युगान्तरीय चेतना का अवतरण सुनिश्चित

August 1979

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सामान्य बुद्धि इसी निश्चय पर पहुँचती है कि सुविधा साधन बढ़ने मनुष्य को सुख शान्ति मिलनी चाहिये ओर अधिक प्रसन्नता तथा प्रगति का अवसर मिलना चाहिए। इसी आधार पर अधिक समृद्धि उपलब्ध करने के लिए नाना प्रकार के उचित अनुचित प्रयत्न करने में लगे रहते है। इन दिनों मान्यता एवं चेष्टा और अधिक बढ़ गई है। साम्यवादी प्रतिपादनों ने पिछले दिनों यह घोषणा बहुत जोरों से की है कि संसार की समस्त कठिनाइयों का प्रधान कारण धन की कमी है। धन बढ़ेगा तो समस्त कठिनाइयां स्वयं ही समाप्त हो जायेंगी। इसके लिए अधिक उत्पादन पर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए था उतना नहीं दिया गया वरन् धनिकों को गरीबी का कारण ठहरा कर वर्ग संघर्ष खड़ा कर दिया है जो हो, लक्ष्य धन की अभिवृद्धि ही रही।

पूंजीवादी क्षेत्रों में भी अर्थ संवर्धन के लिए कम प्रयत्न नहीं किये गये। हर देश में अपने-अपने ढंग से समृद्धि संवर्धन के प्रयत्न चल रहे हैं। विज्ञान ने इस नियमित अनेकानेक आविष्कार किये हैं और सफल संवर्धन ही नहीं अर्थ उपार्जन के लिए भी अनेकानेक उपकरण आधार विनिर्मित किये हैं। शिल्पी, व्यवसायी, अर्थशास्त्री अपनी आमदनी का अधिकांश भाग धन उपार्जन के निमित्त ही लगाते रहे हैं। इसमें सफलता भी कम नहीं मिलती। पूर्वजों की तुलना में अपनी पीढ़ी कहीं अधिक समृद्ध है। सुविधा साधनों की दृष्टि से इस समय पीढ़ी के लाग इतने सौभाग्यशाली हैं जितने सृष्टि के आरंभ से लेकर अपनी शताब्दी के मध्य काल में कभी नहीं रहे। गरीबी दूर नहीं हुई। कारण यह नहीं है कि 400 करोड़ मनुष्य की उचित आवश्यकता पूरी कर सकने के लिए आवश्यक सुविधा साधन उपलब्ध नहीं हैं। वरन् यह है कि उनके संचय की ललक और उपभोग की लिप्सा ने संपत्ति का सदुपयोग संभव नहीं रहने दिया। साधनों की वृद्धि तेजी से जारी है। संपन्नता बढ़ रही है। इतने पर भी यह आशा नहीं बंधती कि प्रस्तुत कठिनाइयों का कोई हल निकलेगा अमेरिका जैसे धन कुबेर इस बात के साक्षी हैं कि बहुत वैभव होने पर भी मनुष्य शारीरिक और मानसिक दृष्टि से किस तेजी के साथ दुर्बल एवं रुग्ण होते चले जा रहे हैं। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में उन्हें कितनी भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। बढ़ते हुए मनोरोग और अपराध यह बताते हैं कि बढ़ा हुआ वैभव भी व्यक्ति को सुखी एवं समुन्नत बनाने में कुछ अधिक कारगर सिद्ध नहीं हो रहा है।

यहां वैभव वृद्धि की अनुपयोगिता नहीं ठहराई जाती है और उन प्रयत्नों के विरुद्ध कुछ नहीं कहा जा रहा है। संपत्ति बढ़ना तो मनुष्य के कौशल एवं पुरुषार्थ का ही प्रतिफल है अस्तु उसे सराहनीय ही कहा जायेगा। चर्चा यह हो रही है कि पिछली धरोहर के लिए लोग आज की तुलना में कहीं अधिक अभावग्रस्त थे। उनमें से कुछ जीवित रहे होते तो आज बढ़ी-चढ़ी सुविधाओं को देखते और अपने समय की परिस्थितियों के साथ तुलना करते तो उन्हें यह समय चमत्कारी समृद्धि सिद्धियों से भरा पूरा प्रतीत होता रेल, तार, डाक, जहाज, मोटर, सड़क, शिक्षा, चिकित्सा, शिल्प, कला, व्यवस्था आदिक की जो बढ़ोतरी हुई हैं उसे देखते हुये पिछली पीढ़ी वाले यही कल्पना कर सकते हैं इन दिनों के लाग देवोपम जीवन जी रहे हैं और स्वर्गीय परिस्थितियों का आनंद ले रहे होंगे।

