आत्मज्ञान से ही दुःखों की निवृत्ति संभव है।

December 1966

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संसार को दूरदर्शी दार्शनिकों ने दुःखालयं की संज्ञा दी है। इस संज्ञा का आधार यही है कि मनुष्य संसार में जन्म लेकर सदा ही किसी न किसी प्रकार के दैहिक, दैविक अथवा मानसिक दुःखों से घिरा रहता है। मनुष्य का सारा परिश्रम, पुरुषार्थ एवं प्रयत्न दुःखों से बचने का ही एक उपक्रम है। किन्तु जीवन भर प्रयत्न करते रहने पर भी मनुष्य का प्रायः छुटकारा नहीं हो पाता और अन्त में वह कष्ट-क्लेशों की मानसिक अथवा शारीरिक स्थिति में ही इस संसार को छोड़ जाता है।

अनेक लोग अभावों को ही दुःख का कारण मानते हैं। संसार में एक से एक बढ़कर साधन सम्पन्न होते हैं? अपने विपुल साधनों के बीच भी वे तरसते-तड़पते और आह-कराह करते नजन आते हैं। जिनको अभाव का दुःख नहीं उन्हें रोग-दोष आदि के शारीरिक दुःख से पीड़ित देखा जाता है, जिन्हें शारीरिक दुःख नहीं वे काम, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, ताप-अनुताप, पश्चाताप, तृष्णा अथवा ऐषणाओं के मानसिक दुःख से घिरे पाये जाते हैं। ऐसे भी अनेक लोग हो सकते हैं जिनको शारीरिक, मानसिक अथवा अभावजन्य दुःख न भी हों तो वे अज्ञान के दुख से पीड़ित पाये जा सकते हैं। यदि एक बार कोई सज्जन अथवा साधु पुरुष इन दुःखों से न भी दुःखी हो तब भी उसके आस-पास रहने वाले दुष्ट लोग अकारण ही उसके लिये अप्रिय परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकते हैं। कोई दुर्घटना अथवा आधि-व्याधि ही उनके दुःख का कारण बन सकती है। प्रकृति वाहित न जाने ऐसे कितने दुःख-क्लेश इस संसार में आते रहते हैं जिनसे अमीर, गरीब, साधु और खल सभी एक समान पीड़ित होते हैं। और कोई दुःख न हो तो जन्म, जरा और मृत्यु का दुःख ही क्या कम है?

महात्मा बुद्ध एक राजकुमार थे। उनके जीवन में अभाव का प्रश्न ही नहीं उठता। वे स्वस्थ, सुन्दर और सच्चरित्र भी थे, शारीरिक कष्ट का उन्हें कोई अनुभव न होता था। सावधानीपूर्वक उनकी किसी भी इच्छा की अति पूर्ति की जाती थी। हर प्रकार से हर दशा में उन्हें पूर्ण प्रसन्न एवं सन्तुष्ट रखने का सफल प्रयत्न किया जाता था। ऐसी स्थिति में मानसिक दुःख का उनके जीवन से कोई सम्बन्ध न था। उनकी पत्नी यशोधरा सुन्दर, स्वस्थ, पतिव्रता एवं प्रिया थीं। उनका पुत्र राहुल मनभावन तथा प्यारा था। तात्पर्य यह कि राजकुमार सिद्धार्थ को अपनी प्रिय एवं अनुकूल परिस्थितियों में किसी प्रकार का शारीरिक, बौद्धिक अथवा आकस्मिक कोई दुःख न था। तब भी दुःख की अनुभूति से पीड़ित होकर वे अपनी प्रिय परिस्थितियों को छोड़ कर संसार का दुःख दूर करने का उपाय खोजने के लिये साधु हो गये।

राजकुमार सिद्धार्थ केवल एक बार ही अपनी अनुकूल परिस्थितियों तथा प्रिय वातावरण से निकल कर बाहर फैले हुए संसार में आये और एक रोगी, वृद्ध तथा मुर्दे को देखकर अनुभव कर लिया कि यह संसार दुःख-दर्दों से भरा हुआ दुःखालयं है। उनका यह अनुभव सत्य, यथार्थ एवं वास्तविक था। इसने उन्हें इतना कातर कर दिया कि आखिर वे संसार का दुःख दूर करने का उपाय खोजते-खोजते राजकुमार सिद्धार्थ से वैरागी बुद्ध बन गये।

