गीत संजीवनी-5

तरुणाई को ज़माना

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तरुणाई को ज़माना आवाज़ दे रहा है।
रे! वक्त का फसाना आवाज़ दे रहा है॥

आजाद राष्ट्र जैसे, हालात तो नहीं हैं।
दिल औ दिमाग वैसे, दिखते नहीं कहीं हैं॥
तरुणों! शहीद- बाना आवाज़ दे रहा है॥

चिन्तन नहीं स्वदेशी, है आचरण कहीं भी।
अप संस्कृति के द्वारा, होता है अतिक्रमण भी।
बलिदान का तराना, आवाज़ दे रहा है॥

आजादी की अब नजरें, तुम पर टिकी हुई हैं।
गाथा तुम्हारे द्वारा, उसकी लिखी हुई है।
उस जोश का खज़ाना, आवाज़ दे रहा है॥

सुर संस्कृति को आशा, तुमसे बँधी हुई है।
क्योंकर तुम्हारे रहते? भाषा रुँधी हुई है।
धड़कन का धड़धड़ाना, आवाज़ दे रहा है॥

अब कीमती आजादी, तुमको ही बचाना है।
दिग्विजय- देवसंस्कृति को, कदम बढ़ाना है।
महाकाल का निशाना, आवाज़ दे रहा है॥

मुक्तक-

जवानों! यह ज़माना अब तुम्हें आवाज़ देता है।
सुनों! वह त्यागवादी, संस्कृति का दर्द कहता है॥
सभी पर हो रही है, भोगवादी संस्कृति हावी।
तुम्हें क्या दर्द संस्कृति का, सुनाई नहीं देता है?॥
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