आधि भौतिक-आदि दैविक एवं आध्यात्मिक क्षेत्रों में उपजने वाली अनेकानेक विपत्तियां मनुष्य को संत्रस्त करती रहती हैं। उनके नाम-रूप अनेक होते हुए भी उद्गम एक ही होता है—अन्तःकरण पर कषाय-कल्मषों का आवरण, आच्छादन। समुद्र एक ही है किन्तु उसमें जीव-जन्तु अनेक आकार प्रकार के उत्पन्न होते रहते हैं। अन्तराल एक है किन्तु उसमें सत्प्रवृत्तियों की सुखद-दुःखद सम्भावनाएं चित्र-विचित्र रूप में प्रकट होती रहती हैं, उसी क्षेत्र का अवांछनीय उत्पादन मनुष्य को आधि-व्याधियों से भर देता है और प्रगति के मार्ग में पग पग पर अवरोध उत्पन्न करता है।
बहुत समय पहले शारीरिक रोगों को बाहरी भूत-पलीतों का आक्रमण माला जाता था। पीछे वात, पित्त, कफ, ऋतु का प्रभाव उन्हें माना गया। उसके बाद रोग कीटाणुओं के आक्रमण की बात समझी गई। रोगों का अगला चरण यह बना कि आहार की विकृति से पेट में सड़न पैदा होती और उस विष के अनुसार ऐसे व्यक्तियों में सामान्य मनुष्य की तरह एक नहीं, अपितु दो भिन्न-भिन्न दृश्य जगतों का अनुभव होता है।
मनोविज्ञानियों ने व्यक्तित्व के अन्तर्द्वन्द्व को समस्त मनोविकारों एवं मनोरोगों की जड़ माना है। आधुनिक मनोविज्ञान व्यक्तित्व की परतों के अध्ययन, विश्लेषण तक सीमित है। अंतर्द्वंद्वों की समाप्ति किस प्रकार हो? इसके लिए इतना कहकर चुप हो जाता है कि परस्पर दो व्यक्तियों के रूप में विघटित मानवी सत्ता में एक्य स्थापित किया जाय तभी द्वन्द्वों से छुटकारा पा सकना सम्भव है। दूसरा व्यक्तित्व क्यों विकसित हो जाता है जो मनुष्य को दुष्प्रवृत्तियों में, अनैतिक गतिविधियों में निरत करता है। इस दिव्य द्वन्द्वात्मक स्थिति से छुटकारे के लिए कोई ठोस उपाय मनोविज्ञान ही बताता। आध्यात्म मनोविज्ञान की मान्यताएं इस गुत्थी को सुलझाने में सहयोग देती हैं।
आध्यात्म मनोविज्ञान का कहना है कि मानवी अन्तःकरण की संरचना दैवी तत्वों से मिलकर हुई है। अन्तःकरण अंतरात्मा का क्रीड़ा क्षेत्र है। यहां से सदा सत्प्रेरणाएं उभरती रहती हैं। अन्तःकरण की सद्प्रेरणाओं की उपेक्षा, अवहेलना करने तथा दुष्कृत्यों में निरत होने से अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति उत्पन्न होती तथा मनुष्य को त्रास देती है। मनुष्य की मूलभूत सत्ता दैवी तत्वों से युक्त है तो क्यों कर कोई दुष्कर्मों की ओर आकृष्ट होता है? आध्यात्म विज्ञानी इसका कारण कर्मों के संस्कार को मानते हैं। जन्म-जन्मान्तरों के पशुवत् संस्कार ही मानवी चेतना पर छाये रहते हैं। उनके अनुसार अचेतन परतों में जड़ तक गहरी जमी यह कालिमा ही द्विविभाजित व्यक्तित्व को जन्म देती है।
अब तो मनोविज्ञान के क्षेत्र में हुई शोधों से नये-नये तथ्य सामने आये हैं। उनसे पता चलता है कि शरीर की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष क्रियाओं पर पूरी तरह मानसिक अनुशासन ही काम करता है। अचेतन मन की छत्र-छाया में रक्ताभिषरण, आकुंचन-प्रकुंचन, श्वास-प्रश्वास, निमेष-उन्मेष, ग्रहण-विसर्जन, निद्रा-जाग्रति आदि की अनैच्छिक कहलाने वाली क्रियाएं चलती रहती हैं। चेतन मन के बुद्धिपूर्वक किये जाने वाले क्रिया-कलापों और लोक व्यवहारों से रोग उत्पन्न होते हैं। यह क्रम अधिकाधिक गहराई में प्रवेश करने का, अधिक बुद्धिमत्ता का, स्थूल से सूक्ष्म में उतरने का