वैदिक, औपनिषदक, दार्शनिक एवं धार्मिक जितना भी आध्यात्मिक और ज्ञान-विज्ञान आदि का जो भी उच्च साहित्य है वह सब किसी न किसी रूप में उन उपायों एवं सिद्धान्तों का ही विस्तार है जिनके द्वारा मनुष्य दुःख से निवृत्त होकर सुख की ओर अग्रसर हो सके। ऋषियों, मुनियों तथा दार्शनिकों से लेकर जो भी तपस्वी महात्मा एवं मनीषी, चिन्तक तथा विद्वान हुए हैं उन्होंने सारा जीवन मनुष्य के दुःख दूर करने और सुख पाने के उपाय खोजने में ही लगा दिया है। इन पावन प्रयत्नों एवं महान जीवनों को देखते हुए यही मानना पड़ता है कि यह संसार वास्तव में दुःखालयं ही है और दुःख से बचने का प्रयत्न ही मानव जीवन का उपक्रम है।

यह भी माना जा सकता है कि संसार में सुख का भी एक अंश है, जिसका प्रमाण, लोगों के बोलने, गाने-बजाने, खेलने-कूदने तथा आनन्द मनाते हुए लोग हास-विलास तथा भोग-भाग्य पूर्ण जीवन बिताते भी दृष्टिगोचर होते हैं। किन्तु यह सारे सुख क्षणभंगुर, अस्थायी, परिवर्तनशील एवं दुःख के परिणाम वाले ही हैं। न तो इनमें स्थायित्व ही है और न वास्तविकता। सुखों का यह सारा आयोजन भी एक से दुःख से बचने का उपक्रम मात्र ही है। संसार में सुखों की अपेक्षा दुःखों का ही बाहुल्य एवं स्थायित्व अधिक है।

संसार में दुःखों का आधिक्य है और मनुष्य को संसार में रहना ही है, तो क्या दुःखों में उलझ-उलझ कर उसे अपना बहुमूल्य जीवन नष्ट कर देना उसका अटल प्रारब्ध है? नहीं मनुष्य का प्रारब्ध दुःख भोगना नहीं है। उसका लक्ष्य दुःखों पर विजय प्राप्त कर एक स्थायी सुख प्राप्त करना ही है। यही मनुष्य का पुरुषार्थ है और यही उसका श्रेय भी। दुःख से पूर्ण होने के कारण संसार को दुःखालयं मान कर कष्ट एवं क्लेशों के बीच तड़प-तड़प कर मर जाना मनुष्य की लज्जास्पद पराजय है। मनुष्यता की शोभा इसी में है कि दुःख से छूटने और सुख प्राप्त करने के लिये अखण्ड पुरुषार्थ किया जाये। मनुष्य को चाहिये कि वह संसार को परीक्षा स्थल समझे और इस दुःख सागर को संतरण कर सुख-शाँति के सुहावने किनारे पर पहुँच कर अपने को श्रेय का अधिकारी बनाये।

जहाँ रोग हैं वहाँ उपचार भी, उलझनें हैं वहाँ उपाय भी हैं। जहाँ चाह है वहाँ राह भी, जहाँ दुःख हैं वहाँ उनसे छूटने का मार्ग भी है। आवश्यकता केवल इतनी है कि मनुष्य के हृदय में सच्ची जिज्ञासा हो। वह अपने उद्देश्य के प्रति निष्ठावान तथा अखण्ड पुरुषार्थ एवं प्रयत्न करने का साहस रखता हो।

भारतीय मनीषियों ने परोपकारार्थ अपना पूरा जीवन तप कर दुःख निवारण के जो अमोघ उपाय खोज निकाले हैं वे बड़े ही सरल एवं सुकर हैं। उनका अवलम्बन लेकर न जाने कितने लोग इस दुःख सागर से तरे हैं और तरते रहे हैं। उनके द्वारा खोजे हुये दुःख निवारण के उपाय सार्वभौम एवं सर्वमान्य हैं। उन आध्यात्मिक उपायों का अवलम्बन किये बिना न तो आज तक कोई दुःख से निस्तार पा सका है और न पा सकेगा। इसके विपरीत जो बुद्धिमान उन उपायों को काम में लाता है वह अवश्य ही दुःखों पर विजय पाकर सुख पाता है।

