युग शक्ति का अवतरण-श्रद्धा और विवेक का संगम

August 1979

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ऋतम्भरा प्रज्ञा का संक्षिप्त उच्चारण ‘प्रज्ञा’ के रूप में होता है। ऋतम्भरा वह है जिसमें विवेक और श्रद्धा का समुचित समावेश है। विवेक उस निवारण को कहते हैं जिसमें तर्क, तथ्य और दूरदर्शिता का समुचित समावेश हो। श्रद्धा उस आस्था का नाम है जो उत्कृष्ट आदर्शवादिता को अत्यधिक प्यार करे और उस स्तर के चिंतन तथा कर्तृत्व से भाव भरे रसास्वादन का आनन्द प्रदान करे। विवेक को बुद्धि का उत्कृष्टतम स्तर माना गया है। श्रद्धा अन्तःकरण की श्रेष्ठतम उपलब्धि है। दोनों का जहाँ जितना सम्मिश्रण होता है वहाँ उतनी ही महानता दृष्टिगोचर होती है। उसी उपलब्धि के सहारे सामान्य परिस्थितियों में जन्मे, पले व्यक्ति भी ऐतिहासिक महामानवों की भूमिका निभाते और विश्वनिर्माण में असाधारण योगदान करते हैं।

अगले दिनों मनुष्य की सबसे बड़ी सम्पदा एवं उपलब्धि ऋतम्भरा प्रज्ञा मानी जायेगी। यों कथा, प्रसंगों में और धर्म प्रवचनों में प्रज्ञा की महिमा बहुत गायी जाती है और ब्रह्म विद्या का सुविस्तृत कलेवर में उसी का प्रतिपादन किया जाता है किन्तु उसे व्यवहार में कार्यान्वित करने का अवसर किन्हीं बिरलों को ही मिलता है। सामान्य जीवन क्रम में उसका समावेश नहीं के बराबर होता है। जो बात-व्यवहार में नहीं आती वह कठिन या असम्भव मानी जाती है प्रेरणा प्रदान करने में अनुकरण की परिस्थितियाँ ही प्रभावी होती हैं दूसरे की देखा देखी ही कुछ अपनाने और कुछ करने की मानवीय दुर्बलता ही सर्वत्र संव्याप्त है मौलिक चिंतन की प्रखरता और मौलिक निर्णय की साहसिकता किन्हीं विरलों में ही होती है बिना दूसरों का प्रभाव ग्रहण किए उच्चस्तरीय नीति अपनाने और उस पर अन्त तक दृढ़ बने रहने का आत्मबल तो कदाचित ही किन्हीं मनस्वियों में दृष्टिगोचर होता है। प्रज्ञा के माहात्म्य की चर्चा, करते रहना सरल है, पर उसे अपनाना कठिन है कठिन इस लिए नहीं कि व्यवहार में जटिल भी असंभव है। कारण मात्र इतना भर है कि अनगढ़ प्रचलनों से आच्छादित वातावरण में अनुकरण के उदाहरण न मिलने से सामान्य व्यक्ति उस दिशा में पग बढ़ाते हुए डरता है। यह डर ही वह बाधा है जो प्रज्ञा को अपनाकर मंगलमय जीवन-यापन करने के आनन्द से मनुष्य को वंचित किये रहती है।

प्रज्ञावतार से उत्पन्न युगान्तरीय चेतना की विशेषता यह होगी कि अनायास ही जन-जन के मन में ऐसा उल्लास उत्पन्न करेगी जिसमें अन्तःप्रेरणा ही वह कार्य कर सके तो सामान्य व्यक्ति के लिए सामान्य परिस्थितियों में सम्भव नहीं होता। असम्भव को संभव बना देना यही अवतार प्रक्रिया का प्रधान चमत्कार है।

