महान वे बनते हैं जो कठिनाइयों से डरते नहीं

December 1966

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उन निर्बल मना व्यक्तियों को महानता के लक्ष्य प्राप्त कर सकने की आशा नहीं करनी चाहिये जो असफलताओं, बाधाओं, विरोधों एवं कठिनाइयों से डरते घबराते हों। यह स्थितियाँ उस पथ के उपहार हैं जो पथिक को स्वीकार ही करने होते हैं।

महानता इस जीवन में ही मिल जाये यह आवश्यक नहीं प्रायः होता यही है कि महानता के मार्गगामियों को अपने जीवनकाल में तिरस्कार, उपेक्षा, आलोचना और विरोधों को सहन करना पड़ता है किन्तु जब वे अपना कर्तव्य पूरा कर संसार से चले जाते हैं तब लोग उनकी महानता स्वीकार करते, जीवनगाथा कहते, लिखते और पढ़ते हैं। उनकी पूजा करते और उन्हें जीवन का आदर्श बनाते हैं।

ईसामसीह का पूरा जीवन कठिनाइयों, कष्टों, विरोधों, तिरस्कार तथा अत्याचार के बीच बीता। किन्तु वे अपने ध्येय पर डटे रहे। प्राण दे दिए किन्तु व्रत का त्याग नहीं किया। ईसा प्रेम, दया और क्षमा का संदेश संसार को देने चले थे। कितना महान और कल्याणकारी लक्ष्य था। उसमें उनका किसी प्रकार का कोई स्वार्थ नहीं था। वे मनुष्य के बीच फैले द्वेष, घृणा, आक्रोश तथा संघर्ष से द्रवित हो उठे थे। वे नहीं चाहते थे कि मनुष्य जो कि परमपिता परमात्मा के पुत्र हैं इस प्रकार की दूषित प्रवृत्तियों के शिकार बन दुःखी, संतप्त तथा त्रस्त जीवन बितायें। यदि वह अपना अज्ञान दूर कर दें, सद्प्रवृत्तियों का मूल्य एवं महत्व समझें, प्रेम, दया, करुणा और क्षमा के दिव्य गुणों की शीतलता अनुभव करें, तो निश्चय ही अन्त में पिता के स्वर्गीय राज्य में स्थान पायेंगे। जीवन में भी सुख-शाँति के लिये कलपते न होंगे। उन्होंने उस दिव्य अनुभूति को अनुभव किया था इसलिये विश्वास था कि प्रयत्नपूर्वक यदि भ्रम में भटकती मनुष्य जाति का अज्ञान दूर किया जा सके, संदेश दिया जा सके तो सभी मनुष्य स्वर्गीय अनुभूति को प्राप्त करके उसका सुख अनुभव कर सकेंगे।

इसी आशा-विश्वास के साथ वे अपना शीतल संदेश लेकर मानवता की सेवा करने के लिये उतरे थे। उनकी उत्कट इच्छा थी कि हमारे मनुष्य-भाई भी उस स्वर्गीय शाँति को पाए जो उन्हें मिली थी। ईसा का यह विचार कितना महान, निःस्पृह, निर्विकार एवं निःस्वार्थ था। इसमें कितना उपकार और मनुष्यों के प्रति मंगल भावना भरी हुई थी। किन्तु मनुष्यों ने उस आलोक दाता के साथ क्या व्यवहार किया? इतना कष्ट, इतना क्लेश, तिरस्कार एवं त्रास कि उन्हें अनेक बार एकान्त में बैठकर रोना पड़ा—इसलिये नहीं कि उनको कष्ट दिया जा रहा है, बल्कि इसलिये कि आखिर मनुष्य जाति अपना हित सुनना-समझना क्यों नहीं चाहती। यदि ईसा के स्थान पर कोई दुर्बल-मन व्यक्ति होता तो वह यह कह कर अपना रास्ता काट लेता कि जब मूर्ख मनुष्य अपने कल्याण की बात सुनना-समझना ही नहीं चाहते तब मेरी क्या गर्ज पड़ी है जो इन्हें समझाने की कोशिश करूं और बदले में पत्थर खाऊँ।

किन्तु संसार के सच्चे हितैषी इस प्रकार कहाँ सोच पाते हैं। वे एक बार अपने निर्विकार मनोमुकुर में जिस सत्य के दर्शन कर लेते हैं उसका आलोक संसार को देने के लिये आजीवन प्रयत्न करते रहते हैं। वे विरोध अथवा तिरस्कार की परवाह नहीं करते। क्योंकि उन्हें पता रहता है कि लोग जो कुछ प्रतिकूल कर रहे हैं अज्ञानवश ही कर रहे हैं। यदि उनमें यह अज्ञान न होता तो उन्हें आलोक देने की आवश्यकता ही क्यों होती और क्यों मेरी आत्मा मुझे इस कठोर कर्तव्य के लिये कहती। साथ ही यह विश्वास भी होता है कि मनुष्यों का यह अज्ञान आज नहीं तो कल अवश्य दूर हो जायेगा। मुझे ‘आज ही’ की जिद के साथ अपने कर्तव्य को बोझिल नहीं बना लेना चाहिये। मनुष्य, मनुष्य हैं वे एक दिन समझेंगे और सत्य के दर्शन करेंगे।

