ईर्षा नहीं स्वस्थ स्पर्धा कीजिए

December 1966

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

समाज में आगे बढ़ने और ऊँचे उठने की एक स्वाभाविक स्पर्धा चला करती है। हर व्यक्ति दूसरे से अच्छा पद पाने, प्रतिष्ठा पा जाने, धनवान बनने तथा शक्तिशाली हो जाने का यथासाध्य प्रयत्न किया करता है। यह स्पर्धा अथवा प्रतियोगिता का भाव अच्छा है। इसी की प्रेरणा से समाज की उन्नति होती है, व्यापार, व्यवसाय तथा धन-दौलत बढ़ी है, कलाकौशल तथा विद्या बल का विकास हुआ है। प्रतियोगिता की भावना हृदय में प्रेरणा, स्फूर्ति तथा उद्योग के गुण उत्पन्न कर देती है।

जिन समाजों से प्रतियोगिता की भावना निकल जाती है, उनका विकास अवरुद्ध हो जाता है। हर आदमी अपनी संकीर्ण सीमा में पड़ा-पड़ा घुटा अथवा घसीटा करता है। उसकी सारी शक्तियाँ अनुद्योग से निष्क्रिय होकर नष्ट हो जाती हैं। जब तक ऊपर उठने और आगे बढ़ने की भावना रहती है, मनुष्य उसके उपाय सोचता है। इससे बुद्धि का उपयोग होता है और उसमें अधिकाधिक तीक्ष्णता तथा सूझ-बूझ का समावेश होता रहता है। बुद्धि ऐसा तत्व है, मस्तिष्क ऐसा यन्त्र है कि जिसका जितना अधिक उपयोग किया जाता है वह उतना ही अधिक सक्षम, शक्तिशाली तथा उपयोगी बनता जाता है।

सुनियोजित योजना बनाना उन्नति के लिए आवश्यक है। ऊँचे उठने के इच्छुक उसे बनाते हैं। उनकी सक्रिय बुद्धि उस दिशा में काम करती है। योजना बना जाने पर उसे कार्यान्वित करने के लिए परिश्रम करना पड़ता है। दौड़-धूप, समझ-बूझ, अध्ययन अध्यवसाय सभी का सहारा लेना पड़ता है। इसके बिना कोई भी काम पूरा नहीं हो सकता। इस प्रकार की सक्रियता से शारीरिक शक्ति का विकास होता है, जो मनुष्य को अधिकाधिक स्वस्थ तथा आगे बढ़ने के योग्य बनाती है।

सुनियोजित क्रम से परिश्रम, पुरुषार्थपूर्वक चलने में सफलता मिलती ही है, जो अगली सफलताओं के लिए उत्साहित तथा योग्य बनाती हैं। आत्म-विश्वास बढ़ाती और अगला कदम उठाने के लिए साहस उत्पन्न करती है। जीवन में प्रसन्नता तथा प्रफुल्लता का समावेश करती है। किन्तु यह सब होता तब है जब मनुष्य में आगे बढ़ने और ऊँचा उठने की भावना रहती है। उन्नतिशील समाजों में यह भावना, यह प्रतियोगिता और यह स्पर्धा होती ही है। जिससे वे सजीव तथा श्रेयवान बने रहते हैं।

स्पर्धा तथा प्रतियोगिता की भावना मनुष्य को उन्नति करने की प्रेरणा देती है, यह बात निश्चित है। किन्तु जब इस सत्वृत्ति की दिशा बदल जाती है अथवा आत्मा विकृत हो जाती है तब यह मनुष्य के पतन का कारण बन जाती है। स्पर्धा अथवा प्रतियोगिता के भाव में जब ईर्ष्या, द्वेष, डाह, जलन अथवा असूया का मिश्रण हो जाता है तब यही गुण दोष बन कर उसी प्रकार हानिकारक बन जाता है जिस प्रकार विष मिला दूध। इसलिए मनुष्य को स्पर्धा अथवा प्रतियोगिता की भावना में ईर्ष्या के दोष से सावधान रहना चाहिए।

हल्की तथा ओछी मनोभूमि के व्यक्तियों की प्रतियोगिता में प्रायः ईर्ष्या की भावना आ जाने का भय रहा करता है। उसका एक मनोवैज्ञानिक कारण है। आगे बढ़ने अथवा उन्नति करने के लिए जिस पथ का अवलम्बन किया जाता है वह सामान्य रूप से सरल तथा सुगम नहीं होता। उसमें कदम-कदम पर विरोध तथा अवरोध आ सकते हैं। असफलता तथा पीछे हटने की परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। निराशा तथा अनुत्साह के बादल घिर सकते हैं। लाभ के साथ कभी-कभी हानि भी हो सकती है। वाँछित लक्ष्य तक पहुँचने के लिए मार्ग में त्याग तथा उत्सर्ग की परीक्षा देनी पड़ सकती है। इस प्रकार के व्यवधान एवं व्याघात हल्की मनोभूमि वाले के लिये सह सकना सरल नहीं है। ध्येय मार्ग पर आई बाधाओं अथवा अवरोधों को दूर करने के लिये जिस धैर्य तथा आत्मशक्ति की आवश्यकता होती है अमनीषी व्यक्ति में उसकी कमी हुआ करती है।

