बाह्य और आन्तरिक मलीनता दूर हटायें

December 1966

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गन्दगी मनुष्य के लिये कलंक कही गई है और निःसन्देह वह कलंक है भी। कलंक में काले पन की कल्पना की गई है—मलीनता में भी काले पन का समावेश रहता है। कोई भी चीज ज्यों-ज्यों गन्दी होती जाती है उसका रंग भी काला होता जाता है। जिस प्रकार लोग कलंकी अथवा कलंक के प्रति घृणा का भाव रखते हैं उसी प्रकार गन्दे आदमी के साथ भी । लाँछित व्यक्ति के संपर्क की तरह कोई भी गन्दे आदमी का संपर्क पसन्द नहीं करता। कलंक से निन्दा, अपवाद अथवा अपयश का जन्म होता है जो कि लोक से लेकर परलोक तक नारकीय स्थिति बनाये रहता है। उसी प्रकार गन्दगी के बीच गन्दा मनुष्य जीता-जागता नरक भोगता और उसी मलीन स्थिति में शरीर छोड़ने से तदनुरूप अधम एवं मलिन लोकों का भोक्ता बनता है। जीवन एवं जीवनोपरान्त नरक की व्यवस्था करने वाली गन्दगी निःसन्देह मनुष्य के लिये कलंक ही है, जिसे पास न आने देना मनुष्य का न केवल नैतिक प्रत्युत आध्यात्मिक धर्म भी है।

गन्दे वस्त्र, गन्दा शरीर तथा गन्दे हाथ, पैर, नाक, कान आदि लेकर समाज में आने-जाने वाला व्यक्ति आत्महीनता तथा अप्रसन्नता का दण्ड भोगता है। हर भला आदमी यदि उसको पास से उठा न देगा तो कम से कम परेशानी तो अनुभव करेगा, जिसका भान होते ही जब वह समाज में साफ-सुथरे वस्त्रों एवं शरीर वाले व्यक्तियों के बीच अपनी मलीन एवं दुर्गन्धित दशा पर दृष्टि डालेगा तो तत्काल ही उस पर हीनता की प्रतिक्रिया होगी। तब वह या तो उठ कर चल देगा और या उपस्थित रह कर हीनता की मानसिक यातना सहन करेगा, जो कि उसके मन, मस्तिष्क, आत्मा एवं शरीर के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालेगी। स्वच्छता के बीच अपनी गन्दगी का भान होने पर मनुष्य जितनी देर उसके बीच बना रहेगा आत्मग्लानि अथवा आत्महीनता का दंश उसके रक्त को जलाता रहेगा।

प्रायः लोग गन्दे आदमी को उसकी इस वृत्ति के लिये टोक भी देते हैं। कभी-कभी कुछ असहनशील व्यक्ति गन्दगी और पसीने से गंधाते व्यक्ति से दूर हट कर बैठने तक को कह बैठते हैं। ऐसे तिरस्कारपूर्ण व्यवहार की स्थिति में शालीन मनुष्य में यदि जरा भी आत्मसम्मान का अंश होगा तो वह लज्जा से जमीन में गड़ जायेगा अथवा असभ्यतामय विवाद करने पर उतर आयेगा। यह दोनों स्थितियाँ पराकाष्ठा तक अप्रसन्नता पूर्ण हैं। गन्दा रह कर तिरस्कार के अवसर की सम्भावना सजग करना बुद्धिमानी नहीं जड़ता है, जो मनुष्य जैसे परिष्कृत प्राणी को जरा भी शोभा नहीं देती। यह बात सही है कि किसी कारण से किसी को दुत्कारना न चाहिये, किसी का तिरस्कार करना अशोभनीय है। सच्चा मानव-धर्म तो इसी में है कि दूरी होने पर भी मलीन मनुष्य की गन्दगी सह लेनी चाहिये। न तो उसको दुत्कारना चाहिये और न तिरस्कार करना चाहिये। ऐसे असहनशील की दूसरे भद्र व्यक्ति भर्त्सना कर सकते हैं किन्तु गन्दे आदमी को चूँ करने तक का अधिकार नहीं है। क्योंकि अपनी मलीनता के कारण उसने स्वयं ही अपने को उसके योग्य बना रखा होता है।