है। इस प्रगतिक्रम में उतरते-उतरते इन दिनों आरोग्य शास्त्र के मूर्धन्य क्षेत्र में इस तथ्य को खोज निकाला गया है कि शारीरिक रोगों के संदर्भ में आहार-विहार, विषाणु आक्रमण आदि को तो बहुत ही स्वल्प मात्रा में दोषी ठहराया जा सकता है, रुग्णता का असली कारण व्यक्ति की मनःस्थिति है। मनोविकारों की विषाक्तता यदि मस्तिष्क पर छाई रहे तो उसका अनुपयुक्त प्रभाव नाड़ी संस्थान के माध्यम से समूचे शरीर पर पड़ेगा। फलतः दुर्बलता और रुग्णता का कुचक्र बढ़ते-बढ़ते अकाल मृत्यु तक का झंझट खड़ा कर देगा। नये अनुसंधान जीवन शक्ति का केन्द्र हृदय को नहीं मानते हैं। रक्त की न्यूनाधिकता या विषाक्तता को रुग्णता का उतना बड़ा कारण नहीं माना जाता जितना कि मानसिक अवसाद एवं आवेश को। नवीन अनुसंधान बताते हैं कि जो भी व्यक्ति अपने पापों को छिपाता है, उसके मस्तिष्क में ग्रन्थियां स्वतः पनपने लगती हैं एवं वह द्विविभाजित व्यक्तित्व (डबल पर्सनालिटी) जैसे मनोविकारों का शिकार हो जाता है।
एक शरीर में दो परस्पर विरोधी व्यक्तित्व का होना शरीर शास्त्रियों के अनुसार हर दृष्टि से हानिकारक सिद्ध होता है तथा अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न करता है।
श्री एस. के डायमाड नामक विद्वान एवं न्यूरोसाइक्लोजी विशेषज्ञ ने एक पुस्तक लिखी है—‘इन्ट्रोड्यूसिंग न्यूरोसाइक्लोजी।’ पुस्तक में बताया गया है कि किन्हीं-किन्हीं व्यक्तियों के मस्तिष्क में व्यक्तित्व की दो परतें विकसित हो जाती हैं तथा स्वतंत्र रूप से अलग-अलग व्यक्तियों का परिचय देती हुई काम करने लगती हैं। सामान्यतया मनुष्य के दृष्टितंत्र की कार्यप्रणाली दोनों सेरिब्रल-हेमीस्फियर के संयुक्त प्रयास में काम करती है, पर किन्हीं-किन्हीं में दाहिने और बांयें सेरिब्रल हेमीस्फियर्स तालमेल नहीं बिठा पाते और वे स्वतंत्र तथा परस्पर एक दूसरे के विरोधी आचरण का परिचय देने लगती हैं। शरीर की परोक्ष और प्रत्यक्ष क्षमता पूरी तरह अचेतन और चेतन कहे जाने वाले मनःसंस्थान के नियंत्रण में रहती है, उसी के आदेशों का पालन करती है। शरीर का पूरा-पूरा आधिपत्य मनःमस्तिष्क के ही हाथों में रहता है। उस क्षेत्र की जैसी भी कुछ स्थिति होती है उसका प्रभाव शरीर पर पड़ता है। यदि मस्तिष्क आवेशग्रस्त होगा तो शरीर के अवयवों में उत्तेजना और बेचैनी छाई रहेगी। इस स्थिति में ऐसे रोग उत्पन्न होंगे जिनसे शरीर के उत्तेजित होने, टूटने-फूटने जैसे अवसाद का प्रभाव अंग अवयवों की दुर्बलता के रूप में देखा जा सकेगा।
यह मोटा निष्कर्ष हुआ। बारीकी में उतरने पर पता चलता है कि अमुक शारीरिक रोग, अमुक मनोविकास के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं और वे तब तक बने ही रहते हैं, जब तक कि मानसिक स्थिति में कारगर परिवर्तन न हो जाय। इस अनुसंधान ने उस असमंजस को दूर कर दिया है जिसके अनुसार रोगियों को चिकित्सकों के दरवाजे पर ठोकरें खानी पड़ती हैं। नित नव दवाएं बदलनी पड़ती हैं। किन्तु आशा, निराशा के झूले में झूलते हुए समय भर बीतता रहता है। रोग हटने का नाम ही नहीं लेते। तेज औषधियां अधिक से अधिक इतना कर पाती हैं कि बीमारी के स्वरूप और लक्षण में थोड़ा-बहुत फेर बदल प्रस्तुत कर दें। जीर्ण रोगियों में से अधिकांश का इतिहास यही है।
