अवतार का प्रयोजन और स्वरूप

August 1979

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शरीर में हर घड़ी विषाक्तता उत्पन्न होती रहती है और उसकी सफाई का व्यवस्था क्रम भी स्वसंचालित रीति से चलता रहता है। कोशिकाओं का मरण, आहार का परिशोधन, गति क्रम में अवरोध, वाह्य आघात जैसे अनेकों कारण कार्य सत्ता के अन्तः क्षेत्र में विकृतियाँ उत्पन्न करते है। प्रकृति ने इनकी परिशोधन पद्धति का भी, काया के साथ-साथ ही निर्माण किया है। मल, मूत्र, स्वेद, कफ, श्वास, आदि के माध्यम से अनुपयुक्त का निष्कासन होता रहता है। रक्त के श्वेत कण बाहर से आने वाले विषाणुओं से जूझने और उन्हें परास्त करने में निरन्तर अपना प्रयास सजग प्रहरी की तरह जारी रखते है। थकान की क्षतिपूर्ति विश्राम से होती रहती है।

“यह विश्व भी विराट ब्रह्मा का शरीर है। इसमें भी पिण्ड काया की जैसी व्यवस्था काम करती है। प्रकृति का सृजन आर विनति का विसर्जन, निर्माण ओर ध्वंस की आँख मिचौनी खेलते रहते है। इसी को अनवरत क्रम से चलने वाला देवासुर संग्राम कहते है। ईसाई, मुस्लिम धर्मा में इसी को शैतान भगवान की प्रतिद्वन्द्विता कहा जाता है। मन का स्वभाव पानी की तरह नीचे की ओर चलना है। मनुष्य शरीर मिलने पर भी निम्न योनियों के संग्रहित कुसंस्कार अपनी जड़ जमाये बैठे रहते है। मानवीय मर्यादाओं का धर्म, आध्यात्म, कानून, व्यवस्था सुप्रचलन आदि के द्वारा उद्बोधन उत्तेजन होता रहता है, फिर भी कुसंस्कारिता अपनी करतूत करती ही रहती है। अनपढ़ व्यक्तियों के चिन्तन में भ्रष्टता और चरित्र में दृष्टता का बाहुल्य रहता ही है। सज्जन प्रकृति के लोग भी यदा कदा अवाँछनीयता की कीचड़ में फिसलते देखे गये है। इस अनुपयुक्तता से जूझना भी उतना ही आवश्यक है जितना कि सृजन के साधन जुटाना। “

“घर में भोजनालय की तरह ही शौचालय की व्यवस्था करनी पड़ती है। ओर रसोई दारिद की तरह ही महतरानी की भी आवश्यकता रहती है। उपार्जन के साथ-साथ ही सुरक्षा की योजना बनानी पड़ती है। भण्डारी की तरह चौकीदार का भी दर्जा है। अगरबत्ती जलाकर सुगंध बखेरने की ही तरह नाली में फिनायल छिड़कने की भी आवश्यकता रहती हे। किसान बीज बोने की, खाद-पानी की व्यवस्था जुटाने की तरह ही वन्य पशुओं और कृमि कीटकों से फसल को बचाने का भी प्रबन्ध करता हे। माली के श्रम की सार्थकता फलों को पक्षियों से बचाने का प्रबन्ध किये बिना हो नहीं सकती। सरकारें शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन, सिंचाई, बिजली उद्योग आदि के अभिवर्धन में जितना ध्यान देती हे। लगभग उतना ही व्यय उन्हें पुलिस, जेल, कचहरी, सेना, शस्त्र निर्माण आदि पर करना पड़ता है। मात्र सृजन ही अभीष्ट नहीं, ध्वंस का अवरोध भी एक तथ्य है। जिसकी ओर रो आँख मीच सकना न काय सत्ता के लिए न विश्व व्यवस्था के लिए न व्यक्ति के लिए न समाज के लिए संभव होता है। उपार्जन एवं सृजन की कितनी ही महत्ता क्यों नहो, उसकी अपूर्णता तब तक बनी ही रहेगी जब तक विनाश के विघातक तत्वों से निबटने का प्रबन्ध न किया जाय। मानवी ओर दैवी व्यवस्था क्रम में दोने का ही समुचित समावेश पाया जाता है। इस क्रम में जब भी असंतुलन पड़ता है। तभी विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न होती है। और विडंबनाओं का सामना करना होता है।