रावण का आतंक दसों दिशाओं में संव्याप्त था। उसके विरोध प्रतिरोध की बात कोई सोचता तक न था। इतने दुर्दान्त दानव परिवार की शक्ति सामर्थ्य का अनुमान लगाने वाले बेतरह निराश और भयभीत हो जाते थे। अनीति सहते-सहते मरते तो असंख्यों थे, पर लड़ते हुए मरने का शौर्य किसी में भी जगता न था। सीता अपहरण जैसी हृदय द्रावक घटना हुई, पर न अयोध्या से प्रतिरोध-प्रतिशोध का प्रयास हुआ और न मिथिला से। रघुवंशी भी चुप थे और राजा जनक के स्वजन परिजन भी। ऐसे आतंक को चीरते हुए अशिक्षित और अनगढ़ समझे जाने वाले रीछ वानरों का शौर्य उभरा और वे प्रत्यक्ष मरण से लड़ने के लिए प्राण हथेली पर रखकर चल दिए। एक के पीछे अनेकों की सेना बनती बढ़ती चली गयी। अन्य प्राणियों पर भी प्रभाव पड़ा। गिद्ध ने शौर्य साहस का परिचय दिया और प्रत्यक्ष काल से लड़ने में सम्भावित मरण का उल्लासपूर्वक वरण किया गिलहरी उस धर्म युद्ध में सहायता करने के लिए बालों में भर-भरकर बालू लाई। घटनाएँ अत्यधिक महत्व की भले ही न हो, पर एक तथ्य स्पष्ट होता है कि आतंक को चीरते हुए जब सत्साहस अप्रत्याशित रूप में उभरे तो समझना चाहिए कि कोई दैवी चेतना काम कर रही है और बुद्धि द्वारा लगाये जाने वाले गणित को निरस्त करके असाधारण का परिचय दे रही है। अवतार की प्रक्रिया यही है। प्रेरक राम थे या हनुमान बहस इस बात की नहीं। तथ्य यह है कि अन्तरालों ने आदर्शवाद अपनाया और घाटे का सौदा स्वीकार करने वाले दुस्साहस का परिचय दिया।

कृष्ण काल में इन्द्र के आतंक से व्रज जलमग्न हुआ जा रहा था। सामान्य बुद्धि भाग खड़े होने के अतिरिक्त और कोई उपाय सोच ही नहीं सकती थी। असम्भव को सम्भव बनाने वाला साहस उभरा। ग्वाल बाल शिला खण्ड को दूर-दूर से समेटकर हाथ और लाठियों के सहारे लाने लगे। विशालकाय बाँध बना। बाढ़ और वर्षा से होने वाली हानि टली। इन्द्र हारा मनुष्य जीता। असम्भव लगने वाला कार्य सम्भव हुआ। गोवर्धन उठ गया। सृजन से श्रम शक्ति के नियोजन का सत्परिणाम प्रत्यक्ष हुआ। सामान्यतया ऐसे बड़े कार्य किसी सुसम्पन्न शासनतन्त्र से ही बन पड़ता है। निहत्थे और निर्भय श्रमिक किशोरों में न इतना ज्ञान होता है न अनुभव। सामान्य क्षणिक बुद्धि इस प्रकार के दुस्साहसों में अनर्थ होने का ही निष्कर्ष निकालती है और ऐसे झंझट में उलझने से दूर रहने का ही परामर्श देती है। इसके विपरीत महान उद्देश्य के लिए जोखिम भरे दुस्साहस के लिए कटिबद्ध हो जाना असाधारण आदर्शवादिता का ही काम है। ऐसी प्रेरणा प्रज्ञा के अतिरिक्त और कोई दे नहीं सकता।

दुर्योधन के पास जन-शक्ति और साधन-शक्ति असीम थी। पाण्डव अज्ञात वास में जान बचाते फिर रहे थे। कोई सहायक न था। सहायता करने में किसी को अपनी खैर नहीं देखती थी। पाण्डव अपने बलबूते न सेना खड़ी कर सकते थे न शस्त्र जुटा सकते थे। ऐसी दशा में निरीह पाण्डवों का कौरवों की अनीति से लड़ना सम्भव न था। फिर भी असम्भव सम्भव हुआ। न्याय पक्ष के समर्थन में महाभारत रचा गया और उसमें पराजय की सम्भावना को समझते हुए भी असंख्यों आदर्शवादी धर्म युद्ध लड़ने के लिए पहुँचे। साधनहीनता ने साधनों की विपुलता को पछाड़ा। इससे असमर्थों की साहसिकता देखते ही बनती है। यह चमत्कार मात्र अवतार ही कर सकता है। आदर्शों के लिए घाटा स्वीकार करते हुए लड़ मरने की साहसिकता का अनुदान अवतार के अतिरिक्त और किसी के पास होता ही नहीं।

