भौतिकवादी दृष्टिकोण हमारे लिये नरक सृजन करेगा।

December 1966

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पूर्ण भौतिकवादी होने का सबसे बड़ा दण्ड यह है कि ईश्वर के प्रति मनुष्य की आस्था शिथिल हो जाती है। भौतिकवाद और ईश्वरवाद में परस्पर विरोध है। निश्चित है कि जो भौतिकवादी होगा उसकी दृष्टि संसार तक ही सीमित रहेगी और जो ईश्वरवादी है उसकी दृष्टि संसार तक ही सीमित न रहकर लोक-परलोक, पाप-पुण्य, आत्मा और परमात्मा तक जायेगी ही।

‘खाओ पियो और मौज करो’ का सिद्धान्त मानने और उस पर आचरण करने वालों को इतना अवकाश ही कब रहता है कि वे आत्मा-परमात्मा के विषय में कुछ सोच सकें। उन्हें तो खाने-पीने मौज करने के साधन-सामग्री जुटाने में ही अपना सारा समय लगाना होगा। उनकी बुद्धि, उनकी विद्या और उनका सारा परिश्रम-पुरुषार्थ उन्हें उपकरणों के संचय में यापन होता रहेगा। क्योंकि भौतिक ही सही कोई भी उपलब्धि शक्तियों को केन्द्रित कर क्रियाशील बनाये बिना नहीं हो सकती। ‘खाओ पियो और मौज करो’ की वृत्ति स्वाभाविक रूप से तृप्त नहीं होती है। भौतिकवादी कितना और कितने कमाये कितनी ही सम्पत्ति क्यों न संचित कर ले और कितने ही साधन क्यों न इकट्ठे कर लें उसे संतोष अथवा तृप्ति हो ही नहीं सकती। इसके दो कारण हैं एक तो यह वृत्ति स्वयं ही असंतोषिनी होती है दूसरे भौतिक भोगों में तृप्ति कहाँ? आज के साधन कल पुराने हो जाते हैं। नये साधनों की लालसा जाग पड़ती है और नये भी जल्दी ही पुराने हो जाते हैं। इस प्रकार यह चक्र निरन्तर रूप से रात-दिन चलता रहता है। ऐसी दशा में मनुष्य का पूरा जीवन खाओ पियो और मौज करो के साधन जुटाने में ही जुटा हुआ समाप्त हो जाता है। भौतिकता की अतिशयता से ग्रसित मनुष्य के पास इतना अवकाश ही नहीं रहता कि वह उस आदि सत्ता और अनादि कारण परमात्मा के विषय में सोच सके।

बहुत मात्रा में भौतिक साधनों ही का संयच करने के लिये मनुष्य जल्दी ही ईमानदारी, नीति, न्याय तथा धर्म की सीमा छोड़ कर अनुचित एवं असत्य की रेखा में चला जाता है और तब त्वरित गति से संचय में बढ़ता हुआ आत्मा−परमात्मा से इतनी दूर चला जाता है जहाँ पर न तो उसकी आवाज सुनाई देती है और न झलक ही दिखाई देती। साथ ही ईर्ष्या-द्वेष, छल-कपट, असत्य एवं अनीति के लौह आवरण उस ज्योति का मार्ग स्वयं ही रुद्ध कर देते हैं।

इस प्रकार भौतिकता की भयानक लिप्साएँ ईश्वरीय निष्ठा को इस सीमा तक नष्ट कर देती हैं कि मनुष्य अनजान में ही पूरा नास्तिक बन जाता है। एक बार यदि वह शाब्दिक रूप में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार भी करता रहे भले ही इनकार न करे, तब भी वह आस्तिक सर्वशक्तिमत्ता के प्रति विनम्र न होना, उसका सहारा छोड़ देना अथवा उसके निर्दिष्ट गुणों से पराँमुख हो जाना विशुद्ध नास्तिकता ही है। सच्ची आस्तिकता की पहचान गुण-अवगुण ही हैं। ईश्वर के अस्तिव में ‘हाँ’ अथवा ‘ना’ नहीं।

‘खाओ पियो और मौज करो’ का सिद्धान्त हर पदार्थ तथा हर अवसर का रस चखने की प्रेरणा करता है जिससे बहुत बार खाद्य-अखाद्य तथा कार्य-अकार्य की मर्यादा के प्रति आस्था उठ जाती है जिससे मनुष्य न जाने कितने अखाद्यों का भक्षण करने लगता है और न जाने कितने दुर्व्यसन अपने पीछे लगा लेता है। सुरा-सुन्दरी भोगवादियों के दो ऐसे उपकरण हैं जिनसे कदाचित ही कोई भाग्यवान बचा रह सके। अमर्यादित जीवन जीने के जो दुष्परिणाम शोक, संताप, असंतोष एवं अशाँति के रूप में सामने आते हैं उन्हें बहुधा भोगवादियों को भोगना ही पड़ता है।

