शिष्ट व्यवहार ही मनुष्यता की शोभा है।

December 1966

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्यता का सबसे बड़ा लक्षण सभ्यता है। असभ्य अथवा अनागरिक व्यक्ति मनुष्य होते हुए भी मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है। समाज में जो भी कष्ट क्लेश, मार-धाड़, लड़ाई-झगड़ा, वाद-विवाद विरोध एवं संघर्ष दिखाई देता है, उसमें से नब्बे प्रतिशत ऐसे लोगों द्वारा उत्पन्न किया होता है जो नागरिकता की भावना से रहित होते हैं। विश्वविख्यात विचारक एवं पाश्चात्य राजनीति के आदि प्रणेता अरस्तू ने एक स्थान पर कहा है-

“नागरिकता के नियमों और सामाजिक न्याय के अभाव में मनुष्य अन्य सभी जीवों से अधिक भयंकर है।”

इस कथन का तात्पर्य यही है कि यदि मनुष्य को किसी सामाजिक व्यवस्था अथवा नागरिक नियमों में आबद्ध होकर न चलना पड़े तो वह अपने समाज के लिए उससे कहीं अधिक भयानक एवं अहितकर हो जाये जितना सृष्टि का कोई जीव अपने समूह के लिए हो सकता है। जब सरकार संस्था का नियन्त्रण होने और दण्ड की व्यवस्था रहने पर भी अनागरिक प्रवृत्ति के मनुष्य समाज में अशान्ति एवं अव्यवस्था फैलाने का प्रयत्न करते रहते हैं तब व्यवस्था एवं नियंत्रण न रहने पर मनुष्य किस सीमा तक अराजक हो सकता है, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। मनुष्य संसार के सभी जीवों से श्रेष्ठ बुद्धिमान प्राणी है, शोभा तो उसकी इसी बात में है कि वह बिना किसी नियन्त्रण अथवा दण्ड के ऐसा व्यवहार करे, जिससे सब ओर सब काल सुख-सुविधा एवं शाँति की परिस्थितियाँ बनी रहें। यदि नहीं तो कम-से-कम इतना तो होना ही चाहिये कि सभ्यता, शिष्टता, नागरिकता एवं सामाजिकता के जो सामान्य एवं सार्वजनिक नियम नियत किये गये हैं उनका तो पालन करे ही। किन्तु खेद है उन नागरिक कहलाने वाले व्यक्तियों पर जो शिष्टता एवं सभ्यता के साधारण नियमों की अवहेलना कर उस मनुष्यता के नाम पर बट्टा लगाते हैं जो सृष्टि में सिरमौर मानी जाती है।

आज जिस देश में असभ्यता एवं अशिष्टता की दिन-दिन वृद्धि एक राष्ट्रीय बनती जा रही है वही भारत देश अपनी सभ्यता, संस्कृति एवं शिष्टाचार में कभी संसार का अगुवा रहा है। आज इस देश का शिष्टाचार भले ही पतन की दशा में हो किन्तु यह सत्य है कि इसकी सभ्यता सबसे प्राचीन है। केवल प्राचीनता ही इसकी विशेषता नहीं है । इसकी सभ्यता की विशेषता यह भी है कि इसका स्वरूप सार्वभौमिक होने के साथ-साथ तथ्यपूर्ण मानवीय मूल्यों पर आधारित है। आज जबकि संसार की अधिकाँश सभ्यताओं का तिरोधान कुछ हजार अथवा सौ वर्षों में ही हो गया, यह वैदिक काल से अब तक स्थिर एवं मान्य है।

अपनी उस ऋषि-प्रणीत सभ्यता एवं संस्कृति को भुला देना अथवा उससे विमुख एवं विरत हो जाना भारतीयों के लिए कहाँ तक उचित है जिसे संसार की अन्य सभ्यताओं का मूल-स्रोत माना गया है। संसार की लगभग समग्र सभ्यताओं का आविर्भाव इसी की प्रेरणा अथवा अनुकरण से हुआ है। इसकी पुष्टि में विज्ञ शास्त्रकारों का यह कथन याद रखने योग्य है।

