अखण्ड-ज्योति इस अंक के साथ अपने जीवन के 27 वर्ष समाप्त कर 28वें में प्रवेश करेगी। यह संधि वेला उसके पिछले सभी वर्षों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण एवं मार्मिक है। अब तक इन पंक्तियों में ग्राहक बनाने की अपील की जाती रही थी, इस बार घटाने की—छटनी की अपील की गई है। बात कुछ अटपटी सी लगती है, पर है बड़ी सारगर्भित। लिखने, छपाने, बेचने की एक विडम्बना चलती रहे, उससे वह प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता, जिसके लिए इस मिशन का प्रादुर्भाव हुआ है। उस प्रकाश को ज्वलन्त रखने के लिये जलने योग्य साधन सामग्री तेल-बाती मिल सके तो ही उसकी सार्थकता है।
दिवाली पर आमतौर से कूड़ा-करकट झाड़ कर बाहर फेंक दिया जाता है और काम की वस्तुएँ सँभाल कर रख ली जाती हैं। 27 वर्ष बाद हमने भी अपने घर की ऐसी ही सफाई की है। भीड़ घट जाने से हमारा सिर दर्द घटा है। अब जो काम के परिजन साथ रह गये हैं, उनके साथ अगले पाँच वर्ष तक अधिक तत्परता और सद्भावना के साथ हँसने-खेलने का अवसर मिलेगा और जो श्रम किया जायगा उसके सार्थक होने की सम्भावना रहेगी, इस आशा के साथ हमें बड़ा सन्तोष है। 27 वर्षों में जिन्हें हम एक छोटी-सी यह बात न समझा सके कि “व्यक्ति एवं समाज के उत्कर्ष का एकमात्र माध्यम उत्कृष्ट विचारों को क्रमबद्ध रीति से हृदयंगम करते रहना ही है।” उन्हें और कुछ सिखाया जा सकेगा यह सम्भावना कम ही है। जो आशीर्वाद और वरदानों के जंजाल में तो निरन्तर उलझे रहते थे पर जिन्हें आत्म-निर्माण और आत्म-विकास के राजमार्ग पर कदम बढ़ाने में तनिक भी रुचि नहीं, उनकी बीमारी आसाध्य है। इन बेचारों को रचनात्मक प्रेरणा देना परेशान करना ही है। उन्हें तो जादू चाहिये, कृषि कर्म पर उन्हें विश्वास कहाँ है? ऐसे लोगों का साथ छूटना हमारे लिये भी अच्छा है और उनके लिये भी।
अब अपने छोटे से परिवार के साथ हमें कुछ छोटे किन्तु महत्वपूर्ण कदम उठाने हैं। यह प्रक्रिया अब नियमित और व्यवस्थित रूप से चल पड़नी चाहिये। गत जुलाई के अंक में हमने परिजनों से अनुरोध किया था कि—”हम उनके परिवार के एक नियमित अध्यापक के रूप में प्रस्तुत रहना चाहते हैं। हमारी यह सेवा स्वीकार की जाय। जिस प्रकार एक टय़ूटर—अध्यापक अपने छात्रों को नित्य उनके घर पर पढ़ाने जाया करता है—उसी प्रकार हम भी उन्हें उनके घर के अन्य व्यक्तियों को कुछ पढ़ाने-सिखाने आना चाहते हैं। जीवन भर के स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन के द्वारा हमने जो पाया है, उसका सार—शहद हम अपने इस छोटे परिवार को बाँट जाना चाहते हैं। वैसा करने की हमें सुविधा मिलनी चाहिये।”
यह अनुरोध 40 हजार में से जिन 4 हजार ने स्वीकार किया है उनका कर्तव्य है कि वे सचाई और तत्परता से हमें वह सुविधा प्रदान करें। अखण्ड ज्योति और युग निर्माण पत्रिकाओं में प्रायः 90 के लगभग पृष्ठ रहते हैं। 30 दिन में प्रतिदिन 3 पृष्ठों के हिसाब से हमारा प्रवचन अध्यापन सुना और समझा जाय। जिनके नाम पत्रिका पहुँचती है वे स्वयं एक बारगी ही पत्रिकाओं को पूरी पढ़ सकते हैं, पर घर के लोगों को इकट्ठे करके उन्हें प्रतिदिन एक लेख सुनाने और उस सम्बन्ध में विचार-विमर्श करने का क्रम चलाया जाय। इस प्रकार की परिवार गोष्ठियाँ हमारे स्थायी परिवार के 4 हजार घरों में आगामी महीने से नियमित चल पड़नी चाहियें। घर का एक भी शिक्षित व्यक्ति ऐसा न हो जो इन विचारों को पढ़ता न हो। एक भी अशिक्षित ऐसा न हो जो इन्हें सुनता न हो।