शरीरशास्त्री अब इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि आरोग्य और रुग्णता की कुंजी मनःक्षेत्र में सुरक्षित है। मानसिक असंतुलन और प्रदूषण का निराकरण किये बिना किसी को भी स्वयं शरीर का आनंद नहीं मिल सकता। जीवनी शक्ति का पिछले दिनों बहुत गुणगान होता रहा है। उसे प्राप्त करने के लिए आकाश-पाताल के कुलावे भी मिलाये जाते रहे हैं। टानिकों, हारमोनों और ग्रन्थि आरोपणों जैसे प्रयोग-परीक्षण की भरमार रही है। किन्तु गरीबों की बात तो दूर कोट्याधीश, शासनाध्यक्ष एवं स्वयं चिकित्सकों तक को उस प्रयास में कुछ पल्ले न पड़ा। अब यह निष्कर्ष निकला है कि जीवनी शक्ति कोई शरीरगत स्वतन्त्र क्षमता नहीं है वरन् जिजीविषा की मानसिक प्रखरता ही अपना परिचय जीवनी शक्ति के रूप में देती रहती है। मानसिक स्थिति के उतार-चढ़ावों के अनुरूप यह जीवनी शक्ति भी घटती-बढ़ती रहती है। शरीर की बलिष्ठता, सक्रियता, स्फूर्ति ही नहीं कोमलता, सुंदरता और कांति तक मानसिक स्थिति पर अवलम्बित हैं। विपन्नता की मनःस्थिति में भय, शोक, क्रोध आदि के अवसर आने पर तो तत्काल आकृति से लेकर शरीर की सामान्य स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ते प्रत्यक्ष देखा जाता है। यदि मनोविकास जड़ जमा लें तो समझना चाहिए कि शरीर एक प्रकार से विपन्नता में फंस ही गया और उस दलदल से निकल सकना चिकित्सा उपचार के बलबूते की बात नहीं रह गयी है।
शारीरिक रोग प्रत्यक्ष होते हैं। इसलिए उनकी जानकारी भी सहज ही मिल जाती है और दवा दारू से इलाज होने के साधन भी मौजूद रहते हैं। मानसिक रोगों में प्रायः विक्षिप्त, अर्धविक्षिप्त स्तर के लोग गिने जाते हैं जो अपना सामान्य काम-काज चला सकने में असमर्थ हो गये हों, जिनका शरीर निर्वाह और लोक व्यवहार लड़खड़ाने और लटपटाने लगा हो, जो अपने लिए और साथी-सम्बन्धियों के लिए भार बन गये हों। ऐसे रोगियों की संख्या भी लाखों से आगे बढ़कर करोड़ की सीमा अपने ही देश में दूने लगी है। जो विचलित-विक्षिप्त हुए हैं, ऐसे लोगों की संख्या का कोई ठिकाना नहीं जो रोजी-रोटी तो कमा लेते हैं और खाते, सोते समय भी साधारण लगते हैं, पर उनका चिंतन विचित्र और विलक्षण होता है। कितने ही दुष्टता की भाषा में सोचते और हर किसी पर दोषारोपण करते हुए शत्रुता की परिधि में लपेटते हैं। कितने ही आशंकाओं, संदेहों, आक्षेपों के इतने अभ्यस्त होते हैं कि उन्हें अपनी पत्नी, बेटी, बहिन आदि तक के चरित्र पर अकारण संदेह बना रहता है। सम्बन्धियों और पड़ौसियों को अपने विरुद्ध कुचक्र रचते हुए देखते हैं और विपत्ति का पहाड़ अपने ऊपर टूटता ही अनुभव करते रहते हैं। शेखचिल्लियों के से मनसूबे बांधते रहने वाले, सम्भव-असम्भव का विचार किये बिना अपने सपनों की एक अनोखी दुनिया बनाये बैठे रहते हैं। न अपनी पटरी दूसरों के साथ बिठा पाते हैं न किसी और को अपना घनिष्ठ बनने का अवसर देते हैं। परिस्थिति का मूल्यांकन कर सकना, दूसरों की मनःस्थिति और परिस्थिति समझ सकना उनके लिए सम्भव ही नहीं होता है। अटपटे अनुमान लगाते और बेतुके निष्कर्षों पर पहुंचते हैं। विचार जो भी उठें वे एक पक्षीय सनक की तरह बिना किसी तर्क-वितर्क आ आश्रय लिए बेलगाम के घोड़े पर चढ़कर दौड़ते चले जाते हैं। जो सोचा जा रहा है, उसका आधार क्या है और उस सनक पर चढ़े रहने का अन्ततः परिणाम क्या