उपयोगी का अभिवर्धन करने के लिए सृजन के तत्व गतिशील रहते है। उन्हीं के पुरुषार्थ से भौतिक और आत्मिक जगत् में समृद्धि और संस्कृति की सुषमा हरितमा इस विश्व वसुधा पर दृष्टिगोचर होती है। साथ ही निकृष्टता की विनाश लीला को निरस्त करने के लिए प्रखर पराक्रम भी अपना जौहर दिखाता रहता है। शौर्य और साहस इसी का नाम है। श्रेष्ठता के संवर्धन और निकृष्टता के उन्मूलन में नियोजित मानवी प्रखरता को ही त्याग बलिदान कहते है। इतिहास में ऐसे ही वीर पुरुषों का यशगान है। धर्म ग्रन्थों के ऋषि प्रायः सृजन कृत्य में संलग्न रहे है उन्होंने सर्वतोमुखी प्रगति के महत्व पूर्ण आधार खड़े किये है। साधु और ब्राह्मण की परम्परा इन्हीं पुण्य प्रयोजनों में गतिशील रही है। वीर बलिदानियों का वर्ग क्षत्रिय है। क्षात्र धर्म भी ब्रह्म धर्म के समकक्ष ही माना गया है। और उसकी प्रशक्ति भी समतुल्य ही आँकी जाती रही हैं। ब्रह्म क्षात्र का समन्वय ही श्रेष्ठता के सम्वर्धन और संरक्षण में समर्थ इकाई बनकर प्रकट होती है। एक ही केन्द्र से दोनों प्रवृत्तियां चले या दो उद्गमों से निकल कर एक लक्ष्य तक पहुँचे, यह परिस्थितियों पर आधारित है, किन्तु पूर्णता समग्रता बनती तभी है जब सृजन का अभिवर्धन और ध्वंस का उन्मूलन सन्तुलित गति से अपना आधार सुदृढ़ बनाये रख सके।

शास्त्र और शस्त्र का समन्वय करने वाले तत्वों और व्यक्तियों ने ही सृष्टि के प्रगति क्रम को आगे बढ़ावा हैं उन्हीं ने ध्वंस की चुनौती से वसुधा की सौंदर्य सुषमा को सुरक्षित रखा है। ऋषि परम्परा में द्रोणाचार्य परशुराम, भीष्म, विश्वामित्र आदि के अनेकानेक उदाहरण ऐसे है जो उभपक्षेय भूमिका निभाते रहते है। शास्त्र और शस्त्र का समान उपयोग करते रहते है। होता ऐसा भी रहा है कि दोनों उद्गम स्वतन्त्र इकाई बनकर रहे और आवश्यकतानुसार उपयुक्त मात्रा से तालमेल बिठाकर काम करे। धर्मा तन्त्र और राजतन्त्र की दो ध्वजाओं के नीचे दो आधार प्रथम-पृथक भी एकत्रित होते रहे है। और पारस्परिक सहयोग से समृद्धि और प्रगति की सुख-शाँति का ढाँचा खड़ा करते रहे है।

काम सत्ता की तरह विश्वसत्ता में भी औचित्य का सम्वर्धन और अनौचित्य का उन्मूलन क्रम रथ के दो पहियों की तरह सहयोग पूर्वक चलता है। यह सुव्यवस्था जब तक सही रूप से बनी रहती है तब तक प्रगतिक्रम सुनियोजित गति से चलता और सुख शान्ति का वातावरण बनता रहता है। किन्तु जब असन्तुलन उत्पन्न होता है अथवा सामंजस्य लड़खड़ाता है। तो संकट की घटाये घुमड़ने लगती है। जन-जीवन में सृजन की चेतना उच्चस्तरीय रहनी आवश्यक है। धर्म और आध्यात्म का तत्व दर्शन इसी की भावनात्मक पृष्ठभूमि खड़ी करता है। सन्त और सृजेता अपनी प्रवृत्तियां इस प्रयोजन में नियोजित रखते है। साथ ही प्रखरता का पराक्रम निकृष्टता को निरस्त करने में आपने शौर्य साहस का परिचय देता है। शान्ति और सुव्यवस्था की गारन्टी इन दोनों की समर्थता और सहकारिता पर ही निर्भर रहती है।