जो देश जिस अनुपात से भौतिकवादी एवं भोग-परायण है और जिस अनुपात से उसकी साधना-सामग्री की सुविधा है, वे उसी अनुपात में असंतुष्ट एवं अशाँत हैं। आशंका, सन्देह, तनाव, भय तथा युद्धोन्माद उनकी चिन्तन धारा का अंग बन गये हैं। वे जो कुछ सोच पाते हैं विनाश को सामने रख कर और जो कुछ कर पाते हैं स्वार्थ को सामने रखने कर कर पाते हैं। परोपकार के नाम से किया हुआ उनका प्रवर्तन में किसी निहित स्वार्थ से मुक्त नहीं होता। आज जब शाँति तथा निःशस्रीकरण की कल्याणकारी बात उनके सामने आती है तो उनके अस्तित्व सिहर उठता है शाँति अथवा निःशस्री करण की अवस्था में हम कहीं इतने कमजोर न हो जाएं कि कोई दूसरे हमारे भोग-उपभोगों को छीन ले। भौतिक भोगों के रोगियों के पास आत्मबल अथवा आत्मविश्वास कहाँ? और होती है उनके पास वह निःस्पृहता, वह तत्वदृष्टि जिसके आधार पर भोग साधनों की निःसारता को देख समझ सकें। वे भौतिक भोगों की अचिरंतनता को पशु बल से चिरन्तनता में बदलने की कोशिश में लगे रहते हैं और चाहते हैं कि शेष सारा संसार विनष्ट हो जाता तो हमारे भोग साधन निरापद एवं निष्कंटक हो जाते और तब हम उन्हें आँख मूँद कर इस प्रकार भोगते जैसा कि अब तक भोग पाये हैं और इसी निश्चिन्तता अथवा निष्कंटकता को वे विश्व शाँति की संज्ञा देना चाहते हैं। किन्तु अध्यात्मिकता का मीठा फल ‘शाँति’ इन विचारों एवं कार्यों में कहाँ?

आज संसार में अमेरिका भोगवाद तथा भौतिक साधनों का सर्वोच्च निदर्शन बना हुआ है। उस देश में प्रचुर धन-सम्पत्ति है। अगणित उद्योग, विशालकाय कल-कारखाने तथा वैभव की असीम चकाचौंध है। आदमी का सब काम यंत्र करते हैं और हर द्वार पर एक मोटरकार, खड़ी रहती है। होटले, रेस्ट्राँ, सिनेमा, पार्क, नाचघर, नाटकशाला तथा प्रमोद स्थलों की भरमार है। हर व्यक्ति की आय व्यय से कहीं अधिक है। ऐसा लगता है कि संसार के सारे साधन, सारी सामग्री और सारी लक्ष्मी अमेरिका में ही सिमट कर आ गई है। किन्तु इस सम्पन्नता की स्थिति में वहाँ का जन-जीवन कितना अतृप्त, कितना अशाँत, कितना व्यग्र, कितना व्यस्त और कितना बोझिल है, इसका अनुमान वहाँ प्रति वर्ष होने वाली आत्महत्याओं की रोमाँचकारी संख्या से लगाया जा सकता है।

अमेरिका के प्रसिद्ध समाचार पत्र ‘न्यूयार्क टाइम्स’ में प्रकाशित कुछ दिन पहले की एक रिपोर्ट से पता चला है कि अमेरिका में लगभग बीस हजार व्यक्ति प्रति वर्ष आत्महत्या करते हैं। आत्महत्याओं की यह भयानक संख्या ही वहाँ के अशान्त एवं असफल जन-जीवन को स्पष्ट कर देने के लिये पर्याप्त है। इसके अतिरिक्त न जाने कितने लोग रोग-शोक से पीड़ित होकर, अशाँति एवं असफलता से दुखी होकर अतृप्ति तथा लालसाओं में घुल-घुल कर मरते होंगे और न जाने कितनी आत्महत्यायें ऐसी होती होंगी जिनका या तो पता न चलता होगा अथवा उन पर पर्दा डाल कर स्वाभाविक मृत्यु घोषित कर दिया जाता होगा।

इन आत्महत्याओं के अनेक कारण हो सकते हैं किन्तु विशेष कारणों में—निराशा, पारिवारिक कलह, आर्थिक कठिनाई, शराब तथा अनीश्वरवाद की गणना की जाती है।