ईसा को सफलता की कोई जल्दी न थी उन्हें चिन्ता थी अपने कर्तव्य पालन की। वे लगन और धैर्यपूर्वक अपने कर्तव्य में लगे रहे और उसकी पूर्ति में ही अपने प्राणों को उत्सर्ग कर दिया। ईसा जीवन भर अपने ध्येय में असफल रहे। किन्तु एक क्षण को भी विचलित न हुए। आज यह उनके धैर्य एवं निस्वार्थ प्रयास का ही सत्फल है कि आधे से अधिक संसार उनका अनुयायी है। वह ईसा जिन पर जीवन काल में पत्थर मारे गये, बड़े से बड़ा त्रास दिया गया, यहाँ तक की जीवित क्रूस पर लटकाकर मार डाला गया, जीवनोपरान्त ईश्वर के समान पूजे और माने गये। आज उनका नाम संसार के महानत व्यक्तियों में है। महानता कोई सुख नहीं है, जैसा कि लोग समझते हैं। यह मनुष्य की जीवन कालीन सेवाओं, लोकमंगल की कामनाओं, प्रयत्नों, कष्टों, बलिदानों और ध्येय धीरता का प्रमाण-पत्र है जो प्रायः उसके दिवंगत हो जाने के बाद संसार द्वारा घोषित किया जाता है। जीवनकाल में ही सफलता का हठ लेकर चलने वालों को यही उपयुक्त है कि वे या तो अपना कदम पीछे हटा ले अथवा अपनी मनोवृत्ति में सुधार कर लें।

महान उद्देश्यों में सफलता जीवन काल में नहीं मिलती, ऐसा कोई नैसर्गिक नियम नहीं है। वह जीवन काल में भी मिल सकती है। भगवान बुद्ध, महावीर, विवेकानन्द और महात्मा गाँधी प्रभृति सत्पुरुष इसके उदाहरण हैं। किन्तु महान पथ पर चरण रखने वालों को सफलता-असफलता और उसके आगमन की अवधि की चिन्ता से मुक्त रह कर ही अपने कर्तव्य में लगा रहना चाहिये। उसे जब आना है आ जायेगी। उसके विषय में सोचना और चिन्ता करना क्या?

श्रेय-पथ पर आने वाली कठिनाइयों से घबरा कर निराश, हताश, निरुद्योगी हो जाने वाले अपने लक्ष्य को नहीं पा सकते, संसार में ऐसे न जाने कितने कम-हिम्मत व्यक्ति हुए होंगे और आज भी होंगे जो किसी लक्ष्य को पाने का इरादा लेकर चले होंगे किन्तु चार-छह कदम चलने पर कठिनाइयों का सामना होते ही पीछे हट कर बैठ गए होंगे। ऐसे लोगों के उदाहरण तो नहीं बताये जा सकते क्योंकि साहस हीन व्यक्तियों का अंकन न तो समय के स्मरण-पट पर होता है और न वे स्वयं अपना प्रकाश करते हैं महान उद्देश्य को लेकर न चलना उतनी लज्जा की बात नहीं होती जितनी की चलने के बाद कठिनाइयों के भय से रुक जाना अथवा पीछे हट जाना। समय के स्मृति-पट पर वे ही पुरुषार्थी व्यक्ति अंकित होते और लोग प्रेरणा के लिये उदाहरण बनते हैं जो अपने श्रेय-पथ की बाधाओं, विघ्नों तथा कठिनाइयों से तिल-तिल पर जूझते हुए बढ़ते रहते हैं। अपनी इस शक्ति तथा साहस को सुरक्षित रखने के लिये वे इनकी शत्रु निराशा एवं निरुत्साह को स्वप्न में भी पास फटकने नहीं देते। ऐसे ध्येय-धीर मनस्वी वीर पुरुष पहाड़ जैसी असफलता की उपेक्षा कर कण जैसी सफलता पर नजर रखकर उत्साह एवं सक्रियता की जननी प्रसन्नता को विनष्ट नहीं होने देते। उनकी गणना के विषय बढ़े हुए कदम होते हैं रुके अथवा परिस्थितियों द्वारा पकड़ कर पीछे हटाये हुए नहीं। लड़ाई के मैदान में कभी-कभी रुकना और पीछे भी हटना होता है। भय अथवा कायरता के वशीभूत होकर भागने के लिये नहीं बल्कि संभलने, समझने और फिर तेजी से आगे बढ़ने के लिये। अब्राहम लिंकन को एक सौ आठ बार असफलता का मुख देखना पड़ा। हुमायूँ इक्कीस बार लड़ाई में हारा। प्रताप को जीवन भर लड़ना पड़ा और सुभाष की असफलता संसार की बड़ी सफलताओं के साथ लिखी गई किन्तु क्या इन ऐतिहासिक पुरुषों ने कभी निराश अथवा हतोत्साह होकर हार मानी। यदि इनमें यह दुर्बलता रही होती तो आज उनका नाम इतिहास में न होता। सफलता-असफलता की सुखद अथवा दुःखद भावना से परे कर्मवादी कर्तव्यवादी ही महानता के शिखर पर चढ़ कर अपने लक्ष्य की उपलब्धि किया करते हैं।