“एतद् देश प्रसूतस्य सकाशदग्र जनमनः। स्वं स्वं चरित्र शिक्षेरन पृथिव्याँ सर्वमानवः॥”

“इसी देश के ऋषि-मुनियों और विद्वानों के संसर्ग से पृथ्वी भर के मानवों ने चरित्र एवं सभ्यता की शिक्षा प्राप्त की है।”

पराधीनता काल में भारत को अपदस्थ करने तथा उसके तेजोबल के मन्तव्य से कुछ समय संकीर्ण मनोवृत्ति के अंग्रेजों ने प्रमादवश अर्ध सभ्य कहकर अपमान करना शुरू किया था किन्तु जब उन्होंने भारतीय साहित्य एवं संस्कृति का अध्ययन किया तो उन्हें महात्मा गाँधी के इस सत्यपूर्ण कथन से सहमत ही होना पड़ा-

“मेरा विश्वास है कि जिस सभ्यता को भारत ने जन्म दिया, संसार की कोई सभ्यता उसकी समानता नहीं कर सकी। हमारे पूर्वज जो बीज बो गये हैं उसकी समता करने वाली कोई वस्तु संसार में नहीं है।”

सभ्यता का मुख्य चिन्ह शिष्टाचार को ही माना गया है। किन्तु आज लोगों ने शिष्टाचार को शिक्षा, वस्त्रों तथा बाहरी दिखावे तक ही सीमित कर दिया है। किन्तु शिष्टाचार का मुख्य तत्व मनुष्य के हृदय में रहने वाले स्नेह, सौहार्द्र, श्रद्धा एवं सद्भावना में ही निहित रहता है। भारतीय मान्यता के अनुसार अन्तर से शून्य रह कर बाहर से विनम्र, विनीत किंतु अश्रद्धालु रहकर स्नेह, स्वागत, सद्भावना, सौहार्द्र अथवा आवभगत का ढंग प्रदर्शन करना अशिष्टाचार ही माना गया है

जहाँ आज के सभ्य कहे जाने वाले अधिकाँश दंशों में शिष्टाचार एवं सभ्यता के नियमों के बाह्य निर्वाह पर बल दिया जाता है, वहाँ भारतीय संस्कृति उसकी आन्तरिक वास्तविकता पर ध्यान देने को कहती है। भारतीय सभ्यता में इसे शिष्टाचार नहीं माना गया है कि कोई किसी के प्रति प्रकट में तो आदर, सत्कार दिखलाता है, सामने स्नेह एवं सौहार्द्र की बातें करता है पर हृदय में असद् भावना रखता और पीछे-पीछे उसकी निन्दा करता है, उपहास, उड़ाता अथवा जड़ खोदने की कोशिश करता है। भारतीय परिभाषा अनुसार किसी के प्रति शिष्टाचार के बाहरी नियमों का पालन करते हुये उसके प्रति हृदय में वैसी भावनायें भी होनी चाहिए जो बाह्य व्यवहार द्वारा घाषित होती है। यही वास्तविक शिष्टाचार है अन्यथा बाह्य प्रदर्शन एक आडंबर एवं विडंबना मात्र है। ऐसा छलपूर्ण व्यवहार शिष्टाचार में नहीं माना जा सकता।

शिष्टाचार का मूल उद्देश्य है अपने युक्त व्यवहार द्वारा अन्य को प्रसन्न, प्रमुदित एवं शीतल करके उसके हृदय में अपने लिए यथायोग्य स्नेह, श्रद्धा एवं सद्भाव उत्पन्न करना। सार्वजनिक आधार पर शिष्टाचार बरतने से समाज से दुर्भावनायें दूर होती हैं और उनके स्थान पर सद्भावनाओं एवं प्रेम के अंकुर उपजते हैं जिनका सुख-शान्ति, सहयोग-सहायता एवं सुविधा साधनों के रूप में फलीभूत होना अवश्यम्भावी है। शिष्टाचार जहाँ मानवीय सभ्यता का द्योतक है वहाँ उसके व्यवहार का उद्देश्य यह भी है कि मानव-मानव के बीच प्रेम का विकास हो और चारों ओर स्वर्गीय परिस्थितियाँ दिखाई देने लगें। मनुष्य ने आज तक जो भी उन्नति की है वह परस्पर के स्नेह सौहार्द्र, सहयोग एवं सहायता के बल पर ही की है। इन गुणों का विकास मात्र शिष्ट व्यवहार पर ही निर्भर है। अशिष्ट व्यवहार पारस्परिक प्रेम के स्थान पर भिन्नता एवं द्वेष दुर्भावनाएँ उत्पन्न करता है। स्वयं अपने साथ समाज को सुखी बनाने के लिए शिष्टाचार का समुचित पालन बहुत आवश्यक है।

