दीप यज्ञ के लिए श्रद्धालु याजकों को तैयार किया जाए। उन्हें समझाया जाय कि समस्याओं के विनाशकारी बादलों को छांटने के लिए, उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए स्थूल प्रयासों के साथ-साथ आध्यात्मिक-भावनात्मक पुरुषार्थ भी आवश्यक है। सभी धर्मों में सामूहिक प्रार्थना, सामूहिक साधनात्मक प्रयोगों को अधिक प्रभावशाली माना गया है। मनुष्यता को विनाश से बचाकर उज्ज्वल भविष्य की ओर ले जाने के लिए ईश्वरीय संकल्प उभरा है। अपनी आत्म चेतना, भावना, विचारणा और कार्यकुशलता को ईश्वरीय प्रयोजन के साथ जोड़ने के लिए ही दीपयज्ञ का सामूहिक-आध्यात्मिक प्रयोग किया जाता है। हर भावनाशील, विचारशील, जनहित चाहने वाले को इसमें भावनापूर्वक भाग लेना चाहिए।
दीप यज्ञ की विशालता अथवा सफलता का मूल्यांकन दीपकों की संख्या से नहीं, भगवान् के साथ साझेदारी की भावना से जुड़ने वाले याजकों की संख्या के आधार पर किया जाना चाहिए। दीपयज्ञ में सम्मिलित होने के लिए व्यक्तिगत सम्पर्क द्वारा नर-नारियों को उद्देश्य समझाकर, भावनाएं जगाकर सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करना चाहिए। घरेलू-मोहल्ला स्तर के छोटे कार्यक्रमों में केवल चर्चा करने से काम चल जाता है, बड़े कार्यक्रमों के लिए अपना उद्देश्य प्रकट करने वाले पर्चे छपवाकर बांटने, याजक संकल्प पत्र भरवाने की व्यवस्था करना अच्छा रहता है। संकल्प पत्रों के आधार पर बाद में सम्पर्क करके उन्हें सक्रिय बनाना सुगम हो जाता है।
आयोजन की सफलता के लिए विशेष जप, गायत्री मंत्र लेखन, चालीसा पाठ आदि कराना अच्छा रहता है। इससे भावनात्मक एकता बढ़ती है। आत्म विकास और आत्म परिष्कार के लाभ तो इतने व्यापक हैं कि कालान्तर में लोग उनसे अपने आप को धन्य हुआ ही अनुभव करते हैं।
दीप यज्ञ घरों में, पारिवारिक छोटे स्तर से लेकर नगर एवं क्षेत्रीय स्तर तक विशाल रूप में किये जा सकने में सुविधाजनक है। लोगों में उत्साह हो, तो हर याजक अपने साथ दीपक एवं अगरबत्ती (स्टैण्ड सहित) एक थाली या तश्तरी में रखकर ला सकता है। साथ ही रोली, अक्षत एवं फूल भी हों।
यदि ऐसा संभव नहीं, तो आयोजन की विशालता के अनुरूप संख्या में दीप एवं अगरबत्तियां मंच पर अथवा चौकियों-मेजों पर एक साथ सजाकर रखने की व्यवस्था की जाए। उन्हें इस ढंग से सजाया जाए कि प्रज्वलित होने पर सब लोक उन्हें देख सकें।
सम्मिलित होने वालों की संख्या के अनुसार, व्यवस्था के लिए चुने हुए स्वयं सेवक तैयार रखे जायें। उन्हें संचालक के निर्देशों के अनुरूप ठीक समय पर ठीक क्रिया करने का प्रशिक्षण पहले से ही दे दिया जाय। समुचित संख्या में सिंचन के लिए पात्र, रोली, अक्षत, पुष्प, कलावा आदि रखे जायें। उनके उपयोग का सही समय और सही ढंग स्वयं सेवकों को समझा दिया जाए। ऐसा करने से कर्मकाण्ड का प्रवाह टूटता नहीं और वातावरण अधिक प्रभावशाली बन जाता है।
प्रारंभ में एकाध कीर्तन या गीत करवा कर, वातावरण में शान्ति एवं सरसता पैदा करके कर्मकाण्ड प्रारम्भ करना अच्छा रहता है। प्रेरणाप्रद टिप्पणियों, गीतों, क्रिया निर्देशों तथा कर्मकाण्ड आदि का विस्तार समय और परिस्थितियों के अनुरूप विवेक के आधार पर किया जाए। पुस्तिका में आवश्यक सूत्र-संकेत दिये गये हैं। समय और वातावरण के अनुरूप उनका संक्षेप या विस्तार किया जा सकता है। ध्यान रखा जाए कि विवेचन लम्बे या नीरस न होने पायें। यज्ञ के अनुरूप भावनात्मक प्रवाह बना रहे।