तुम्हें आत्म मन्दिर की प्रतिमा बनाकर।
चले युग समर में स्वयं को मिटाकर॥
स्वजन छोड़ जायें हम मिट क्यों न जायें।
मगर पूर्ण हो तेरी आकांक्षायें।
अँधेरा मिटाये हृदय निज जलाकर॥
नहीं सूखता जिनकी आँखों का पानी।
सुनायेंगे हम उनको तुम्हारी कहानी।
हँसी लायें होठों पर उदासी हटाकर॥
कि छाले भरे हैं हुए पाँव भारी।
घिरी आ रही मौत सी रात कारी।
उन्हें दें नई जिन्दगी जगमगाकर॥
तुम्हीं मेरे स्वामी गुरुवर तुम्हीं मेरे ईश्वर।
तुम्हीं एक सर्वस्व है पूज्य गुरुवर।
चरण धूलि माथे पर तेरी लगाकर॥
हुआ अवतरण गुरुवर, क्यों है तुम्हारा॥
वसंती पवन का यही है इशारा।
बने श्रेष्ठ शुचि भाव गंगा बहाकर॥