बुद्धकाल के दुर्दिनों में जन मानस को कुत्साओं और कुण्ठाओं ने बेतरह पाप पंक में डुबो रखा था। पुरोहित वर्ग इस अनाचार का मूर्धन्य मार्ग दर्शन कर रहा था। ऐसी दशा में विचार क्रान्ति का शंखनाद दुहरे संकट से भरा था। वातावरण की प्रतिकूलता में समर्थकों और सहयोगियों की सम्भावना अत्यन्त क्षीण थी। विपक्षियों को निहित स्वार्थों में आँच आने से क्रुद्ध होना और घातक आक्रमण करना स्वाभाविक था अंगुल माल ने प्राणा हरण का बीड़ा उठाया और अंबपाली ने चरित्र हनन का। ऐसे घोर निराशा भरे वातावरण में परिस्थितियों को उलट देने वाला उभार उमड़ पड़ना निश्चय ही अप्रत्याशित था। बुद्ध के अभियान को भरपूर सहायता मिली। लाखों व्यक्ति सुख सम्पदा को लात मारकर चीवरधारी परिव्राजक बने। संपन्नों से लेकर निर्धनों तक ने उसका सहयोग किया। न जन-शक्ति की कमी रही न धन शक्ति की। आदर्शवादी पराक्रम आँधी तूफान की तरह उफनता चला गया और प्रतिकूलताएँ इस प्रकार अनुकूल होती चली गई मानो मनुष्य को निर्मित बनाकर भगवान ने सारा विधान पहले से रच पचकर तैयार रखा हो। बुद्ध की क्षमता और परिस्थितियों की विषमताओं का असन्तुलन रहते हुए भी जो परिणाम उत्पन्न हुए इन्हें अवतार लीला के अतिरिक्त और क्या कहा जाये? आदर्शवादी कथनीय कथन तो बहुत होते रहते हैं, पर ऐसे दुस्साहस कदाचित ही कभी फूटते हैं। जब लोग आदर्शों के परिपालन में अपना सर्वस्व समर्पण करने की बात सोच ही नहीं वरन् हजार प्रतिकूलताओं के रहते हुए भी उसे कर की गुजरें। आदर्शवादी दुस्साहस ही अवतार है। वह एक भावनात्मक प्रवाह के रूप में उत्पन्न होता है और असंख्यों को अनुप्राणित करता है। श्रेय किस व्यक्ति को मिला। प्रमुख किसे माना जाय, यह बात नितान्त गौण है। झण्डा लेकर आगे चलने वाले की ही छवि फोटो में आती है। यद्यपि उस सैन्यदल में अनेकों को शौर्य पुरुषार्थ झण्डा धारी की तुलना में कम नहीं अधिक ही होता है।

गाँधी युग में भी ऐसा ही चमत्कार उत्पन्न हुआ। अंग्रेजों की समर्थता और कुशलता पहाड़ जितनी ऊँची थी। उनके राज्य में सूर्य अस्त नहीं होता था। युद्ध कौशल में वे अपना शानी नहीं रखते थे। निहत्थे मुट्ठीभर सत्याग्रहियों की टोली उनका कुछ बिगाड़ सकेगी इसकी आशा अपेक्षा किसी को भी नहीं थी। हजार वर्ष की गुलामी से अस्तव्यस्त जन समुदाय में ऐसा साहस भी नहीं था कि इतने सशक्त विपक्ष के साथ लड़ मरने के लिए अभीष्ट त्याग बलिदान का परिचय दे सके। ऐसी निराशा जनक परिस्थितियों में एक अप्रत्याशित उभार उमड़ा। स्वतन्त्रता संग्राम ठना और अन्ततः विजयी होकर रहा। जन साधारण ने उस संदर्भ में जिस पराक्रम का परिचय दिया, वह देखने ही योग्य है। असमर्थता की समर्थता और साधनहीनों के साधन असहायों की सहायता करने के लिए वे अनुकूलताएँ न जाने कहाँ से आ उपस्थित हुई। असम्भव लगने वाला लक्ष्य पूरा होकर रहा। यही है सूक्ष्म जगत में बहने वाली प्रचण्ड शक्तिधाराओं का प्रवाह जो ऊपर ही से शान्त और सामान्य दीखते हुए भी भीतर से ज्वाला मुखी जैसी विस्फोट क्षमता छिपाये बैठा रहता है। जब फूटता है तो सब कुछ उलट देता है इसी बुद्धि के लिए अगम्य विलक्षणता को अवतार कहते हैं।