अनेक लोग कृत्रिम शिष्टाचार में अपनी बड़ी चतुरता समझते हैं। पीठ पीछे बुराई करने और सम्मुख आवभगत दिखलाने में बड़ा आनन्द लेते हैं। समझते हैं कि संसार इतना मूर्ख है कि उनकी इस द्विविध नीति को समझ नहीं सकता । वे अपने इस दोहरे व्यवहार पर भी समाज में बड़े शिष्ट एवं सभ्य समझे जाते हैं। अपने को इस प्रकार बुद्धिमान समझना बहुत बड़ी मूर्खता है। एक तो दूसरे को प्रवंचित करना स्वयं ही आत्म-प्रवंचना है। फिर वैर-प्रीति की तरह सद् और असद् भावनाएं हृदय से सम्बन्धित वास्तविकता तथा कृत्रिमता छिपी नहीं रह सकती। वह कभी-न-कभी किसी माध्यम से प्रकट हो ही जाती है। तब ऐसा होने पर कृत्रिम शिष्टाचार का बड़ा उपहास होता है। उसके शिष्टाचार के प्रति लोगों का विश्वास उठ जाता है और वह परले सिरे का अशिष्ट समझ लिया जाता है। जहाँ आन्तरिक शिष्टाचार से दूसरों के हृदय में अपने लिए आत्मीयता, सहृदयता एवं आदर को भाव उत्पन्न होता है और वे हर प्रकार से सहायता या सहयोग करने के लिए उद्यत रहते हैं, वहाँ मिथ्या शिष्टाचार दूसरों के हृदय में अविश्वास, सहयोग, अरुचि एवं भिन्नता के भाव पैदा करता है।

समाज में परस्पर सहयोग, सहृदयता एवं संगठन का भाव बढ़ाने के लिए हम सब एक दूसरे के प्रति शिष्ट एवं यथोचित व्यवहार करने के लिए कर्तव्य बद्ध हैं। यदि हम कृत्रिम व्यवहार और दिखावटी शिष्टाचार का बर्ताव करते हैं तो निश्चय ही समाज में विघटन, सन्देह, संशय एवं अमित्रता के बीज बोते हैं जिनके विष-फल अपने साथ पूरे समाज के हित में घातक होंगे। हमारी सभ्यता, हमारी नागरिकता और हमारी मानवता इसी में है कि हम सबसे यथोचित शिष्टता का व्यवहार करें।

शास्त्रों की आज्ञा है कि कोई कितनी ही आवभगत क्यों न करे यदि उसके हृदय में वास्तविक हर्ष एवं अनुराग नहीं है तो उसका स्वागत नहीं करना चाहिये क्योंकि अनात्मिक आदर आत्मा का हनन करता है। इस तथ्य को दृष्टिगोचर रखते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने दुर्योधन का राजसी स्वागत ठुकरा कर विदुर का साधारण शाक स्वीकार किया था और इसी सत्य को सम्बोधित करते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है—

आवन सों हर्षे नहीं, नयना नहीं सनेह। तुलसी तहाँ न जाइये कंचन बरसै मेह॥

यों तो देशकाल की भिन्नता से संसार में शिष्टाचार के असंख्यों तौर तरीके प्रचलित हैं पर भारतीय शिष्टाचार के जो मूलभूत नियम शास्त्रों में बतलाये गये हैं वे लगभग सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक ही हैं। स्वागत सत्कार करने के विषय में ‘दक्ष-स्मृति’ का कथन है—

