युग यज्ञ पद्धति

अग्नि स्थापनाम्

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 प्रेरणा- ऋग्वेद में अग्नि को आराध्य और पुरोहित कहा है। मनुष्य ने अग्नि-ऊर्जा का उपयोग जब से सीखा है, तभी से उसकी प्रगति के अगणित मार्ग खुलते चले गये। अग्नि आराध्य तो है ही, किन्तु साथ ही उसे पुरोहित, प्रगतिशील हित का मार्गदर्शक भी स्वीकार करना होगा। उसकी शिक्षाओं से जीवन का कल्याणकारी उपयोग सम्भव है। यह शिक्षाएं हैं— - अग्नि की गति ऊपर की ओर सहज ही है। अग्नि के सान्निध्य से मनुष्य ऊपर उठना सीख ले, तो पतन का प्रश्न ही न उठे। - अग्नि स्वयं प्रकाशित है। मनुष्य अपनी प्रज्ञा को जाग्रत रखे, तो अन्धकार-अज्ञान में भटकने की स्थिति ही न बने। - अग्नि से गर्मी-ऊर्जा निकलती है। मनुष्य अपने अन्दर प्रतिभा जाग्रत् कर ले तो दीन-हीन क्यों रहे? अग्नि में मिलकर हर पदार्थ अग्नि रूप हो जाता है। हम भी ऊपर उठने, प्रकाश और ऊर्जा पैदा करने की प्रवृत्तियां अपने संसर्ग में आने वालों में पैदा कर सकते हैं। -अग्निदेव को जो कुछ प्राप्त होता है, वह सब में समान रूप से वितरित कर देते हैं—अपने लिए कुछ बचाकर रखने की प्रवृत्ति अग्नि की नहीं है। हम भी संग्रह के स्थान पर वितरण की वृत्ति अपनाएं। अग्नि स्थापना के साथ अपने अन्दर इन्हीं सत्प्रवृत्तियों की स्थापना की प्रार्थना की जाती है। दीपक-अगरबत्ती की तरह हम भी तेजस् को धारण करने में समर्थ हों।

क्रिया और भावना- मंत्रोच्चार के साथ दीपक-अगरबत्ती जलायें। मंच पर स्वयं सेवक अगरबत्तियों को क्रमशः जलायें, ताकि अंत तक क्रम चलता रहे। यदि याजकों के पास थाली में दीपक-अगरबत्ती हैं, तो वे भी दीपक और अगरबत्ती जलायें। दीपक में घृत डालते रहने का क्रम बनाये रखें। अग्नि स्थापना के समय भावना करें- - हे अग्नि देव! हमें ऊपर उठाना सिखायें। - हमें प्रकाश से भर दें। - हमें शक्ति सम्पन्न बनायें। - हमें आपके अनुरूप बनने तथा दूसरों को अपने अनुरूप बनाने की क्षमता प्रदान करें। - हम भी अपनी तरह सुगन्धि और प्रकाश बांटने लगें।

ॐ अग्ने नय सुपथा राये, अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् । युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो, भूयिष्ठां ते नमऽउक्तिं विधेम।
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