अधिकाँश चिन्तकों का मत है कि मनुष्य की विषय तृष्णा ही सारे दुःखों का मूल है। यदि मनुष्य तृष्णा की मरु-मरीचिका में फँसने से अपने को बचा सके तो निश्चय ही दुःखों से उसका निस्तार हो जाये। संसार में जो कुछ देखा उसी को पाने के लिये लालायित हो उठना और पाये हुए से सन्तुष्ट न होकर अधिकाधिक पाने की इच्छा करना ही तृष्णा है जो कभी भी पूरी नहीं होती पाये हुए में सन्तुष्ट रहकर यदि अधिकाधिक पाने की अनावश्यक पिपासा को छोड़ दिया जाये तो मनुष्य अवश्य ही अनेक शारीरिक, सामाजिक तथा मानसिक दुःखों से बच सकता है।

विषयों का अत्यधिक भोग और वस्तुओं में सुख की कल्पना दुःख का एक विशेष हेतु है। यह एक अनुभूत सत्य है कि विषय-भोगों की प्राप्ति अन्य दुःख रूप में सामने आती है। मनुष्य भोगों को कितना ही क्यों न भोगे तृप्ति नहीं हो सकती। शरीर शिथिल होकर नष्ट हो जाता है किन्तु भोग की वासना ज्यों की त्यों बनी रहती है। विषयों का भोग करने में लवलीन मनुष्य समझता तो यह है कि वह विषय का भोग कर रहा है किन्तु वास्तव में होता इसके विपरीत है विषय भोगी को स्वयं ही भोग कर नष्ट कर देते हैं विषय भोग की अतृप्त तृष्णा के रहते हुए मनुष्य दुःख मुक्त हो सके यह सम्भव नहीं। भोगों को मर्यादा की सीमा तक भोग कर जो मनुष्य उनमें लिप्त नहीं होता और उनको दुःखदायी विषय मान कर उनसे विरक्त रहता है उसे सुखी होने से कोई बाधा रोक नहीं सकती।

संसार की प्रत्येक वस्तु नाशवान है। यहाँ तक कि शरीर भी। ऐसा जानकर जो बुद्धिमान उनके प्रति आसक्ति नहीं रखता वह दुःख के विशेष हेतु मोहरूपी कटार से बचा रहता है। अन्यथा इनमें आसक्त इनके क्षीण, क्षय अथवा नाश, वियोग से क्षण-क्षण पर दुःखी होता रहेगा यदि यह वस्तुयें उसके देखते-देखते नष्ट न भी हों तब भी उनके नष्ट हो जाने अथवा बिछुड़ जाने की शंका सताया करती है। संसार की प्रत्येक वस्तु नश्वर एवं क्षयमान है ऐसी बुद्धि रख कर जो मनीषी उनसे आत्मिक संबंध रखकर व्यावहारिक सम्बन्ध रखता हुआ अनासक्ति का आचरण करता है संसार की कोई भी हानि उसे दुःखी अथवा विचलित नहीं कर सकती है। दुःख असल में वस्तु के विनाश अथवा वियोग से नहीं होता। दुःख का कारण वास्तव में उसके प्रति मनुष्य का वह मोह होता है जिसे वह अज्ञानवश वस्तु से स्थापित कर लेता है।

महात्मा बुद्ध की खोज के अनुसार दुःखों की निवृत्ति ‘निर्वाण’ में है। अपने को राग-द्वेष से मुक्त कर लेना ही निर्वाण है, जिसे थोड़े से प्रयत्न द्वारा मनुष्य जीवन काल में ही पर सकता है। बुद्ध प्रतिपादित निर्वाण अवस्था को वैराग्य द्वारा शुद्धाचरण करते हुए, इस नाश शील संसार के चिरन्तर सत्यों में विश्वास रखने से, मनुष्य विषयों की विभीषिका और तृष्णाओं की मरु-मरीचिकाओं से सुरक्षित रह कर दुःखों से निवृत्त हो सकता है।

