गीत संजीवनी-5

देवत्व को बचाने

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देवत्व को बचाने, संघर्ष भी किये हैं।
हमने दधीचि बनकर, निज प्राण तक दिये हैं॥

अज्ञान के तिमिर में, जब जग भटक रहा था।
विज्ञान की प्रगति का पहिया अटक रहा था॥
तब ज्ञान के दिवाकर, हमने उगा दिये हैं॥
संस्कृति महान अपनी, थे विश्व के गुरू हम।
रुकता जहाँ जमाना, होते वहाँ शुरू हम॥

अपने लिये न केवल, जग के लिये जिए हैं॥
भूलें न आत्मगौरव, की उस परम्परा को।
बंजर नहीं बनायें रत्नों की उर्वरा को॥
भगवान आ गये तो, हनुमान भी दिये हैं॥
विकृत- विचार विष से, फिर जल रही मनुजता।

देवत्व डर रहा है, खुश हो रही दनुजता॥
विष से उसे बचाने, संकल्प शिव किये हैं॥
फिर से मनुज हृदय में, देवत्व हम भरेंगे।
फिर स्वर्ग इस धरा पर, हम अवतरित करेंगे॥
साहस नहीं मरेगा, संजीवनी पिये हैं॥

मुक्तक-

याद करें उन ऋषि- मुनियों को, जिनने निज अस्थियाँ गला दीं।
तन,मन, जीवन किया समर्पित, खुद घृत बनकर ज्योति जला दी॥

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