दुर्बल मना व्यक्ति जरा सी असफलता आते ही आगे के लिए निराश एवं हतोत्साह हो जाता है। उसके हाथ पैर फूल जाते हैं और पुनः प्रयत्न करने के बजाय वह बैठ कर अपनी असफलता पर शोक करने लगता है, भाग्य को कोसने और समाज अथवा ईश्वर का दोष देने लगता है। उसके इस विलाप-कलाप में तब तक वह समय, वह अवसर और वे परिस्थितियाँ निकल जाती हैं, निराश होकर न बैठे रहने पर वह जिनका उपयोग अनागत असफलता के लिए कर सकता है। बाधाओं को देखकर डर जाना, अवरोधों से अधीर हो जाना, तुच्छ मनोभूमि वाले व्यक्तियों का स्वभाव बन जाता है। इस प्रकार की दुर्बलताओं का रोगी व्यक्ति स्पर्धा पूर्ण प्रगति के सर्वथा अयोग्य होता है। वह जीवन की उन्नतिशील प्रतियोगिता से खिलाड़ी की भावना रखने में असमर्थ रहता है।

जीवन की प्रतियोगिता में खिलाड़ी की भावना से रहित व्यक्ति में दूसरे के प्रति ईर्ष्या हो ही जाती है। वह अपने से आगे जाने वाले का अशुभ तथा अहित चिन्तन करने लगता है। वह प्रयत्नपूर्वक स्वयं बढ़ने के बजाय आगे बढ़ने वाले उद्योगी को पीछे खींचने, गिराने अथवा हानि पहुँचाने की दूरभिसंधियां किया करता है। अपनी संकीर्ण मनोवृत्ति अथवा हल्की मनोभूमि के कारण वह अपने को दूसरे से हारा हुआ मान लेता है। इस हीन भावना के कारण उसमें असन्तोष की आग पैदा हो जाती है, जिससे जल-जल कर उसकी न केवल शाँति ही नष्ट होती है बल्कि उन शक्तियों का ही ह्रास होता रहता है जिनके आधार पर वह पुनः उठकर आगे बढ़ सकता है।

ईर्ष्यालु व्यक्ति में डाह की आग के साथ परनिन्दा तथा परदोष दर्शन की दुर्बलता भी आ जाती है। मनुष्य का यह निकृष्ट दोष तो उसके सारे जीवन को ही चौपट कर देता है। डाह के कारण वह दूसरे की उन्नति न देख सकने के कारण उसके पतन की इच्छा किया करता है। वह आगे बढ़कर उसे पीछे कर सकने की हिम्मत तो रखता नहीं, इसलिये उसके पास केवल एक ही उपाय और एक ही साधन रह जाता है कि “इस उन्नतिशील व्यक्ति को समाज में बदनाम किया जाये, दूसरों की दृष्टि में गिराया जाये, उसे दुर्गुणी, दोषी तथा अहितकारी सिद्ध किया जाये। उसकी शक्ति, सामर्थ्य, क्षमता तथा गुणों पर कीचड़ उछाली जाये जिससे कि समाज उसके विरुद्ध हो जाय, उसे सहायता, सहयोग तथा सहानुभूति का अभाव हो जाये। ऐसी अवस्था में स्वाभाविक है कि उसकी प्रगति रुक जायेगी। उसका धैर्य, उसकी सामर्थ्य अपना अपवाद मिटाने और समाज को अनुकूल बनाने में उलझ जायेगी और वह लक्ष्य पथ से भटक कर कटीले झाड़-झंखाड़ों में फँसकर यथास्थान रह जायेगा। लोग उसे घृणा की दृष्टि से देखेंगे उसकी आलोचना तथा भर्त्सना करेंगे जिससे उसका व्यक्तित्व मलीन होगा, उत्साह, साहस एवं आशा की हानि होगी जो कि निश्चय ही उसकी अवनति का हेतु बनेगा।”

