सृष्टि क्रम में सृष्टा की अवतरण प्रक्रिया

August 1979

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“सृष्टि क्रम में सृजन और उत्थान के तत्व प्रधान है। कृषि क्रम में भूमि शोधन, बीज वपन, हरितमा का विस्तार, पुष्प की शोभा और फलों की सम्पदा का वैभव भी अधिक समय तक दृष्टिगोचर होता है। इतने पर भी वह स्थिति न तो निर्बाध गति से चली है ओर नहीं स्थिर रहती है। कृमि-कीटक और पशु-पक्षी उस हरितमा को नष्ट करने में कमी नहीं रहने देते। ऋतु प्रभाव भी कई बार इस उत्पादन में अवरोध उत्पन्न करता है। अन्ततः एक समय ऐसा आता है जब पकी फसल सूखती और अपनी जीवन लीला समाप्त करती है। उत्पादन का क्रम चक्र चलते रहने के लिए आवश्यक है कि उत्थान के बाद पतन और पतन के बाद उत्थान का क्रम जारी रहे। सूर्य का उदय-अस्त, प्राणियों का जन्म -मरण इस सुनिश्चित तथ्य की सुनिश्चित साक्षी देते रहते है “

“सृष्टि की सुव्यवस्था और सुन्दरता देखने ही योग्य है। प्रगतिक्रम का एक इतिहास है जिसमें नये अध्याय जुड़ते ही जाते है। इतने पर भी अवगति का अन्त नहीं पतन और पराभव के तत्व अपना काम करते है। और प्राणियों की सुरक्षा के लिए अधिक जागरूक रहने की प्रेरणा देते है। जीवन प्रवाह का एक सिरा है, जन्म, दूसरा मरण। गति चक्र इसी प्रकार बनता है। विस्तार सीधा चलता रहे उतना स्थान इस ब्रह्मांड में नहीं है। इसलिए उसे चक्र गति से परिभ्रमण करने के लिए बाधित किया गया है। पहिए नीचे जाते ओर ऊपर उठते है। सृष्टि क्रम में भी यही होता है। शैशव, किशोरावस्था, यौवन पूर्ण होते-होते जरा जीर्णता का ढलना आरम्भ हो जाता है ओर अन्त मरण के अतिरिक्त ओर कोई समाधान रह नहीं जाता है। यह मरण भी अन्तिम नहीं है। समापन के दिन से ही नव जीवन की भूमिका आरम्भ हो जाती है। मृतक को नवीन जन्म मिलता। असमर्थ वयोवृद्ध के सामने मरण की निराश रहती तो है पर उससे अगला कदम अभिनव शैशव के रूप में दूरदर्शी ज्ञान चक्षु आसानी से देख सकते है। निराश की सघन तमिस्रा को प्रत्यक्ष देखते हुए भी ऊषा द्वारा नवीन अरुणोदय का आश्वासन हर आस्थावान को उपलब्ध हो सकता है।”

“मनुष्यों की मनः स्थिति के समष्टि प्रवाह में भी ऐसे ही उत्थान- पतन के पन्ने पलटते रहते है। शालीनता के साथ व्यवस्था जुड़ी हुई है। यही जीवन है। यही विस्तृत है। यही सुनिश्चित है। इतने पर भी पतन और पराभव से छुटकारा नहीं घुन छोटा होता है। चिनगारी छोटी होती है। और विषाणुओं की सत्ता भी नगण्य है फिर भी वे चुपके-चुपके इतना कर गुजरते है कि मरण अथवा उसके समतुल्य संकट का सामना करना पड़ता है। विश्व के इतिहास में ऐसी घड़ियां अनेक बार आई है। जिनमें विनाश को घटाटोप बादल छाये ही नहीं, भयानक रूप से गरजे और सब कुछ डुबा देने की चुनौती देकर मूसलाधार बरसे है। इसी आशंका ने जन-जन को भयाक्रान्त किया है। कि विपत्ति का प्रभाव सर्वनाश करके ही छोड़ेगा।”

“यह सब होते हुए भी सृष्टा अपनी इस अद्भुत कलाकृति-विश्व वसुधा को मानवी सत्ता को सुरम्य वाटिका को विनाश के गर्त में गिरने से पूर्व ही सजाता और अपनी सक्रियता का परिचय देता है। ओर परिस्थितियों को उलटने का चमत्कार उत्पन्न करता है। यही अवतार है। संकट के सामान्य स्तर से तो मनुष्य ही निपट लेते है तो सृष्टा को स्वयं ही अपने आयुध संभालने पड़ते है। उत्थान के साधन जुटाना भी कठिन है पर पतन के गर्त में द्रुतगति से गिरने वाले लोक मानस को उलट देना अति कठिन है। इस कठिन कार्य को सृष्टा ने समय समय पर स्वयं ही सम्पन्न किया है। आज कि विषय वेला में भी अवतरण की परम्परा को अपनी लीला मदीह प्रस्तुत करते है। हम में भी कोई भी प्रज्ञावान प्रत्यक्ष देख सकता है।”


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