यह हुआ सृष्टि की सुव्यवस्था का सन्तुलित प्रगति-क्रम। साथ ही असन्तुलन की अव्यवस्था भी दृष्टव्य है। जब सृजन के तत्व दुर्बल पड़ जाते है तो आत्मिक क्षेत्र में अज्ञान और भौतिक क्षेत्र में दारिद्रय की विभीषिकायें सिर उठाने लगती है। इसी प्रकार पतन से जूझने वाली प्रखरता अपनी वरिष्ठता भूलकर ललक लिप्सा के गर्त में गिरने लगती हे। तो निकृष्टता की अपनी विनाशलीला रचने के लिए खुला क्षेत्र मिल जाता हे। सृजन की शिथिलता और विनाश की स्वच्छंदता का असन्तुलन ही व्यक्ति और समाज के सम्मुख अनेकानेक विपत्तियाँ खड़ी करता है। समस्यायें और कठिनाइयाँ इसी स्थिति में आँधी तूफान की तरह उठती हे। सर्वनाशी विभीषिकाओं का आधारित कारण यह असन्तुलन ही है। जिससे देवता दुर्बल पड़ता हैं और दैत्य को स्वच्छंद रहने का अवसर मिलता है।

काया में दुर्बलता, रुग्णता और अकाल मृत्यु जैसे संकट तभी खड़े होते है जब पोषण घटता है और मालिन्य बढ़ता है। मानसिक तेजस्विता का व्यक्तित्व की उत्कृष्टता का ह्रास भी इसी आधार पर होता है कि चिन्तन और चरित्र में से आदर्श वादिता घटती और दुर्बुद्धिजन्य दुश्चरित्रता बढ़ती जाती है। व्यक्ति के पतन पराभव का एकमात्र कारण यही है। समाज का उत्थान पतन भी इसी तथ्य पर आधारित है। सृष्टि का चिरपुरातन इतिहास साक्षी है कि संकट असाधारण रूप से जब कभी जहाँ कहीं उभरे है वाही सृजन की दुर्बलता और ध्वंस की बलिष्ठता भी नाना आकार प्रकार के संकटों को बनाते उभारते देखा जा सकता है।

सृजन की सत्प्रवृत्तियां सनातन है। वे अपना काम करती ही रहती है। परिस्थितिवश दुर्बल तो पड़ती है पर पूर्णतया नष्ट नहीं होती। लंका में असुरों का बाहुल्य था फिर भी विभीषण और मन्दोदरी न केवल अपनी वरिष्ठता बनाये रहे वरन् अनीति के प्रतिरोध अधिक संभव न होने पर भी असहयोग ओर विरोध तो करते ही रहे। सन्त, सुधारक और शहीद तथा श्रेष्ठता के समर्थन ओर निकृष्टता के उन्मूलन में भी अपनी क्षमता और परिस्थितियों की विषमता के साथ तालमेल बिठाकर कुछ योजना बनाते ओर प्रयास करते है। यह सामान्य क्रम हलके भारी रूप में चलता ही रहता है। किन्तु कभी-कभी स्थिती बहुत विषम हो जाती है। सामान्य प्रयासों से न सृजन की बढ़ी-चढ़ी आवश्यकता पुरी होती है और न ध्वंस की विनाशलीला पर नियन्त्रण बन पड़ता है। आतंक की तमिस्रा घनी होती जाती है। और निराशा भरी परिस्थितियाँ बेकाबू हो गयी है। और पतन और उत्थान में बदल सकने वाली प्रखरता मनुष्य के हाथ से छिन गई। यह असमंजस यदि दे तक ऐसा ही बना रहे तो ध्वंस ही जीतेगा। विनाश ही नग्न नृत्य करेगा।