अपनी इस निकृष्ट दुरभिसंधि से प्रेरित होकर डाह का दोषी व्यक्ति उन्नतिशील व्यक्तियों की स्थान-स्थान तथा जन-जन से निन्दा करना शुरू कर देता है। वह उनकी उन्नति में दूसरों के शोषण, धोखा देही, बेईमानी, मक्कारी तथा चालाकी को आधार बतलाता है। वह लोगों को समझाने का प्रयत्न किया करता है कि अमुक व्यक्ति का विकास उसकी उन्नति और उसकी बढ़ोतरी साथियों, सहयोगियों, बंधु-बाँधवों और यहाँ तक कि समाज के लिये अहितकर होगी। निन्दक दावा किया करता है कि यदि अमुक व्यक्ति की प्रगति न रोकी गई तो यह अन्य प्रगतिशील तथा उन्नति चाहने वाले व्यक्तियों के लिये अवरोधक चट्टान की तरह बन जायेगा। दूसरों के हितों तथा अधिकारों का हनन एवं हरण करेगा। समाज पर छा कर दूसरों का प्रभाव हटाकर अपना प्रभाव जमा लेगा। इस प्रकार ईर्ष्यालु व्यक्ति उन्नतिशील व्यक्तियों के लिए न जाने कहाँ-कहाँ की ओर किस-किस प्रकार की ऊट-पटाँग बातें किया करते हैं। जिस पर मूर्खता की बात यह है कि यह भी समझते हैं कि वे एक बड़ा काम कर रहे हैं। अपने लिये उन्नति का विकास का मार्ग खोल रहे हैं। दुर्भाग्यवश उन्हें अपनी इस मूर्खतापूर्ण बुद्धिमानी पर बड़ा सन्तोष होता है। खेद है कि ईर्ष्यालु द्वेष के आवेश में वे यह नहीं सोच पाते कि इस प्रकार की अनुचित गतिविधि कर वे अपने पैरों में ही कुल्हाड़ी मार रहे हैं अपने ही भविष्य में काँटे बोते जा रहे हैं।

इस प्रकार परदोष दर्शन तथा निन्दा के कुत्सित व्यवसाय में लगकर ईर्ष्यालु व्यक्ति इसके अतिरिक्त किसी योग्य नहीं रह जाता। दूसरों के दोष देखते-देखते और झूँठी-सच्ची निन्दा करते-करते वह स्वयं उन दोषों का शिकार बन जाता है। जो समय तथा शक्ति उसे अपनी उन्नति में लगाना चाहिए उसे वह इस व्यर्थ तथा भर्त्सना योग्य कार्यवाही में लगाता रहता है। साथ ही बुद्धिमानों को यह समझते देर नहीं लगती कि अमुक व्यक्ति जो कुछ कह रहा है उसका आधार सत्य न होकर उसकी अपनी ईर्ष्या है जो उसे दूसरों से द्वेष करने के लिए प्रेरित कर रही है। इस प्रकार ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों की दृष्टि में और भी गिर जाता है। उसे उतना भी सहयोग नहीं मिल पाता जितने का वह सामाजिकता के नाते अधिकारी होता है। उन्नति एवं विकास के लिए स्पर्धा तथा प्रतियोगिता की भावना एक प्रेरक तत्व है। किन्तु तब-जब उसमें ईर्ष्या अथवा द्वेष का दोष न आने दिया जाये और जीवन मंच पर अभिनेता की भावना रक्खी जाये। जलन के वशीभूत होकर दूसरे की टाँग खींचने के लिये उसके दोष देखना अथवा निन्दा करना छोड़कर अपने से आगे बढ़े हुओं के गुणों की खोज करना और उन्हें अपने में विकसित करने का प्रयत्न करना चाहिए जिनके बल पर अगला व्यक्ति आगे बढ़ा है। गुणग्राही तथा दूसरों की सफलताओं को प्रशंसा की दृष्टि से देखने वाले उन हीन भावनाओं के शिकार नहीं बनते जो कि उन्नति-पथ पर अवरोध बनकर खड़ी हो जाती है। दूसरों के गुण देखने, उनकी प्रशंसा तथा चिन्तन करने से वे गुण स्वयं अपने में भी आ जाते हैं तब कोई कारण नहीं कि उन गुणों को पाकर, जिनके बल पर कोई आगे बढ़ा है, कोई दूसरा नहीं बढ़ सकता। अपनी सूझ-बूझ तथा अधिक परिश्रम एवं पुरुषार्थ के बल पर जो हमें पीछे छोड़कर आगे बढ़ गये हैं वे हमारी ईर्ष्या के नहीं, प्रशंसा तथा अनुकरण शीलता के निदर्शन हैं। हमें उनकी सफलता को श्रेय देना ही चाहिये। जीवन क्षेत्र में उदार तथा उदात्त भावना के साथ जो प्रतियोगिता में रहता है वह अवश्य ही आगे बढ़ता है और आगे-पीछे अपने लक्ष्य में सफल होकर ही रहता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118