स्थिति बिल्कुल उल्टी है। व्यक्ति दिन-दिन शारीरिक, मानसिक और आंतरिक हर क्षेत्रों में दुर्बल पड़ता जा रहा है। रुग्णता और दुर्बलता एक फैशन एवं प्रचलन है यद्यपि पौष्टिक खाद्य पदार्थों और चिकित्सा साधनों की कोई कमी नहीं है। इसी प्रकार मस्तिष्कीय विकास के लिए पाठशालाओं से लेकर पुस्तकों तक के अगणित साधन उपलब्ध हैं। रेडियो, अखबार, प्रदर्शनी, यात्रा, सभा सम्मेलन आदि की सुविधा से जानकारी का क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है।

अशिक्षा के विरुद्ध युद्धस्तरीय प्रयत्न चल रहे हैं और विज्ञ एवं कुशल लोगों की संख्या तूफानी गति से बड़ रही है। इतने पर भी मनोरोग, हेय चिंतन, दुर्भाव, अनुपयुक्त महत्वाकांक्षा, निकृष्टता में अनुभूति जैसे अनेकों ऐसे आधार खड़े हो गये हैं जिनके कारण जन-मानस में असंतुलन उद्वेग एवं आक्रोश उत्पन्न करने वाले तत्वों की ही भरमार है। अधिकांश जनमानस संतोष और शांति से वंचित हैं। प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता के लक्षण अपवाद रूप से नहीं दृष्टिगोचर होते हैं। हर व्यक्ति खिन्न चिंतन, उदास दृष्टिगोचर होता है। न उमंगे हैं न आशा। आशंकाओं और समस्याओं के भार से हर मनुष्य का मस्तिष्क तनावग्रस्त दिखता है। असुरक्षा और एकाकीपन का भार इतना लद रहा है कि जिंदगी भारी लाश की तरह ढोनी पड़ रही है। बढ़ी हुई विपन्नता में हताशों, आत्महत्याओं का दौर बढ़ रहा है। अर्ध हत्या, अर्ध आत्म हत्या की घटनायें तो पग-पग पर देखी जा सकती हैं। विक्षिप्त और अर्ध विक्षिप्त-सनकी और बहमी लोगों की संख्या इस तेजी से बढ़ रही है कि स्वास्थ्य और संतुलित मनःस्थिति वाले व्यक्ति खोज निकालना कठिन दिखता है। बाहर से चतुर और बुद्धिमान सुशिक्षित और संपन्न दीखने वाले व्यक्ति भी भीतर ही भीतर इतने खोखले और उथले पाये जाते हैं कि कई बार तो उनके सुशिक्षित होने में भी संदेह होने लगता है।

पारिवारिक स्नेह सौजन्य सहयोग सौहार्द घटते-घटते समाप्ति के बिन्दु तक जा पहुंचा है। माता-पिता और संतान के बीच भाई बहिनों में भावज ननद जैसी आत्मीयता होती जा रही है उसका दर्शन दुर्लभ हो रहा है। एक बाड़े में रहने वाली भेड़ों की तरह कुटुंबों में कई व्यक्ति रहते तो हैं पर एक दूसरे पर प्यार और सहयोग बखेरने के स्थान पर अपनी-अपनी गोटी बिठाने में लगे रहते हैं परिवार संस्थान अधिकाधिक लाभ उनसे उसी प्रकार उठाया जा सकता है घर का हर सदस्य इतना ही सोखता है। अधिकार की मांग है और कर्तव्य की उपेक्षा। फलतः परिवार नीरस निरानंद हो चले हैं। दुकान, दफ्तर से लौटने पर घर में जो स्वर्गीय आनंद मिल सकता है उससे अधिकांश लोग वंचित हैं। थकान मिटाने के नाम पर नशा, सिनेमा यारवासी जैसे घटिया आधार ढूंढ़ने के लिए लोग प्रायः बचे हुये समय को भी बाहर ही बिताते हैं।