कहना न होगा कि यह सब कारण भौतिक भोगवाद की ही देन हैं। इतने कारोबारी तथा शक्ति सम्पन्न देश में का क्या कारण? भोगवाद का अंत निराशा में ही होता है। भोगवादी शीघ्र ही मिथ्या एवं नश्वर सुखों में अपनी सारी शक्तियाँ नष्ट कर डाला करते हैं जिससे अकाल ही में खोखले होकर निर्जीव हो जाते हैं। ऐसी दशा में न तो उनके लिये किसी वस्तु में रस रहता है और न जीवन में अभिरुचि। स्वाभाविक है उन्हें एक ऐसी भयानक निराशा आ घेरे जिसके बीच जी सकना मृत्यु से भी कष्टकर हो जाये। इस पर भी मुसीबत यह कि उनके आस-पास का भोगपूर्ण वातावरण उन्हें अधिकाधिक ईर्ष्यालु, चिन्तित तथा उपेक्षित बना कर जीने योग्य ही नहीं रखता और वे अनीश्वरवादी होने से, आत्मा-परमात्मा को भूले हुए कोई आधार न पाकर आत्महत्या के जघन्य पाप का ही सहारा लेते हैं।

भोगवादी प्रायः स्वार्थी तथा दूसरों के प्रति निरपेक्ष रहा करते हैं। घर में कोई बीमार है, दुःखी अथवा संतप्त है—किन्तु दूसरे लोग उसकी उपेक्षा करके अपने मनोरंजनों में लगे रहते हैं। दूसरे का दुःख बटाना उनके सिद्धान्त में ही नहीं होता। सुना जाता है कि अमेरिका तथा अन्य पाश्चात्य देशों में पति को मृत्यु शैय्या तक पर छोड़कर पत्नी अपने मनोरंजन कार्यक्रमों में चली जाती है। रोगी माता-पिता को कराहता छोड़ कर सन्तानें दोस्तों के साथ संलग्न हो जाती हैं। कोई भी मनोरंजन के एक भी अवसर को किसी के लिये त्याग नहीं कर सकता। पूरा परिवार एक होते हुए भी सब एक-दूसरे से अलग रहा करते हैं। सुख में भले ही साथ दे दें किन्तु दुःख में कोई किसी को पूछता ही नहीं। साथ ही साधनों में किंचित कमी अथवा संपर्क में रंच नीरसता आते ही पति-पत्नी तथा प्रेमी-प्रेमिकायें सम्बन्ध विच्छेद कर लेते हैं। ऐसी दशा में न जाने कितने निराशा एवं मानसिक तनाव से प्रेरित होकर आत्महत्या कर लिया करते हैं।

अमेरिका जैसे सम्पन्न देश की जनता को भला आर्थिक कठिनाई क्या हो सकती है? और वास्तविक कठिनाई होती भी नहीं। किन्तु भोगवाद का प्रदर्शन पूर्ण जीवन, स्पर्धा पूर्ण रहन-सहन और अधिकाधिक की होड़ उनकी आवश्यकताओं को पूरा ही नहीं होने देती। एक कार से दो कार की कामना उन्हें गरीब अनुभव कराती है। कमरे-कमरे में रेडियो और ऊँचे से ऊँचे होटल, नाचघर अथवा मनोरंजन की हिर्स उनकी आर्थिक कठिनाई को इस हद तक बढ़ा देती है कि जिसकी पूर्ति असम्भव हो जाती है और व्यक्ति अपने को असफल कर जीवन से निवृत्त हो जाता है। आस-पास का भोग-वैभव से भरा कृत्रिम वातावरण उसे जीने ही कब देता है।

शराब जहाँ साक्षात विष है वहाँ ‘खाओ पियो और मौज करो’ के सिद्धान्त का एक अनिवार्य अंग है। जीर्ण भोगों को नवीन बनाने, जीवन में रस लाने और असफल प्रेम की पीड़ा भुलाने के लिये भौतिकवादियों के पास शराब के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय ही नहीं होता। निदान हर्ष-शोक, जिन्दगी तथा मनोरंजन के लिये शराब को अनिवार्यता देने से शरीर एवं मस्तिष्क की स्थिति इतनी कमजोर हो जाती है कि जीवन बोझ लगने लगता है और तब एक छोटी-सी भी अप्रियता आत्महत्या के लिये प्रेरित कर देती है।

नास्तिकता अथवा ईश्वर के प्रति अनास्था, ऐसा कौन देती। जिसे आत्मा-परमात्मा में विश्वास होता है वह उसके आधार पर संसार में सब ओर से निराधार होकर भी जिन्दगी की नाव पार निकाल ले जाता है। जिन अभागों के पास यह आधार नहीं होता उनकी जिन्दगी टूटी नाव की तरह एक छोटी-सी लहर से ही अतल में बैठ जाती है। अनीश्वरवारी तनिक सी बात पर इतनी बड़ी सीमा तक निराश, निरुत्साह, नीरस तथा निरुपाय हो जाता है कि उसे आत्महत्या ही एकमात्र ऐसा उपाय सूझता है जिसके आधार पर वह शान्ति पा जाने की आशा करता है।

कहना न होगा कि भौतिक भोगवाद मनुष्य-जीवन के लिये बड़ा भयानक विश्वास है। भौतिक आवश्यकताओं के साथ आध्यात्मिक आस्था ही जीवन को सुखी, शान्त तथा सम्पन्न बना सकती है।


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