साँख्य दर्शनकार ने आत्मा एवं अनात्मा के बीच अन्तर न समझने के अज्ञान को दुःखों का कारण बतलाया है। उनका कहना है कि मनुष्य जब अज्ञानवश अपने को शरीर मान लेता है तभी वह दुःखों का अनुभव करता है। दुःखों का अनुभव करना शरीर का धर्म है। शीत, घाम धूप, वर्षा, भूख, प्यास, वियोग, विछोह आदि अप्रिय परिस्थितियाँ शरीर को ही व्यापा करती हैं और वही इनका अनुभव करता है। जब मनुष्य अपनी अनुभूतियों को शरीर तक सीमित कर लेता है अथवा अपने को शरीर मान लेता है तो स्वाभाविक ही है कि शरीर का कष्ट उसे अपना कष्ट अनुभव हो।

मनुष्य वास्तव में शरीर नहीं है। वह अनादि, अनन्त, चैतन्य एवं आनंद स्वरूप आत्मा है। उसमें अज्ञान अथवा दुःखानुभूतियों का कोई विकार नहीं है वह निर्विकार एक रस चेतन तत्व है जिसको न तो शस्त्र काट सकता है, न पानी गीला कर सकता है, न हवा सुखा सकती है और न आग जला सकती है। वह अपनी ज्योति से स्वयं प्रकाशमान ऐसा शिव एवं शाश्वत दीपक है जिसको न तो विपरीतताएं प्रभावित कर सकती हैं और न काल बुझा सकता है। आत्मा, शरीर, मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि से भिन्न अविनाशी तत्व है जो कि सदा सर्वदा स्वयं सन्तुष्ट एवं आनन्दमय है, जिसे सुख के लिये न तो किसी वस्तु की आवश्यकता है और न किसी भोग की आवश्यकता। वह स्वयं ही आनन्द स्वरूप एवं शाश्वत है। मनुष्य यही अविचल एवं अविनाशी आत्मा है, शरीर नहीं। अब जो व्यक्ति अज्ञानवश अपने इस परमपद आत्मा से भिन्न होकर शरीर के निम्नपद पर उतार लायेगा वह उसकी विकृतियों से त्रस्त होगा ही। मनुष्य अपने को अविकल आत्मा समझे अपने सत्य स्वरूप में विश्वास करे और शरीर को नश्वर संसार का एक अंश मानकर उसकी उसकी विकल्पनाओं को अप्रभावित रहकर दर्शन के रूप में देखें तो निश्चय ही वह दुःख बन्धनों से मुक्त होकर सुख का अधिकारी बन सकता है।

वेदान्त दर्शन के व्याख्याकार जगद्गुरु शंकर ने दुःखों के निवारण का उपाय मोक्ष बतलाया है। मोक्ष की परिभाषा करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया है कि—’इस सत्य ज्ञान की स्थायी अनुभूति ही मोक्षावस्था है कि आत्मा देश से परे, शरीर तथा मन, बुद्धि से विलग स्वभावतः मुक्त, नित्य एवं अविकल्पी है।’ ऐसी अनुभूति का साक्षात्कार कर लेने पर मनुष्य का शरीर अथवा मन के विकारों से प्रभावित होना समाप्त हो जाता है।

एक अज्ञात समय से निरन्तर शरीर एवं संसार के संसर्ग में रहते-रहते मनुष्य अपने सत्य स्वरूप आत्मा को ही नहीं भूल गया बल्कि जगत के परम कारण परमात्मा को भी भूल गया है। संसर्ग जन्य अविद्या के कारण वह परमात्मा के स्थान पर उसकी माया, इस संसार को ही सत्य समझ बैठा है जहाँ दुःख के सिवाय उसे कुछ भी हाथ नहीं लगता।

इस प्रकार यदि मनुष्य अपने सत्य स्वरूप आत्मा में आस्था रख कर संसार में परिव्याप्त कारणभूत परमात्मा को देखे और उसके दिये हुए पदार्थों, विषयों तथा भोग को मर्यादापूर्वक भोगते हुए भी उनसे अप्रभावित रह के अभ्यास के साथ जीवनयापन करे तो निश्चय ही उसके सार बन्धन कट जायें और वह अपने जीवनकाल में ही मुक्ति, मोक्ष एवं निर्वाण की चिदानन्द स्थिति को पा सकता है।


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