स्वच्छता भगवान की समीपता बतलाई गई है। जो शुद्ध-शुचि और स्वच्छ है वह एक प्रकार से ईश्वर के सन्निकट ही रहता है। गन्दे और मलीन मनुष्य के समीप मनुष्य तक आना पसन्द नहीं करता तब भगवान जो शुद्ध, बुद्ध एवं परम पवित्र है, गन्दे आदमी के समीप आना क्यों पसन्द करेगा। जिस स्थान पर भगवान अथवा उनके प्रतिनिधि देवताओं का आह्वान किया जाता है असस्थान को विशेष रूप से रमणीय, पवित्र तथा स्वच्छ बनाया जाता है। गन्दगी से क्या मनुष्य और क्या परमात्मा सब को घृणा होती है। मनुष्य तो मनुष्य पशु-पक्षी तक गंदगी पसन्द नहीं करते। कुत्ता जहाँ बैठता है पूँछ हिला कर झाड़ लेता है। बिल्ली गन्दे स्थान पर पाँव रखने में झिझकती है। इस प्रकार पशु-पक्षियों तक में स्वच्छता के प्रति प्रेम पाया जाता है तब जो मनुष्य होकर गन्दा रहता है उसे तो पशु-पक्षियों तक से गया-गुजरा समझना चाहिये।

पावन प्रसन्नता परमात्मा की ही अनुभूति होती है। जिसका मन प्रसन्न है, बुद्धि निर्विकार है , शरीर स्वच्छ एवं स्वस्थ है आत्मा निर्मल एवं उज्ज्वल है उसे परमात्म अनुभूति जैसा ही आनन्द आता है। गन्दा और गन्दे स्थान पर रहने वाला मनुष्य उस पावन प्रसन्नता की अनुभूति कदापि नहीं कर सकता । संसार में चारों ओर परमात्मा का प्रकाश बिखरा पड़ा है। स्वच्छ एवं निर्मल व्यक्ति उसे पाते, देखते और अनुभव करते हैं। उस सर्वसुलभ, सर्वव्यापक एवं सर्वकालिक परमात्म प्रकाश को अशुचि व्यक्ति कदापि नहीं पा सकता। जिनका मन और स्थान शुद्ध, स्वच्छ तथा सुन्दर है, वह प्रकाश उनके चारों ओर प्रतिबिम्बित होता है। किन्तु मलीन मनुष्य उससे सर्वथा वंचित ही रहता है। जिस प्रकार गन्दे एवं दोषपूर्ण दर्पण में सूर्य का प्रकाश प्रतिबिम्बित नहीं होता उसी प्रकार परमात्मा का प्रकाश स्वीकार अन्तःकरण वाले व्यक्ति को आलोकित नहीं कर सकता।

शौच के नाम से स्वच्छता एवं पवित्रता को धर्म का प्रधान अंग माना गया है। लोग धर्म-कर्म करते हैं, पूजा-पाठ में लगे रहते हैं और सारे जीवन लगे ही रहते हैं। किन्तु धर्म से प्राप्त होने वाले किसी फल को नहीं पाते। उसका कारण यही रहा होता है कि वे धर्म के प्रधान लक्षण शौच का, शुद्धता एवं स्वच्छता का नियम पूर्ण रूप से पालन नहीं करते। अनेक लोग तो भीतरी सफाई तो दूर बाहरी स्वच्छता तक नहीं रखते। न ठीक से स्नान करेंगे, न हाथ-मुँह, नाक-कान आदि अवयवों को साफ करेंगे। केवल सीधे दो-चार लोटा पानी डाल लेना या धोने के नाम पर अंगों को पानी से चुपड़ लेने भर से सफाई का प्रयोजन सिद्ध नहीं हो पाता। उसके लिये तो परिश्रमपूर्वक ठीक से मल-मल कर नहाना-धोना होगा। इस बात का पूर्ण प्रयत्न करना होगा कि शरीर के किसी भाग अथवा अंग में किसी प्रकार की गन्दगी अथवा मलीनता न रहने पावे। पहनने और ओढ़ने-बिछाने के वस्त्रों का साफ होना ही पर्याप्त नहीं है। रहने का स्थान और भोजन से लेकर उपयोग में आने वाली हर वस्तु को पूर्ण स्वच्छ एवं शुद्ध रखना होगा। तभी उस धार्मिक लक्षण शौच का प्रयोजन सिद्ध हो सकेगा।

