ज्वार आता है और सागर-तट पर बने पद चिह्नों को मिटा कर चला जाता है। वायु आती है और वृक्ष के नीचे पड़े पत्तों को उड़ा ले जाती है। जीवन आता है और समय के वक्षस्थल पर अपने पद चित्त छाप देता है। किन्तु मृत्यु आती है और उन्हें बिगाड़ कर चली जाती है।
यह बनने और बिगड़ने का क्रम अनादि काल से चला आता है और अनन्त काल तक चलता जायेगा। निसर्ग के इन दो विपरीत क्रियाओं में क्या सत्य है और क्या असत्य? क्या वाँछनीय है और क्या अवाँछनीय?
जीवन एवं निर्माण को देखकर हम प्रसन्न होते हैं और मृत्यु एवं निर्वाण को देखकर उदास। ऐसा क्यों? क्योंकि हम इन दोनों क्रियाओं को भिन्न-भिन्न देखते हैं; जबकि यह दोनों क्रियाओं एक ही हैं। निर्माण के लिये निर्वाण अपेक्षित है और जीवन के लिये मृत्यु आवश्यक। यदि मृत्यु न हो तो जीवन निकम्मा और निष्क्रिय होकर बोझ बन जाये। नवीनता से वंचित होकर जड़ता का अभिशाप बन कर रह जाये। न रहने की सम्भावना में ही हम कर्म रूप में रहने का प्रयन्त करते हैं।
—रोम्याँ रोला