अवतार का दार्शनिक विश्लेषण उस ऋतम्भरा प्रज्ञा की उमंग भरी हलचल के रूप में किया जाता है। जो मात्र अन्तःकरणों में अनायास ही उभरती है और अपनी प्रखरता के कारण मनुष्यों को आदर्शवादी दुस्साहस कर गुजरने के लिए विवश करती है। यह अवतरण एक पर नहीं अनेकों पर होता है। जो इस ऊर्जा के वाहन बनते हैं उनके पराक्रम असामान्य होते हैं। उनकी परिस्थिति और मनःस्थिति में कोई तालमेल नहीं रहता। असाधारण सोचना और असाधारण कर गुजरना सामान्य लोगों का काम नहीं। लोग तो संकीर्ण स्वार्थपरता से आगे की बात सोच ही नहीं पाते। उन्हें निकट का ही दीखता है दूर का नहीं, अस्तु न लोभ छोड़ने बनता है और न शौर्य अपनाते। अवतार इस प्रचलन से विपरीत सोचने और बिना समर्थन पाये एकाकी चल पड़ने की सामर्थ्य प्रदान करता है। इस आवेश में कितने ही व्यक्ति वह कर गुजरते हैं जिसे दैवी पराक्रम के रूप में माना जाता है। इस प्रकार की चेष्टायें अपने कर्ता को धन्य बनाती हैं वह असंख्यों के लिए उत्कृष्ट पराक्रम कर गुजरने का साहस अपने अनुकरणीय आदर्श द्वारा प्रदान करता रहता है। ऐसे व्यक्ति देवदूत कहलाते हैं। सामान्य भाषा में इन्हें महा मानव कहा जाता है। अवतार का प्रधान कार्य अपने लीलाकाल में देवदूतों में अदृश्य वातावरण की उच्चस्तरीय उमंगे भर देना भर होता है। शेष कार्य तो वे युग सृजेता स्वयं ही करते रहते हैं। सफलता सहज ही उन्हें भी नहीं मिल जाती। प्रतिकूलताओं से लड़ने का पराक्रम और अपने अनुदानों से लोक श्रद्धा उभारने वाला वरदान प्रस्तुत करते रहना ऐसे लोगों के लिए तनिक भी कष्ट साध्य नहीं होता। सामान्य लोग जिसे मुसीबत मोल लेना कहते हैं, मनीषियों के लिए वही कष्ट सहना, युग साधना के रूप में सम्मानित होता है। तत्वदर्शी इन्हीं अदृश्य हलचलों को जागृत आत्माओं के अन्तःकरणों में उछलती देखते हैं तो कहते हैं अवतार का आवेश असन्तुलन को सन्तुलन में बदलकर ही रहेगा।

अवतार क्या करता है? उसके लीला, प्रसंग क्या होते है? इसका स्थिर निश्चय नहीं हो सकता। परिस्थिति के अनुरूप हर अवतार ने अपने क्रिया कलाप निर्धारित किये और आवश्यकतानुसार बदले हैं। लीलाओं का महत्व नहीं। उनमें पाई जाने वाली विलक्षणताओं एवं विसंगतियों का भी कोई महत्व नहीं। सारभूत तथ्य इतना ही है कि उस अदृश्य प्रेरणा से हर सुसंस्कृत अन्तरात्मा में कुछ ऐसा कर गुजरने का दुस्साहस उमड़ता है जिसको चरितार्थ होते देखकर आदर्शवादिता असम्भव नहीं लगती वरन् व्यवहार साध्य प्रतीत होती हैं। प्रवाह को उत्पन्न करने में भागीरथों को अग्रणी भर होना पड़ता है, आगे तो उसी धारा में असंख्य सामान्यों को अनायास ही बहते देखा जाता है।