स्वच्छता एक आध्यात्मिक गुण है, जिसको प्राप्त करने के लिये बाह्य स्वच्छता से अधिक आन्तरिक स्वच्छता की आवश्यकता है। जिसके विचार गन्दे हैं, भावनायें दूषित हैं, संस्कार अपरिष्कृत हैं वह बाहर वस्त्रादि के साफ-सुथरा होने पर भी स्वच्छ एवं पवित्र नहीं माना जा सकता। अन्तःकरण में ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध और काम का मल मौजूद रहने पर कोई कितना ही क्यों न नहायें, धोये स्वच्छता को प्राप्त नहीं कर सकता। सच्ची सफाई तो तन, मन और काया के साथ एक साथ शुद्ध, स्वच्छ रहने को ही कहा जायेगा। एकांगी अथवा अपूर्ण स्वच्छता से आध्यात्मिक सुफल की आशा नहीं की जा सकती। कागावा, गाँधी, ठक्कर बापा तथा विनोबा प्रभृति सत्पुरुषों ने सफाई के आधार पर अनेक आध्यात्मिक लाभ प्राप्त किये हैं। गन्दा एवं मलीन व्यक्ति क्या आध्यात्मिक और क्या साँसारिक कोई भी लाभ उठा सकने में कृतकृत्य नहीं हो पाता।

सफाई मनुष्य जीवन एवं मानतीय सभ्यता का अविभाज्य अंग मानी गई है। इससे विरत रहने वाला सभ्य तो दूर ठीक से मनुष्य कहलाने योग्य भी नहीं है। जिसका तन-मन गन्दा है, जिसका निवास एवं पास-पड़ोस गन्दा है, जिसके वस्त्र और वस्तुएं स्वच्छ नहीं हैं; जिसके विचार और आचार शुद्ध एवं निर्मल नहीं हैं, जिसे गन्दगी से घृणा और स्वच्छता से प्रेम नहीं है, वह अपने को किस दृष्टिकोण से मनुष्य कहने का अधिकारी हो सकता है? एक हिन्दू धर्म ही नहीं, संसार के प्रत्येक धर्म में स्वच्छता एवं सफाई को महत्व दिया गया है और बतलाया गया है कि हर प्रकार से साफ-सुथरा रहने वाला व्यक्ति इस धरती पर ही स्वर्ग में निवास किया करता है और वास्तव में है भी ऐसा ही।

जहाँ देवताओं का निवास माना गया है उस स्थान को स्वर्ग कहा जाता है; स्वर्ग की कल्पना में जिन गुणों एवं विशेषताओं का समावेश किया गया है उनमें शुचिता एवं स्वच्छता प्रमुख है। स्वच्छता, अमलीनता, शुद्धता, पवित्रता, सुरभि, सौंदर्य, सुरुचिता आदि देवताओं के व्यक्तित्व के असंदिग्ध लक्षण हैं। यह गुण जिस आदमी में पूर्ण रूप से पाये जायेंगे उसे देवता ही माना जायेगा और ऐसे सत्पुरुष जहाँ निवास करते होंगे स्वर्ग उसी स्थान को ही कहना होगा। किसी शून्य में अन्यत्र स्थित स्वर्ग की कल्पना करने से पहले अधिक व्यावहारिक तथा समीचीन है कि अपने स्वर्गीय गुणों से धरती पर ही स्वर्ग की रचना की जाये। अपने हाथ की सीमा में रहने वाले स्वर्ग को छोड़ कर अप्रत्यक्ष एवं सुने-सुनाये स्वर्ग की कामना करना बुद्धि संगत नहीं कहा जा सकता। जो व्यक्ति अपने अन्दर-बाहर फैले हुए नरक से घृणा नहीं करता, उसे मिटा कर उसके स्थान पर स्वर्गीयता लाने में आलस्य एवं प्रमाद करता है, वह किसी अभौतिक दिव्य अथवा दूरस्थ परलोक में स्थित किसी स्वर्ग को पाने में सफल हो सकता है ऐसा कहना उपहासास्पद ही होगा।