ऐसे ही अवसरों पर सृष्टा का वहां आश्वासन अवतरित होता है जिससे उसको अपने सुरम्य उद्यान को विनाश के गर्त में गिरने से पूर्व ही उसे बचाते रहने का सुनिश्चित विश्वास दिलाया है। “यदा यदा हि धर्मस्य..................।” वाली प्रतिज्ञा गीताकार ने अर्जुन के सम्मुख ही प्रकट नहीं की हैं वरन् इस आश्वासन का शास्त्रों और आप्त वचनों में अनादि काल से अनवरत उल्लेख होता रहा है ने केवल उल्लेख वरन् उसके प्रकटीकरण का प्रमाण भी समय-समय पर उपलब्ध होता रहा हे। दिव्य सत्ता का अवतरण ऐसे ही अवसरों पर होता है। अवतार ऐसी ही विषम परिस्थितियों में प्रकट होते है। मनुष्य का पौरुष जहाँ लड़खड़ाता है वहाँ गिरने से पूर्व सृजेता के लम्बे हाथ सन्तुलन को सन्तुलन में बदलने के लिए अपना चमत्कार प्रस्तुत करते दिखाई पड़ते है। यही है सृष्टा की लीला अवतरण प्रकटीकरण।

सृष्टि के आदि से लेकर अब-तक अनेक बार अनेक क्षेत्रों में अनेक विषमताओं को निरस्त करने के लिए होते रहे हे। भूतकाल में विश्व बिखरा हुआ था। यातायात के साधनों में न्यूनता रहने से एक दुनिया छोटी-छोटी अनेक दुनियाओं में बैठी हुई थी। इसलिए विषमतायें भी क्षेत्र विशेष की स्थानीय परिस्थितियों की होती थीं। विश्वव्यापी कोई संकट प्रायः नहीं ही होता था,इसलिए अवतार भी क्षेत्रीय ही होते थे और ‘ उनके सामने लक्ष्य भी उतना ही रहता था जितना कि उन दिनों संकट उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी था। भारतवर्ष में हिंदू धर्म के अंतर्गत 14 अवतार गिनाये जाते हैं। जैन धर्म के 14 तीर्थंकर इनके अतिरिक्त है। सिक्खों के दस गुरु भी उसी श्रेणी के गिने जाते है। अन्यान्य सम्प्रदायों में भी ‘ अपने प्रवर्तकों एवं ऋषि देवताओं का पृथक-पृथक उल्लेख है। हिन्दू धर्म की शाखा प्रशाखाओं के अंतर्गत जिन्हें अवतार स्तर की मान्यता मिली है उसकी गणना हजारोँ में ही जाती है। फिर भारत से बाहर अन्य देशों एवं धर्मो की गाथाओं में अपने-अपने अवतारों का अलग से वर्णन है। ईसाई, मुसलिम, पारसी, यहूदी, आदि धर्मावलम्बी भी अपने अवतारों की गणना अलग से करते है। वे हिन्दू धर्मानुयायियों की गणना से भिन्न है।

मात्र धार्मिकता का क्षेत्र ही एक मानवी आवश्यकताओं एवं समस्याओं का क्षेत्र नहीं है। उसके बाहर भी बहुत कुछ है। उन क्षेत्रों में भी समस्याओं का समाधान करने वाली शक्तियाँ भी अनेक महा मानवों के रूप में प्रकट होती रही है। दर्शन,विज्ञान,शिक्षा,चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में छाये हुए अन्धकार को प्रकाश में बदलने वाले व्यक्तित्वों को उनसे लाभान्वित होने वाले एवं श्रद्धालु लोग अवतार ही मानते है। दर्शन एवं विज्ञान की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्रस्तुत करने वाले महामानवों को वैसा ही मसीहा माना जाता है जैसा कि धर्म क्षेत्र के लोग पौराणिक अवतारों को श्रद्धास्पद एवं अभिनन्दनीय मानते है।

