सहानुभूति, मनुष्य का दैवी गुण

December 1966

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सहानुभूति मनुष्यता का एक विशेष लक्षण है। दूसरे की वेदना को अनुभव कर सकना, दुःख से दयार्द्र हो सकना मनुष्य का ही अधिकार है। यह विशेषता किन्हीं अन्य प्राणियों में नहीं पाई जाती । सहानुभूति से रहित मनुष्य को उसकी संज्ञा के अनुरूप नहीं समझा जा सकता। यह केवल मनुष्य ही है जो किसी प्राणी की पीड़ा देखकर हृदय भर लेता है। एक पशु किसी दूसरे का दर्द कदाचित अथवा दुःख से कराहते दूसरे पशु को देखता हुआ भी यथावत या तो खड़ा रहता है अथवा चराता रहता है।

सहानुभूति मनुष्य के हृदय में निवास करने वाली वह कोमलता है जिसका निर्माण संवेदना, दया, प्रेम तथा करुणा के सम्मिश्रण से होता है। सहानुभूति केवल एक कोमल अनुभव ही नहीं है जिसे कि कोई हृदयवान अपने अन्दर तरंगित होता हुआ पाता है। बल्कि यह आत्मा की निःशब्द भाषा भी है जिसे संसार का प्रत्येक प्राणी सहज ही समझ लेता है। किसी पीड़ित पशु-पक्षी को प्रेम से देखिये, पुकारिए या उस पर हाथ फेरिये वह आपके इस भाव को तत्काल समझ लेगा और आपसे एकात्मकता का अनुभव करने लगेगा सहानुभूति के आधार पर अनजान एवं अबोध प्राणी तक अपने बन जाते हैं।

इस गुण का आधिक्य किसी भी मनुष्य को ऊँचा उठा देता है। उसमें दैवी अनुभूतियों का समावेश होने लगता है। सहानुभूति की अधिकता के कारण कवि और कलाकार अन्य साधारण कोटि के लोगों से अलग और ऊपर माने जाते हैं। उनकी रचनायें सहज ही दूसरों का हृदय हरण कर सकने में समर्थ होती हैं। सहानुभूति रहित रचना प्राण-हीन रहकर किसी को आकर्षित कर सकने में असमर्थ होती है। इस गुण की एक विशेषता यह भी है कि जहाँ सहानुभूति प्रधान हृदय के मूल भावों को कोई दूसरा सहज ही अनुभव कर लेता और समझ लेता है वहाँ सहानुभूति एवं संवेदनशील मनुष्य दूसरे के हृदय की बात अपने हृदय में अनुभव कर लेता है। उसे बिल्कुल वैसा ही अनुभव होता है जैसा कि वह अनुभव करता है जिसके लिए सहानुभूति का भाव जाग्रत हुआ होता है। सहानुभूति की भावात्मकता को व्यक्त करते हुये ह्विटमैन ने एक स्थान पर लिखा है—

“मुझे किसी पीड़ित व्यक्ति से यह पूछने की आवश्यकता नहीं पड़ती कि वह अपने में कैसा अनुभव कर रहा या उसे कैसा लग रहा है, बल्कि मैं ठीक उसी की भाँति पीड़ित हो उठता हूँ और उसकी वेदना को अपने अन्दर अनुभव करने लगता हूँ।”

कहना न होगा कि इस प्रकार की तद्रूपता, एकात्मकता अथवा संवेदना का भाव ही सच्ची सहानुभूति है। आज की सभ्यता में सहानुभूति प्रदर्शन करने का एक रिवाज चल पड़ा है। लोग पीड़ित अथवा दुःखी व्यक्ति के पास जाकर उसकी वेदना, दुःख अथवा दर्द के विषय में पूछताछ करते हैं। सहानुभूति व्यक्त करने का यह शाब्दिक कर्तव्य वास्तविक सहानुभूति नहीं हैं। सच्चे सहानु भावक को किसी का दुःख-दर्द पूछने की आवश्यकता नहीं होती वह पीड़ित को देखते ही उससे तादात्म्य अनुभव करने लगता है और उसके हृदय से स्नेह का अजस्र स्रोत निकल कर चुपचाप पीड़ित को शान्ति एवं सान्त्वना देने लगता है।

कृत्रिम सहानुभूति का प्रदर्शन करना किसी के प्रति निर्दयता व्यक्त करना ही है। किसी की पीड़ा को स्वयं अनुभूत न करने वाला जब उसकी वेदना के विषय में पूछताछ करता है तब वह यही प्रकट करता है कि सच्चा अनुभावक नहीं है।