पति पत्नी का रिश्ता एक प्राण दो देह का मना जाता है। जीवन रथ को अग्रगामी बनाने में दोनों को दो पहियों की भूमिका निभानी चाहिए। नाव खेने में दो हाथ काम देते हैं वहीं गृहस्थ की सुव्यवस्था में पति-पत्नी का योगदान होता है दोनों को एक न होकर समन्वित जीवन जीना पड़ता है। किंतु लगता है वे आदर्श समाप्त हो गये। यौन लिप्सा ही वह आधार रह गया है जिस में दोनों एक दूसरे के साथ जुड़े रहते हैं। इसी प्रसंग में बच्चे आ सकते हैं और उनके प्रति जो प्रकृति प्रदत्त माया मोह होता है उस सूत्र में भी पति-पत्नी किसी प्रकार बंधे रहते हैं। यदि यौन आकर्षण और बालकों का मोह हटा लिया जाय तो सहज सौजन्य से प्रेरित भाव भरा दांपत्य जीवन कदाचित ही कहीं दृष्टिगोचर होगा समृद्ध देशों में स्वच्छन्दता के कारण ही पिछड़े देशों में विवशता के कारण ही पति-पत्नी के बीच काना कुबड़ा स्नेह संबंध जीवित रह रहा है। परिवार टूटते जा रहे हैं। वयस्क होते ही हर किसी को अलग रहने की बात सूझती है मजबूरी से जो साथ रहते हैं उन्हें भी सोचना यही पड़ता है कि सम्मिलित कुटुंब के सदस्य रहते तो अच्छा होता पढ़ी लिखी लड़कियों और उनके अभिभावक विवाह संबंध जोड़ने के साथ ही यह सोचते हैं कि बड़े कुटुंब का सदस्य न रहना पड़े। विलगाव के इस प्रयत्न में पारिवारिक जीवन जिसे घरौदों में बसने वाला स्वर्ग कहा जाता था एक प्रकार से छिन्न-भिन्न अस्त-व्यस्त और नष्ट-भ्रष्ट ही होता चला जा रहा है। इस सौभाग्य से वंचित रहने पर लोग सराय में दिन बिताने वाले आवारागिर्द लोगों की तरह दिन गुजारते हैं। गृहस्थ जीवन का भावात्मक आनंद कितना उच्चस्तरीय होता है इसकी अनुभूति ही नहीं कल्पना भी लोगों के हाथ से छिनती जा रही हैं।

आर्थिक दृष्टि से प्रायः सभी लोग दरिद्री हैं। अभाव ग्रस्त लोग स्वतंत्र आजीविका के कारण जितने खिन्न पाये जाते हैं उससे अधिक उद्विग्न वे हैं जिनके पास साधनों का बाहुल्य है। धन कमाना एक बात है और उसका सदुपयोग करना बिल्कुल दूसरी। एक पक्ष तो बढ़ रहा है पर दूसरे की दुर्दशा ने सारा संतुलन ही बिगाड़ दिया। विलासिता, आलस्य, बनावट, शान-शौकत की मदें इतनी खर्चीली हो रही हैं कि भोजन वस्त्र जैसे आवश्यक व्यय तो उसकी तुलना में नगण्य जितने ही लगते हैं। अहंकार और बड़ापन सहोदर जैसे बनते जा रहे हैं। संपन्नता की धारा दुर्व्यसनों के गर्त में गिरती है और उसकी प्रति क्रिया से अनेकानेक आचरण एवं विग्रह उत्पन्न होते हैं। आजीविका सीमित है और लिप्सा असीम तो फिर ऋणी बनने या कुकर्म करके उपार्जन करने के अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं रह जाता। सामाजिक कुरीतियों की लाश ढोने में भी अर्थ-व्यवस्था की कमर टूटती है। उचित से काम नहीं चलता तो अनुचित उपार्जन किया जाता है और अपराधी स्तर को कमाई का एक बड़ा साधन बनाया जाता है। इतने पर भी कितने लोग हैं जो आर्थिक दृष्टि से अपने को सुख संतुष्ट कर सकें। धनी निर्धन सभी को अर्थ संकट से गुजरने की शिकायत है।

