थ प्रयोजनों के लिए कोई अभिनन्दनीय कार्य करने के लिए अनायास ही कटिबद्ध पाया जाय तो समझना चाहिये कि युग देवता का चमत्कार सिर पर चढ़कर बोला।

युग सृजन लिए प्रचुर साधनों की आवश्यकता पड़ेगी। कार्यक्षेत्र व्यापक है, उसकी परिधि समस्त भूमण्डल पर रहने वाले 400 करोड़ मनुष्यों तक उससे सम्बद्ध असंख्य अन्य प्राणियों तक चली जाती है। इतने बड़े क्षेत्र एवं वर्ग की स्थिति को नीचे से उठाकर ऊँची उछाल देना निस्सन्देह बहुत बड़ा कार्य है। इसलिए श्रम-बल, मनोबल एवं साधन बल की प्रचुर परिमाण में आवश्यकता पड़ेगी। इस आवश्यकता को तो चन्दा संग्रह करके पूरा किया जा सकेगा और न शासन के लिए इतने बड़े लक्ष्य को पूरा करने की बात सोच सकना संभव होगा। इतनी बड़ी सम्पदा, जन-जन के मन-मन में उभरने वाली भाव श्रद्धा के कारण स्वेच्छा समर्पित अनुदानों से ही सम्भव होगी।

युग चेतना की प्रेरणा हर जागृत आत्मा के लिए यह है कि वह न केवल जीवन क्रम को उत्कृष्ट बनाये वरन् युग सृजन के छुटपुट नहीं ऐसे अनुदान प्रस्तुत करे जिनकी स्मृति से इतिहास के पृष्ठों को धन्य बनने का अवसर मिले। दृष्टता और भ्रष्टता पिछले दिनों एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगाते रहे है। अब यह प्रतिस्पर्धा दूसरे स्तर की है। भीम ने ब्राह्मण के बालक को बचाने के लिए अपना प्राण देने का अधिकार माता तथा भाइयों से लड़ झगड़ कर प्राप्त किया था। गुरु गोविन्द सिंह के बच्चों में से प्रथम बलिदान होने वाले बालक ने अपने सौभाग्य को उच्च स्वर से सराहा था। अब प्रतिस्पर्धाएं इसी स्तर की चलेगी कि असंख्यों की प्रेरणा देने वाले आदर्शवादी त्याग, बलिदान में कौन-कौन किस से आगे निकलता है। दंगल में कुश्ती पछाड़ने वाले पहलवान अपनी विजय ध्वज उड़ाते हुए हाट बाजारों में निकलते है। आदर्शवादी अनुदान प्रस्तुत करने में किसने अपने कितने साथियों को पछाड़ा और अपनी आन्तरिक बलिष्ठता का कितना भारी प्रमाण प्रस्तुत किया, यही प्रसंग लोक चर्चा का विषय बनेगा। इतिहास के पृष्ठ इन्हीं दिव्य संस्मरणों से रंगे और लिखे जायेंगे। यही वह आधार है जिससे युग निर्माण के लिए अभीष्ट शक्ति एवं सम्पदा प्रचुर परिमाण में सहज ही उपलब्ध होती होती चलेगी। अनुकरणीय आदर्शों का ताँता लगते इन दिनों भी देखा जा सकता है। अगले दिनों इस दिशा में और भी अधिक उत्साह उत्पन्न होगा। इसी को युग अवतार का सामयिक एवं समर्थ अनुदान कहा जायेगा।


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