आये दिन लोग लेखों, भाषणों तथा समाजों में मानव जाति, देश, राष्ट्र तथा समाज के पीड़ित, दुःखी व्यक्तियों के लिए सहानुभूति का प्रदर्शन करते रहते हैं किन्तु क्या वे वास्तव में सहानुभावक होते भी हैं? इस प्रकार की कृत्रिम सहानुभूति दिखलाने वाले व्यक्ति अन्दर से बड़े ही कठोर तथा चतुर होते हैं। वे अपनी मौखिक सहानुभूति के आधार पर दूसरों की सद्भावना को ठगने का प्रयत्न किया करते हैं।

अनेक लोग बाहर समाज में जन-जन के प्रति सहानुभूति, संवेदना, स्नेह, सौहार्द्र, दया तथा दाक्षिण्य का भाव बात-बात में दिखाया करते हैं। ऐसा मालूम होता है कि इनका हृदय हमेशा दूसरों की पीड़ा से ही भरा रहता है। पर क्या वे वास्तव में वैसे होते हैं? बाहर दया, विनम्रता, सहानुभूति अथवा कोमलता दिखलाने वाले यदि अपने घरों में पत्नी को डांटते, बच्चों को मारते-पीटते, अपने आश्रितों के प्रति आक्रमण भाव दिखाते और कठोर व्यवहार करते हैं तो निश्चय ही वे मिथ्याचारी ही हैं। ऊपर से कितने ही कमल-कोमल क्यों न दीखते हो अंदर पाषाण ही होते हैं। ऐसे लोगों का कोई भी भद्र अथवा आर्द्र भाव विश्वास के योग्य नहीं होता।

इस प्रवृत्ति के नकली अनुभावकों के प्रति विद्वान इमर्सन ने एक स्थान पर लिखा है कि ‘इन बाहरी लोगों के लिए प्रेम करना सीखें, पत्नी से प्रेम का व्यवहार करें, आश्रितों तथा पड़ोसियों को अपनी विनम्रता से शीतल बनाएं, अपने हृदय का परिमार्जन कर मानसिक गरिमा का भाव जगायें। अन्य लोगों के साथ नकली सहानुभूति दिखलाने से कहीं अच्छा है कि वे पहले अपने तथा अपनों के प्रति सहानुभूति का अभ्यास करें और मानवता के उदात्त गुणों को अपने अन्दर विकसित करने का ईमानदारी से प्रयत्न करें। कृत्रिम सहानुभूति न तो किसी का भला कर सकती है और न उनको समाज का विश्वास दिला सकती है।”

सच्ची सहानुभूति का परिसार सीमित नहीं होता। जो यथार्थ रूप में संवेदनशील है सहानुभावक है वह आत्मीयजनों के प्रति ही भद्र एवं भावपूर्ण न रह कर संसार के प्रत्येक प्राणी के प्रति संवेदनशील रहता है। उसकी करुणा, कोमलता तथा दयार्द्रता स्री, पुरुष, जड़-चेतन, राष्ट्र, धर्म, काले-गोरे, ऊँच-नीच, निर्बल तथा बलवान में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं मानती। समान रूप से सबके लिए प्रवाहित होती रहती है। ऊँचे हृदय और सच्ची सहानुभूति वाले लोग तो शत्रु की विपत्ति से भी विचलित होकर उसकी सहायता करने के लिए उत्सुक हो उठते हैं।

मात्र हृदय की भावुकता तक ही सीमित रहने वाली सहानुभूति भी अधिक सराहनीय नहीं मानी जा सकती। सजीव होते हुए भी वह जड़ प्रतिक्रिया ही मानी जायेगी। सराहनीय सहानुभूति का भाव वही है जो हृदय में उठते ही क्रिया रूप में गतिशील होने लगे। किसी की पीड़ा देखकर यों ही किंकर्तव्यविमूढ़ होकर खड़े-खड़े आहें भरते रहना अथवा आँसू बहाते रहना कोरी भावुकता है सार्थक सहानुभूति नहीं। यह भावुकता तभी सहानुभूति—सच्ची सहानुभूति—अथवा संवेदना की श्रेणी में आ सकती है जब पीड़ित की पीड़ा दूर करने के लिये यथासाध्य कुछ किया भी जाये। निश्चय ही वह व्यक्ति सच्चा सहानुभावक तथा संवेदनशील है जो किसी की चोट देखकर उसी प्रकार तड़प उठे जिस प्रकार वह पीड़ित तड़पा है और उसी प्रकार आप से आप तकलीफ दूर या कम करने का प्रयत्न करने में लग जाये जिस प्रकार चोट खाया व्यक्ति बिना बाह्य प्रेरणा से आप से आप लग जाता है।