समाज व्यवस्था का ढांचा ऊपर से तो किसी प्रकार कागज से बने विशालकाय पुतले की तरह खड़ा है पर उसके भीतर खोखलेपन के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं। भिन्नता की आड़ में जितना छल छद्म चलता है उतनी घात दुश्मन भी नहीं लगा पाते। संबंधियों के बीच किस प्रकार बुनने उधेड़ने की दुरभि संधियां चलती हैं उसे विवाह शादियों में होने वाले लेन-देन को देखकर भली प्रकार समझा जा सकता है। ग्राहक और विक्रेता के मध्य अकसर और प्रजाजन के मध्य- जिस प्रकार की सदाशयता युक्त आदान-प्रदान होना चाहिए। उसके दर्शन दुर्लभ हो रहे हैं मूल्य तौल, स्तर के संबंध में ग्राहक को सदा छल की आशंका ही बनी रहती है। अधिकारी और प्रजाजनों के मध्य उचित सहयोग का आधार रिश्वत पर केन्द्रित होता जा रहा है। पड़ौसी से हर घड़ी चौकन्ना रहना होता है। परदेश में परिचितों के बीच वही जिंदा रह सकता है जो किसी के साथ कुछ समय रहने पर समुचित सतर्क रह सके। विश्वास करने वाले और निश्चिंत रहने वाले पग-पग पर जोखिम उठाते हैं। सेवक स्वामी के बीच का रिश्ता अब समाप्त हुआ ही समझना ही चाहिए। दोनों के मध्य सद्भावना सूत्र टूट चुके। मालिक को सर्प पालने की तरह सतर्क रहना होता है नौकर को हर घड़ी शीर्षक के साथ रहने जैसे अप्रिय लगता है। पारिवारिक सहयोग से समृद्धि और व्यवस्था बढ़ सकती है उसकी संभावना निरंतर घटती जा रही है। श्रम संकट आज के समाज की इतनी निकट समस्या है कि उसकी उलझन में समृद्धि की संभावना को बेतरह धूमिल कर दिया है।

समाज के प्रथा प्रचलनों को देखते हुए लगता है इस प्रमाद में बहने वाले जन समाज को विपत्तियों के गर्त में ही गिरा रहना पड़ेगा। नशेबाजी, फैशन परस्ती, विलासिता, धूर्तता, उच्छृंखलता जैसे प्रचलन सभ्यता के अंग बन चले हैं। यों कहने को तो अपने समय की तर्क और बुद्धि का युग कहा जाता है पर अंधविश्वासों और कुरीतियों का परिष्कार जितने उत्साह के साथ इन दिनों बढ़ रहा है उतना कदापि पिछले दिनों के उस समय में भी न रहा हो जिसे अनगढ़ आदिम काल कहते हैं।

बुद्धिमत्ता और पूर्णता का यह विचित्र समन्वय देखते ही बनता है। ज्योतिषोन्तात्रिक, भविष्यवक्ता जादूगरों ने जिस प्रकार धर्म और अध्यात्म को ग्रस्त लिया है उसे देखते हुए लगता है कि विवेक का अरुणोदय अभी भी बहुत दूर है। भ्रांतियों से छुटकारा पाने की शुभ घड़ी आने में अभी भी बहुत दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी ऐसा लगता है। जाति लिंग के असमानता आर्थिक विषमता, क्षेत्रीय संकीर्णता, मत वादियों की कट्टरता, आहार-विहार की शैली, विनोद की व्यवस्था, चिंतन की धारा आदि की स्थिति को देखते हुए लगता है जिस मध्य कालीन अंधकार युग को कोसा जाता है, उसमें वह अभी भी यथावत् विद्यमान है। उसने मात्र अपना पुराना चोला उतारा और जामा नया पहना है। समाज प्रवाह के आधार पर सामान्य जन मानस ढलता है और लोक प्रवृत्तियां पनपती हैं। यदि उसमें अमानवीय तत्व ही भरे रहें तो फिर यह आशा करना व्यर्थ है कि शालीनता को लाग अपने जीवन व्यवहार में स्थान दे सकेंगे। समाज का स्तर उस क्रम से नीचे गिरता जा रहा है उसे देखते हुए लगता है आदर्शवादी सिद्धांत लिखने पढ़ने और सुनने तक ही सीमित बनकर रह जाता है। शासन व्यवस्था प्रकारांतर से समस्त व्यवस्था का ही दूसरा नाम है। प्रायः समाज को श्रेष्ठ शासन मिलने की आशा नहीं ही करनी चाहिए।

ऊपर की पंक्तियों में व्यक्ति के सामने प्रस्तुत कठिनाइयों और विपत्तियों का चित्रण किया गया है। अधिकांश जनसंख्या को इन्हीं समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। जन-जीवन में शांति और व्यवस्था की प्रगति और प्रसन्नता की संभावनाएं घटती जा रही हैं।

