युग यज्ञ पद्धति

आरती

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 प्रेरणा- आरती, परमात्मा से- आर्तभाव से की गई प्रार्थना है। आरती की ज्योति आत्मा की प्रतीक होती है। आत्मचेतना को परमात्म चेतना के प्रति समर्पित रहना चाहिए। अपने क्रिया-कलापों को परमात्मा के आस-पास, उनके अनुशासनों की मर्यादा में ही चलाना-घुमाना चाहिए। देवदूत, महापुरुष वही व्यक्ति होते हैं, जो अपनी जाग्रत् प्रतिभा, आत्म ज्योति को ईश्वरीय अनुशासनों के अनुरूप ही चलाते रहते हैं। उन्हें परमात्मा की समीपता का अनुभव बराबर होता रहता है। श्रेष्ठ विचार एवं श्रेष्ठ आचरण के लिए शक्ति प्रवाह के रूप में उन्हें परमात्मा की अनुकम्पा सतत मिलती रहती है। हम भी अपनी प्रतिभा भगवान् को सौंप कर महान् बन सकते हैं।

 क्रिया और भावना- आरती तैयार करें। प्रतिनिधि उसे लेकर देव मंच के पास पहुंचें। जिन याजकों के पास दीप यज्ञ की थालियां हैं, वे जलते दीपकों सहित उन्हें उठाकर बैठे-बैठे ही आरती करें। नीचे लिखे अनुसार भावना हृदय में धारण कर आरती बोलें—

‘‘हे ईश्वर! हम महापुरुषों से प्रेरणा लेकर आपके प्रति समर्पित जीवन जीना सीखें। आपके अनुशासन में हमारा श्रम, समय, प्रभाव, ज्ञान, धन सभी चलें और धन्य बनें। हम भी महापुरुषों की तरह ऊपर उठें और आपकी समीपता का अनुभव करते रहें।’’

ॐ यं ब्रह्मवेदान्तविदो वदन्ति, परं प्रधानं पुरुषं तथान्ये ।
विश्वोद्गतेः कारणमीश्वरं वा, तस्मै नमो विघ्नविनाशनाय ।
ॐ यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः, स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवैः, वेदैः सांगपदक्रमोपनिषदैः, गायन्ति यं सामगाः ।
ध्यानावस्थित-तद्गतेन मनसा, पश्यन्ति यं योगिनो, यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणाः, देवाय तस्मै नमः ।।

 ईश्वर को समर्पित व्यक्तियों से प्रेरणा प्राप्त करने के भाव से आरती ली जाय, उसमें अपना सहयोग देने की भावना से अंशदान चढ़ाया जाता है।
 (आरती सबके पास घुमाते रहें, हिन्दी की आरती गाते रहें।)
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