इन चार हजार घरों में एक दिव्य देवालय—ज्ञान यज्ञ का पुण्य प्रतिष्ठापन—नव-निर्माण पुस्तकालय स्थापित कर दिया जाना चाहिये। अत्यन्त सस्ते, भावनात्मक नवनिर्माण के अग्रदूत-ट्रैक्ट इसी उद्देश्य के लिये छापे जाते हैं। दस नये पैसे रोज की बचत इकट्ठे करते रहनी चाहिये और उस पैसे से छह-छह महीने बाद एक पार्सल मँगाते रहना चाहिये। 70 ट्रैक्ट अब तक छपे हैं, इनमें लोकनिर्माण की विचारधारा है। अगली मई तक 70 ट्रैक्ट और व्यक्ति निर्माण एवं परिवार निर्माण के अत्यन्त महत्वपूर्ण विषयों पर प्रकाश डालने वाले छप जायेंगे। अपनी कॉपी में दस पैसे बचत का खाता खोल लेना चाहिये और उससे यह ट्रैक्ट माला समय-समय पर मँगा कर अपना घरेलू पुस्तकालय—सद्ज्ञान भण्डागार समृद्ध करते चलना चाहिए।
एक घंटा समय प्रतिदिन नियत समय पर ही देना पड़े ऐसा नियम नहीं है। महीने में 30 घण्टे जब भी अवकाश मिले थोड़ा-थोड़ा करके भी निकाला जा सकता है और उससे नव-निर्माण विचारधारा की चर्चा की जा सकती है। घर में लोगों की यह विचारधारा सुनाने में जो समय लगे वह भी इसी में गिना जा सकता है। पड़ौसियों को, मित्रों को, अपनी पत्रिकाएं तथा ट्रैक्ट पुस्तकें पढ़ाने-सुनाने में यह एक घण्टा खर्च किया जा सकता है।
इस प्रकार हम जो लोक शिक्षण करना चाहते हैं उसमें अपने 4 हजार परिजन एक सहायक साथी की भूमिका अदा कर सकते हैं। हम विचारों के माध्यम से ही परिजनों के घरों पर जा सकते हैं। शरीर समेत प्रेरणा एवं कथन की जो कमी रह जायगी उसकी पूर्ति परिजनों को करनी चाहिये। प्राण हमारे, शरीर परिजनों का—इस प्रकार दोनों मिल कर अन्धे-पंगों की जोड़ी जैसी आवश्यकता को पूर्ण कर लेंगे और प्रयोजन पूरा हो जायगा।
अभी इस महीने से हमारा यह ब्रह्म-विद्यालय आरम्भ हो जाना चाहिये। मार्गशीर्ष सुदी 21 (23 दिसम्बर शुक्रवार) को गीता जयन्ती है। भगवान कृष्ण ने उसी दिन विश्व कल्याण के लिये गीता का ज्ञान दिया था उसी दिन अर्जुन ने गाण्डीव उठाया और पाञ्चजन्य बजाया था। जीवन संग्राम के मध्यस्थल में आज हम भी खड़े हैं। 5000 वर्ष पूर्व की उसी प्रक्रिया की हमें पुनावृत्ति करनी है। गीता सूत्र रूप तत्वज्ञान को व्यावहारिक जीवन में कैसे उतारा जाय, इसकी सामयिक व्याख्या करते हुए हम लोग उस प्रेरणा को हृदयंगम करें, कार्यरूप में परिणत कर दिखाएँ यही उचित है।
साधना मार्ग पर चलने वालों को गायत्री विद्या का सांगोपांग प्रशिक्षण अगले पाँच वर्ष में पूरा किया जायगा। अखण्ड ज्योति में हर महीने एक अनुपम लेख छपता रहेगा। पाँच वर्ष में इस सम्बन्ध में इतना कुछ कहा समझाया जायगा जो उच्चस्तरीय आध्यात्मिक विकास के लिए पर्याप्त सिद्ध हो सके। इसी प्रकार आत्म-शोध, आत्म-निर्माण, परिवार निर्माण एवं समाज निर्माण के प्रत्येक पहलू पर आधुनिक परिस्थितियों के अनुकूल महत्वपूर्ण मार्गदर्शन इस ब्रह्म-विद्यालय के छात्रों को निरन्तर नियमित रूप से मिलता रहेगा।
4 हजार स्थायी सदस्यों में से प्रत्येक परिजन को हमारे साथी, सहायक अध्यापक का कार्य करना चाहिये। उसके प्रशिक्षण में कम से कम 10 शिक्षार्थी तो होने ही चाहियें। इस प्रकार 40 हजार शिक्षार्थियों और 4 हजार अध्यापकों का यह ब्रह्म-विद्यालय आगामी गीता जयन्ती से आरम्भ होना है। प्रत्येक सदस्य उस दिन जप, हवन, प्रार्थना के साथ इस पुण्य प्रक्रिया को आरम्भ करे। पुस्तकालय का स्थान निर्धारित करे, छात्रों के नाम नोट करे, अपनी कार्य-पद्धति निर्धारित करे और इसकी सूचना मथुरा भेजे। आशा है हमारे सक्रिय साथी यथा-समय इस पुण्य प्रक्रिया को पूरा करेंगे।