“सुधावस्तूनिवक्ष्यामि विशिष्टे गृहमागते। मनश्चक्षुर्मुखंवाचं सौम्यं दत्वा चतुष्टयम्॥

अभ्युत्थानं ततोगच्छेत पृच्छालाप प्रियान्वितः। उपासन मनुव्रज्या कार्यण्ये तानि नित्यशः॥”

“गृहस्थों का कल्याणकारी नियम यह है कि वे किसी महानुभाव के पधारने पर मन, वचन, मुख और नेत्रों को प्रसन्न रक्खें। अभ्यागत को देखते ही खड़े होकर आने का हेतु पूछें। प्रेमपूर्वक वार्तालाप करें, यथोचित एवं यथासाध्य सेवा करें और चलते समय कुछ दूर पहुँचाने जायँ।”

साधारण रूप में यह नियम घर आये अतिथि का स्वागत करने के लिये गृहस्थ को निर्देश किये गये लगते हैं। किन्तु यदि इन नियमों का पालन किसी से किसी स्थान पर समागम होने पर, परिचित-अपरिचित के साथ यथोचित रूप से किया जाये तो यह सामाजिक एवं सार्वजनिक शिष्टाचार का प्रयोजन पूरा कर सकते हैं।

यों तो कदम-कदम पर देशकाल एवं व्यक्तियों की भिन्नता से शिष्टाचार की अभिव्यक्ति-करण की विधि बदल जायेगी तथापि शिष्टाचार के कुछ ऐसे स्थायी नियम हैं जिनका पालन करते रहने से अशिष्टाचार होने का भय नहीं रहता। उनसे से मोटे-मोटे नियम इस प्रकार हैं—

(1) छोटा हो अथवा बड़ा किसी के साथ पुरुष अथवा तिरस्कार पूर्ण व्यवहार किसी समय भी नहीं करना चाहिये। संसार का प्रत्येक जीव यहाँ तक कि जड़ वस्तुयें भी हमारी अपेक्षा की अधिकारिणी हैं।

(2) देश, धर्म, जाति, विश्वास एवं मान्यताओं की भिन्नता होने पर भी अपनी भावनाओं के समान ही दूसरों की भावनाओं का आदर करना चाहिये।

(3) किसी भी कारण, परिस्थिति अथवा दशा में मुख से अपशब्दों का प्रयोग न करना चाहिये।

(4) हर स्थान एवं परिस्थिति में अपने से अधिक दूसरों की सुख-सुविधा का ध्यान रखना चाहिये।

(5) दूसरे के साथ वह व्यवहार कदापि नहीं करना चाहिये जो स्वयं अपने साथ किये जाने पर अखरे।

(6) बिना प्रयोजन किसी अपरिचित से परिचय का आग्रह करना अशिष्टता है।

(7) किसी के आकार-प्रकार अथवा वेशभूषा पर प्रकट अथवा मन-ही मन हंसना, व्यंग करना अथवा आलोचना करना असभ्यता का चिन्ह है।

(8) किसी को किसी काम में विघ्न उपस्थित करना अशिष्टता है, जब तक कि उसके कर्तृत्व का कुप्रभाव अपने पर न आता हो।

(9) किसी भी निजी अथवा सार्वजनिक स्थान पर कोई भी काचिक, वाचिक अथवा साँकेतिक, ऐसी चेष्टा न करनी चाहिये जो किसी के लिये असुविधा अथवा अप्रसन्नता जनक हो।

इन नव नियमों का ध्यान रखने के साथ-साथ जो सहिष्णु, उदार, विनम्र, संकोच शील, स्थिर स्नेही एवं प्रसन्नचेता है और यह विश्वास रखकर आवालबृद्ध स्त्री-पुरुष से यथोचित व्यवहार करता है कि सबमें समान रूप से एक ही परमात्मा का अंश है, सभी अपनी आत्मा के समान ही अनुपेक्षरणीय हैं, उससे अशिष्टाचारी होने का डर नहीं के बराबर ही रहता है। ऐसा सद्शिष्टाचारी संसार में सबकी दृष्टि में अपना स्थान बना कर स्नेह एवं श्रद्धा का भाजन बनता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118