मनुष्य में सहानुभूति एक ऐसा गुण है जो विकास एवं सार्थकता पाकर उसे देवत्व के स्तर तक पहुँच सकता है। सहानुभूति की ऊष्मा पत्थर को भी पिघला कर मोम बना देती है और उसकी शीतल तरंगें शोक से जलते हृदयों में जीवन का संचार कर देती है। सहानुभूति एवं संवेदना के बल पर मनुष्य परायों को अपना बना लेता है। कठोर को कोमल और निर्दयी को दयावान बना लेना सहानुभूति-हृदयी व्यक्ति के लिए किसी भी व्यक्ति की अपेक्षा अधिक सरल तथा सुगम है। बहुत बार देखा जा सकता है कि कम योग्यता का संवेदनशील व्यक्ति दूसरों के बीच उस अधिक योग्यता वाले व्यक्ति से अच्छा स्थान बना लेता है जो असंवेदनशील अथवा सहानुभूति से रहित होता है सहानुभूति प्रधान व्यक्तियों के प्रति लोग उसी प्रकार खिंचते चले आते हैं जिस प्रकार चन्द्रमा की किरणों की ओर समुद्र की तरंगें खिंचा करती हैं।

सहानुभूति कोई दुर्लभ गुण नहीं है। यह तो मनुष्य को नैसर्गिक रूप में यों ही मिल जाता है और यदि एक बार इसकी कमी का आभास हो तो विकसित भी किया जा सकता है। स्वार्थ, लोभ तथा दम्भ की भावना त्याग देने और उसके स्थान पर सेवा, सहयोग तथा विनम्रता को स्थान देने से सहानुभूति का गुण अभावुक हृदय में भी उत्पन्न हो सकता है? दूसरे की पीड़ा उसका हर्ष और सुख-दुख को अपना मान कर चलने और व्यवहार करने वाले सहज ही संवेदनशील बन जाया करते हैं। एक बार यदि सहानुभूति का भाव हृदय में जाग गया तो यही समझना चाहिये कि हमारे आत्म-कल्याण का द्वार उन्मुक्त हो गया। इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुये प्रसिद्ध विद्वान बालजक ने एक स्थान पर कहा है—

“सहानुभूति गरीबों तथा पीड़ियों के प्रति खींचती है। उनकी भूख तथा पीड़ा अपनी भूख तथा पीड़ा अनुभव होती है। सहानुभूति का आर्द्र भाव अनुभावक को तद्रुप बना देता है। दीन दुःखी को देख वह उस समय तक स्वयं भी दीन दुःखी बना रहता है जब तक कि उसका दुःख-दर्द दूर करने के लिए कुछ कर नहीं लेता। किसी की सेवा सहायता में किया हुआ अपना काम वह परमात्मा की उपासना में किया कर्तव्य ही मानता और ऐसा ही अनुभव करता है। प्राणीमात्र से इस प्रकार की एकात्मता अध्यात्म योग की वह कोटि है जो बड़े-बड़े जप, तप तथा साधना-उपासना से भी कठिनता पूर्वक पाई जा सकती है।”

साँसारिक सफलता, आत्मा-शान्ति तथा आध्यात्मिक लाभों के लिये सहानुभूति का भाव अमोध उपाय है। इससे अपनी जेब से खर्च तो कुछ भी नहीं होता किन्तु इसके बदले में जो प्रेम, आशीर्वाद तथा आर्द्रता प्राप्त होती है वह कुबेर के कोष से भी बढ़ कर है। सहानुभूति देना और पाना प्राणीमात्र का कर्तव्य तथा अधिकार है। हम अपनी वेदना सहानुभूति पाने के लिए दूसरे के सामने व्यक्त करते हैं। बच्चा सहानुभूति पाने के लिए अपनी चोट दिखलाता है। सहानुभूति पाने के लिए ही लोग अपनी हानियों तथा हृदय की पीड़ाओं को दूसरों के सामने खोलकर रखते हैं। ऐसी दशा में यदि हम परस्पर सहानुभूति का आदान-प्रदान नहीं करते तो सच्चे अर्थों में मनुष्य कहलाने के अधिकारी नहीं हैं।


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