सामूहिक जीवन में शासन तंत्र की प्रधानता है। सरकारें अपने संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति के लिए दूसरे देशों के प्रति जो रवैया बनाती हैं उससे शोषण आधिपत्य, विग्रह और युद्ध का कुचक्र ही गतिशील होता है। शीत युद्ध तो कूटनीति का ध्वज ही ठहरा। गरम युद्ध ही आशंका बढ़ रही है। अणु आयुध विषाक्त जैसी दाहक किरणें रासायनिक युद्ध जैसे उत्पादनों का चरम सीमा तक जा पहुंचना यह बताता है कि कोई भी एक पागल अनंत काल की श्रम साधना से संचित मानवों का अंत चुटकी बजाने जितने समय में कर सकता है। तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या ने यह संकट सामने खड़ा कर दिया है कि एक शताब्दी में ही जीवन यापन करने के लिए आवश्यक अन्न, जल, वस्त्र, निवास जैसे साधन मिलना कठिन हो जायेगा। जनसंख्या जिस तेजी से बढ़ रही है उस अभिवृद्धि का भार उठा सकने की क्षमता अपनी धरती शताब्दी पूरी होते-होते गंवा बैठेगी। कारखाने जिस अनुपात से प्रदूषण और विकिरण उत्पन्न करते हैं उसका प्रभाव मनुष्यों का शारीरिक एवं मानसिक संतुलन स्थिर नहीं रख सकता। शरीर और मन की बढ़ती हुई दुर्बलता, प्रकृति का दबाव और विकृति प्रचलनों दबाव कहां तक सहन कर सकेगी इसमें भारी संदेह है। विनाश की ऐसी अगणित विभीषिकायें हैं जिन्हें काल्पनिक नहीं वास्तविक ही माना जायेगा।

प्रगति और शांति के लिए कुछ नहीं किया जा रहा या उस स्तर के प्रयासों की कोई उपलब्धि नहीं है यह कहा जा रहा है। लक्ष्य इतना ही प्रस्तुत किया जा रहा है कि सृजन से ध्वंस की गति तीव्र होने के कारण दिवालिया होने और ऐसी विपत्ति में फंस जाने की ही संभावना अधिक है जिससे निकल सकने के लिए नई सृष्टि की शुभ घड़ी आने के लिए लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

विपत्तियां भौतिक क्षेत्र में बढ़ रही हैं। और विकृतियों से आत्मिक क्षेत्र उद्विग्न होता जा रहा है। सुधार और बचाव के प्रयास अपेक्षाकृत बहुत धीमे हैं। लगता है मनुष्य द्वारा अन्यमनस्क भाव से किया गया आधा अधूरा प्रयास वर्तमान की समस्याओं को सुलझाने तथा भविष्य की विभीषिकाओं को परास्त करने में सफल नहीं हो सकेगा, एक गज जोड़ने के साथ-साथ दस गज टूटने का क्रम चल रहा है। ऐसी दशा में विश्व की महाविनाश के गर्त में जा गिरने की ही आशंका है।

अवतार ऐसे ही समय में प्रकट होते हैं। मनुष्य का बाहुबल थक जाता है और विनाश की आशंका बलवती हो जाती है तो प्रवाह तो प्रवाह को उलटने का पुरुषार्थ महाकाल ही करता है। सृष्टि की अपनी उस सुरम्य वाटिका को दर्द भरा आश्वासन सहन नहीं हो सकता। वे धर्म से गलानी और अधर्म की अभिवृद्धि को एक सीमा तक ही सहन कर सकते हैं। मानवी पुरुषार्थ जब संतुलन बनाये रहने में असफल होता है तो व्यवस्था को भगवान स्वयं संभालते हैं। राष्ट्रपति शासन तभी लागू होता है जब राज्य की सामान्य व्यवस्था लड़खड़ा जाती है। पागलों और बालकों के अधिकार का उत्तरदायित्व किन्हीं अन्य संस्थाओं को सौंप दिया जाता है। इन दिनों ऐसा ही होने जा रहा है। महाकाल की चेतना सूक्ष्म जगत में ऐसी महान हलचलें विनिर्मित कर रही है जिसके प्रभाव परिणाम को देखते हुए उसे अप्रत्याशित और चमत्कारी ही माना जायेगा। अवतार सदा ऐसे ही कुसमय में होते रहे हैं जैसे कि आज हैं। अवतारों ने लोक चेतना में ऐसी प्रबल प्रेरणा भरी है जिससे अनुपयुक्त को उपयुक्त में बदल देने की, उत्साह लगने वाली संभावना सरल हो सके। दिव्य चक्षुओं की युगांतरीय चेतना को गंगावतरण की तरह धरती पर उतरते देखा जा सकता है। चर्म चक्षुओं को भी कुछ ही दिनों में अवतार के लीला संदेह का परिचय प्रत्यक्ष एवं सुनिश्चित रूप से देखने को मिलेगा।


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