गन्दगी चाहे तन की हो, मन की हो अथवा वस्तुओं वस्त्र और निवास स्थान की हो, अच्छी नहीं। उससे मनुष्य का सारा जीवन अपवित्र हो जाता है। गन्दगी मनुष्य के कुरुचिपूर्ण स्वभाव की द्योतक है। गन्दे रहने वाले व्यक्ति को सुरुचिपूर्ण व्यक्ति आलसी, गँवार, फूहड़, निर्लज्ज तथा निम्न कोटि का व्यक्ति समझते हैं। बात भी सही है, गन्दा आदमी निश्चय ही गँवार होता है। जो अपना शरीर अपने वस्त्र तथा अपने निवास स्थान को स्वच्छ नहीं रख सकता उससे सभ्य एवं शालीन व्यवहार की आशा भी नहीं की जा सकती। जिसका स्वभाव गन्दा है और वह किसी भय अथवा सतर्कता के कारण कोई बुरा लगने वाला काम कहीं पर नहीं करता है तब भी वह अपने स्वभाववश उस स्थान को किसी न किसी रूप में गन्दा ही कर देगा और कुछ नहीं तो उसके मैल कपड़े अथवा हाथ-पैर उस जगह की सफाई पर मलीनता के चिन्ह डाल देंगे।

गन्दगी और स्वच्छता निकृष्ट एवं उत्कृष्ट दृष्टिकोण का ही फल है। जिसका दृष्टिकोण परिष्कृत एवं सुरुचिपूर्ण है वह किसी स्थान पर किसी प्रकार की मलीनता सहन नहीं कर सकता। वह कहीं पर भी जरा भी गन्दगी देखेगा तत्काल उसे दूर करने में जुट जायेगा। सब ओर हर प्रकार की सफाई रखने के जो भी उपाय सम्भव हो सकते हैं। परिष्कृत दृष्टिकोण वाला व्यक्ति उन्हें काम में लाने में जरा भी संकोच नहीं करता। जब कि निकृष्ट दृष्टि के स्वभाव वाला व्यक्ति गन्दगी को सहन करता रहता है। ऐसे व्यक्तियों से यदि कहीं फैली हुई गन्दगी, फिर चाहे वह उनके घर पर ही क्यों न हो, दूर करने के लिये कुछ किया जाये तो वे इसमें अपनी हेठी समझते हैं। कितनी विचित्र एवं विलक्षण बात है कि गन्दगी के बीच रहने में उसे संकोच होता नहीं किन्तु सफाई करने में वैसा ही अनुभव करते हैं।

स्वच्छता एवं सफाई एक आध्यात्मिक गुण है। विकसित करने में जो भी श्रम एवं समय खर्च करना पड़े खुशी से करना चाहिये। एक बार पर्यानुष्ठानों को छोड़ कर जो व्यक्ति तन-मन तथा आचार-विचार के साथ निवास व पास-पड़ोस की गन्दगी दूर करने में उत्साहपूर्वक तत्पर रहता है वह एक प्रकार से तपस्वी ही है और उसे वे सारे आध्यात्मिक आप से आप प्राप्त हो जाते हैं जो एक धर्म-कर्म वाले को होते हैं। स्वच्छता एवं शुचिता दैवी गुण हैं जो कि मनुष्य के भौतिक, आत्मिक एवं आध्यात्मिक सब प्रकार की उन्नतियों के आधार हैं। स्वास्थ्य एवं सफाई का अभिन्न सम्बन्ध है यह आज वैज्ञानिक युग में किसी को बतलाने की आवश्यकता है। हर रोग का जन्म किसी न किसी आन्तरिक अथवा बाह्य गन्दगी से ही होता है। गन्दगी मनुष्य की डडडड का ही नहीं व्यक्तित्व का भी पतन कर देती है। गंदगी से बचना, उसे छोड़ना और हर स्थान से उसे दूर करना मनुष्य का सहज धर्म है। क्या भौतिक और क्या आध्यात्मिक किसी प्रकार का भी विकास करने के लिये जिन गुणों की आवश्यकता है, स्वच्छता उनमें सर्वोपरि है। मलीनता में दुःख-दारिद्रय का निवास रहता है वहाँ स्वच्छता में लक्ष्मी तथा स्वर्ग का निवास माना गया है।


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