सफलता के लिये साधनों की नहीं साहस एवं संलग्नता की आवश्यकता होती है। अमेरिका के महान प्रेसीडेन्ट विल्सन को आज कौन नहीं जानता। अमेरिका में गुलामी प्रथा का विरोध करने वाले इस महापुरुष का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उन्होंने अपना जीवन विवरण देते हुए लिखा है—

“मैं एक अत्यन्त गरीब घर में पैदा हुआ था। घर में इतनी गरीबी थी कि दो-दो तीन-तीन दिन भोजन के दर्शन नहीं होते थे। जब कभी अबोधावस्था में भूख से व्याकुल होकर किसी से रोटी माँगता था तो वह भी नहीं मिलती थी। दस वर्ष की आयु में रोटी की तलाश से घर छोड़कर भागना पड़ा। अनेक मासों तक दर-दर की ठोकरें खाने के बाद एक साधारण-सी नौकरी मिली जिसमें वेतन तो बहुत कम था किन्तु वर्ष में एक माह की छुट्टी मिलती थी। ग्यारह वर्ष तक उस नौकरी को करता रहा। वर्ष में एक माह की छुट्टी का अवकाश मैं पढ़ने में लगाया करता था। इस प्रकार ग्यारह वर्ष की नौकरी में मुझे केवल ग्यारह माह पढ़ने के लिये मिले जिनका मैंने परिश्रम पूर्वक इतना उपयोग किया कि अच्छी खासी योग्यता प्राप्त कर ली। अपने कर्तव्य कार्य को मैंने किस तत्परता से किया इसका प्रमाण यह है कि मालिक ने काम खत्म होने पर मुझे दो सौ रुपये मूल्य के जानवर इनाम में दिये जिन्हें बेच कर मैंने वह धनराशि धरोहर के समान आगे के लिये सुरक्षित रख ली। मेरी इच्छा जीवन में तरक्की करने की थी इसलिये मैं जी-तोड़ मेहनत करता और मजदूरी का एक-एक पैसा बचा लेने की कोशिश करता।

“इक्कीस वर्ष की आयु तक मैंने बीस रुपये मासिक पर खेत जोतने, लकड़ी काटने, चीरने और ढोने का काम किया जिसमें मुझे सूर्योदय से एक पहर रात गये तक काम करना पड़ता था किन्तु मैंने निराशा अथवा उत्साह-हीनता को पास न आने दिया। इस बीच अवकाश के समय में मैं बराबर अध्ययन करता और आगे उन्नति की युक्ति पर बराबर सोचता रहा जिससे मैं इस जी-तोड़ मेहनत की नौकरी के समय में भी एक हजार पुस्तकें पढ़ सका। अपने बढ़ाये हुए ज्ञान और बचायी हुई पूँजी को लेकर आगे बढ़ा और कोई स्वतन्त्र काम करने के विचार से सौ मील की दूरी पर नाटिक नामक कस्बे में मोची का काम सीखने गया। वहीं मैंने सीख कर अपना काम जमाया। मेरी उपार्जित दक्षता एवं शिक्षा ने मेरा साथ दिया और मैं शीघ्र अपने ईमानदार इरादों, विचारों तथा कर्मों से इतना लोकप्रिय हो गया कि वहीं विधानसभा के निर्वाचन में बहुमत पा सकने में सफलता प्राप्त की जो कि बढ़ती-बढ़ती अमेरिका के सम्मानित एवं उत्तरदायित्वपूर्ण पद तक जा पहुँची।”

अन्त में उन्होंने अपने जीवन का उदाहरण देते हुए कहा कि जो लोग उन्नति के लिये साधनों की कमी की शिकायत करते हैं वे वास्तव में उन्नति चाहते नहीं और अपनी साहसहीनता के साथ अकर्मण्यता का परिचय देते हैं।


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