व्यक्तियों को अवतार,मानना हो तो मात्र धर्मक्षेत्र की विभूतियों को -ही नहीं,सन्तुलन में सहायक हर महान् को उसी श्रेणी में गिनना पड़ेगा।ऐसी दशा में उनकी संख्या सीमा का निर्धारण सम्भव न रहेगा।साथ ही एक कठिनाई और बनी रहेगी कि उनके स्तर के अनुरूप कनिष्ठ वरिष्ठ का वर्गीकरण भी आवश्यक हो जावेगा। अवतारों की क्षमता और विशिष्टता का मूल्याँकन उनकी कलाओं के मापदण्ड में आँका जाता है। परशुराम जी तीन कला के और रामचन्द्र जी बारह कला के अवतार थे। दोनों एक ही समय में ‘हुए और एक दूसरे के संबंध में यथार्थता से अपरिचित ही बने रहे। मच्छ,कच्छ,बाराह आदि की कलायें कम थीं और क्रमिक विकास के अनुसार,बढ़ती चली आई। राम बारह कला के और कृष्ण सोलह कला के अवतार थे युद्धवीस के। पूर्ण कलायें चौसठ मानी जाती है। इस प्रकार अबतक के अवतारों की सामयिक परिस्थितियों के अनुसार जैसा भी पुरुषार्थ करना पड़ता है उसके स्तर और विस्तार को देखते हुए उनका महत्व,स्तर और पराक्रम भी बढ़ता रहा है।

अपने युग में भगवान की सत्ता “ प्रज्ञावतार” के रूप में प्रकट हो रही है। इसकी कलायें चौबीस है। गायत्री के चौबीस अक्षरों, में से प्रत्येक को एक कला किरण माना जा सकता है। इन दिव्य धाराओं में बीज रूप से वह सब कुछ विद्यमान है जो मानवी गरिमा को स्थिर एवं समुन्नत बनाने के लिए आवश्यक है। सूर्य के सप्त अश्व, सप्त मुख, सप्त आयुध प्रसिद्ध है। सविता की प्राण सत्ता गायत्री की शक्तिधारायें इससे अधिक है। गायत्री के चौबीस अक्षरों में साधन परक सिद्धियां और व्यक्तित्व परक, ऋद्धियां अनेकानेक हैं उनका वर्गीकरण चौबीस विभागों में करने से विस्तार को समझने में सुविधा होती है चेतना की अन्तरंग का परिष्कार और साधन सुविधाओं का विस्तार यह दोनों ही तथ्य मिलने पर मनुष्य में देवत्व के उदय और समाज में स्वर्णिम परिस्थितियों के विस्तरण की सम्भावना बनती है। प्रज्ञावतार का कार्यक्षेत्र यही है। वह व्यक्ति के रूप में नहीं शक्ति के रूप में प्रकट होगी। जिस व्यक्ति में इस प्रज्ञा तत्व की मात्रा जितनी अधिक प्रकट होगी वह युग सृजेताओं की गणना में आ सकेगा और अपने पुरुषार्थ के आधार पर श्रेय प्राप्त कर सकेगा इतने पर भी परिवर्तन के लिए अवतरित मूल सत्ता निराकार ही रहेगा। चेतना सदा निराकार ही रहती है। व्यक्तियों में घटनाओं के माध्यम से उसके प्रवाह का अनुभव भर किया जा सकता है। पंखा,बल्ब,मोटर,हीटर आदि बिजली से चलते तो है पर वें उपकरण बिजली नहीं हे। विद्युत धारक मूलभूत स्वरूप को प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता उसकी प्रतिक्रिया भर अनुभव की जा सकती है। प्रज्ञावतार का दर्शन भी इसी आधार पर कर सकना सम्भव होगा। उसे किसी व्यक्ति की आकृति में देखा जा सकेगा। हाँ विशिष्ट व्यक्तियों में उसकी ज्योति न्यूनाधिक मात्रा में जलती देखी जा सकेगी। यह ज्योति पुँज अपनी विशिष्टता का परिचय देते हुए यह प्रमाणित करेगा कि युग परिवर्तन की ईश्वरीय इच्छा को पूरा करने में वे कितने समर्थ एवं श्रेयाधिकारी बन सके।

न अवतार का प्रयोजन डगमगाते सन्तुलन को स्थिर करने के लिए सूक्ष्म जगत में ऐसा भावनात्मक प्रवाह उत्पन्न करता हैं जो अपनी प्रेरणा से असंख्य प्राणवानों में नव सृजन के लिए अभीष्ट आवेश उत्पन्न कर सके। धर्म की ग्लानि की ओर दुष्कृतों को उलट कर धर्म की स्थापना एवं साधुता की सुरक्षा का महान् प्रयोजन, इसी प्रकार सम्पन्न होता रहा है। अपने युग में वह प्रक्रिया इसी क्रम से सम्पन्न होने जा रही है।


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