प्रज्ञा अवतरण में उसी परम्परा का निर्वाह होने जा रहा है। श्रद्धा और विवेक का संगम युग शक्ति के रूप में प्रकट हो रहा है। श्रद्धा अपनाने में पूर्ण तथ्यों को खोजने और यथार्थता अपनाने के लिए विवेक का अवलम्बन लेना पड़ता है। अन्यथा अविवेक के रहते अन्ध श्रद्धा ही पनपती है और उससे लाभ के स्थान पर हानि होती है। बलिष्ठता शरीर की बुद्धिमत्ता मस्तिष्क की, श्रद्धा अन्तरात्मा की शक्ति है। यही चेतना क्षेत्र की सर्वोपरि क्षमता है। श्रद्धा ही मनुष्य को अनन्त सामर्थ्य प्रदान करती है। उत्कृष्टता को व्यवहार में उतारने वाला दुस्साहस उसी उद्गम से प्रस्फुटित होता है। जिन्हें श्रद्धा की जितनी मात्रा मिल सकी उन्होंने उतने ही उच्चस्तरीय और उतने ही सुविस्तृत महान कार्य सम्पन्न किये हैं। गीताकार ने सच ही कहा है- ‘‘श्रद्धाँ मयोयं पुरुषायो यच्छ्रद्धः सएवसः” “यह मनुष्य मात्र श्रद्धा का पुतला है। जिसकी अन्तः श्रद्धा जिस स्तर की है उसका जीवन स्वरूप ठीक उसी के अनुरूप बन जाता है। ईश्वरीय प्रयोजन को पूरा करने में अपने प्रचण्ड पुरुषार्थ की श्रद्धाँजलि लेकर युग देवता के चरणों में उपस्थित होने वाले अवतार के सहधर्मी सहकर्मी माने जाते हैं। अनन्त श्रेय के स्वामी ऐसे ही लोग बनते हैं। युग शिल्पियों के स्तर को विस्तार होना इस तथ्य का प्रमाण है कि अवतार की तत्परता कब कितनी प्रखर हो रही है।

श्रद्धा से सामर्थ्य उत्पन्न होना सुनिश्चित तथ्य है। सामर्थ्य का आकर्षण साधनों और सहयोगियों को प्रचुर परिणाम में खींचकर बुला लेता है। उच्चस्तरीय उद्देश्यों पूर्ति सदा इसी प्रकार सम्भव होती रही है। साधनों में श्रद्धा उत्पन्न करने की सामर्थ्य नहीं है। साधन सम्पन्न दृश्य खड़े करने और हलचलों को चलचित्रों जैसा प्रतिबिम्ब भर खड़ा कर सकते हैं। मात्र साधनों से विनिर्मित प्रयास लोगों को आकर्षित चमत्कृत तो करते हैं पर अनुकरण की प्रेरणा नहीं देते। यही कारण है कि धनिकों, कलाकारों, विद्वानों प्रचारकों द्वारा खड़े किये गये अभियान आन्दोलन अपनी उछल कूद का परिचय तो देते हैं पर कोई ठोस कार्य कर सकने में सफल नहीं होते। जहाँ तक मनुष्यों को दिशा धारा देने का प्रश्न है उनकी अन्तःस्थिति में उत्कृष्टता, अभिवर्धन का प्रश्न है वहाँ तक एक ही उपाय कारगर होता है.......श्रद्धा सिक्त व्यक्तित्वों का अनुकरणीय आचरण और साधन श्रद्धा के बिना और किसी प्रकार बन नहीं पड़ता श्रद्धा साधनों के अभाव में भी अपना चमत्कार प्रस्तुत करती है जब कि साधनों की प्रशंसा तक ही सीमित रहना पड़ता है वे श्रद्धा की संचार कर सकने में सदा असफल ही बने रहते हैं।

युग परिवर्तन बड़ा काम है लोक मानस को अवाँछनीयता से विरत करके उत्कृष्टता के प्रति भावविभोर हो उठने की स्थिति को समष्टि व्यक्तित्व का कायाकल्प ही कहा जा सकता है। यह बड़ा काम है इसके लिए बड़ी शक्ति चाहिए। चेतना को प्रभावित करने वाली शक्ति एक मात्र श्रद्धा ही है। इसी को गँवा बैठने से अपने समय को दुर्दशा ग्रस्त होना पड़ा है। इसी अभाव के कारण साधनों की बहुलता भी सुख शान्ति को बनाए रहने तक में सफल नहीं हो पा रही है। समस्याओं और विपत्तियों का तथ्य मूल कारण आस्था संकट के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। श्रद्धा का संवर्धन ही प्रकारान्तर से नव युग का सतयुग का अवतरण है। सूर्य की किरणें पहले पहाड़ की चोटी पर दिखाई देती हैं पीछे नीचे उतर कर समस्त भूतल को आलोक प्रदान करती हैं। प्रज्ञावतार का प्रभाव सबसे पहले जागृत आत्माओं पर चमकेगा, तदुपरान्त जन-साधारण को उस दिव्य अनुदान से लाभान्वित होने का अवसर मिलेगा।


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