निकलेगा इतना समझ पाना उनके क्षत-विक्षत मस्तिष्क के लिए सम्भव नहीं होगा। अकारण मुंह लटकाये बैठे रहने वाले, जिस-जिस पर दोषारोपण करने वाले को दुर्भाग्य की कुरूप तस्वीरें गढ़ने में देर नहीं लगती, दुनिया को निस्सार बताने वाले, आत्महत्या की बात सोचते रहने वालों की संख्या अपने ही इर्द-गिर्द ढेरों मिल सकती है। हंसी-खुशी से उनका कोई सम्बन्ध नहीं होता। कहीं न कहीं से मुसीबत की कल्पना ढूंढ़ लाते हैं और स्वयं दुःख पाते, साथियों को दुःख देते, जिन्दगी की लाश ढोते रहते हैं। यह सनक कभी-कभी आक्रामक हो उठती है तो जो भी उनकी चपेट में आता है उसे सताने में कसर नहीं छोड़ते। मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्र समझने में उनकी अदूरदर्शिता पग-पग पर झलकती रहती है। ठगों के आये दिन शिकार होते रहते हैं। आयु बड़ी हो जाने पर भी सोचने का तरीका बालकों जैसा ही बना रहता है। किसी महत्वपूर्ण प्रसंग में उनका परामर्श तनिक भी काम का सिद्ध नहीं होता। अपनी कार्य पद्धति को किसी उद्देश्य के साथ जोड़ सकना उनसे बन नहीं पड़ता। जैसे-तैसे समय गुजारते हुए, ज्यों-त्यों करके ही मौत के दिन पूरे कर लेते हैं। इन्हें पागल तो नहीं कह सकते, पर व्यक्तित्व की परख की दृष्टि से उससे कुछ अच्छी स्थिति का भी उन्हें नहीं समझा जा सकता।
विक्षिप्त–अर्धविक्षिप्त और विक्षिप्तता के सन्निकट सनकी लोगों से प्रायः आधा समाज भरा पड़ा है। मूढ़ मान्यताओं, कुरीतियों, अन्धविश्वासों से जकड़े हुए लोगों में तर्कशक्ति एवं विवेक बुद्धि का अभाव रहता है। उनके लिए अभ्यस्त ढर्रा ही सब कुछ होता है। उस लक्ष्मण रेखा से बाहर जाने में उन्हें भय लगता है। स्वतंत्र चिंतन का प्रकाश उनकी आंखें चौंधिया देता है और औचित्य को समझने, स्वीकार करने जैसा साहस उनके जुटाये जुट ही नहीं पाता। इस वर्ग के लोगों को मानसिक दृष्टि से अविकसित नर-पशुओं की श्रेणी में ही रखा जा सकता है।
शरीर से असमर्थों, दुर्बलों और रुग्णों की ही तरह मानसिक पिछड़ेपन और विकारग्रस्तता के दल-दल में धंसे हुए लोगों का ही बाहुल्य अपने समाज में दृष्टिगोचर होता है। यह विक्षिप्तता भी एक प्रकार की बीमारी ही है जिसमें प्राणियों को तिरस्कार, असंतोष, अभाव एवं चित्र-विचित्र प्रकार के दुःख सहने पड़ते हैं।
शारीरिक व्याधियां और मानसिक आधियां जिसे घेरे हुए हैं उन विकृत मस्तिष्क और अस्वस्थ शरीर वाले के द्वारा न कुछ उपयुक्त सोचते बन पड़ेगा और न उचित कर सकना सम्भव होगा। अतएव उनकी अटपटी, कानी-कुबड़ी गतिविधियां किसी महत्वपूर्ण सफलता तक पहुंचने ही न देंगी, सम्बन्धित व्यक्ति उस बेतुके व्यक्ति से खिंचते-खिंचते रहेंगे। फलतः सच्चे सहयोग से भी प्रायः वंचित ही रहना पड़ेगा। मतभेद बढ़ते-बढ़ते शत्रुता और विग्रह तक जा पहुंचता है और आक्रमण, प्रत्याक्रमण के कुचक्र में ऐसे व्यक्ति को भारी घाटा उठाना पड़ता है। प्रगति पथ तो प्रायः अवरुद्ध ही बना रहता है। यह नई विपत्ति शारीरिक और मानसिक रुग्णता की ही देन हैं। दो रंगों के मिलने से तीसरा एक और नया रंग प्रकट हो जाता है। आधि और व्याधि ग्रस्तों को अवरोध और असफलता की तीसरा संकट अतिरिक्त रूप से सहन करना पड़ता है।
इतना सब जान लेने के उपरान्त हमें एक ही निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि चेतना की मूल सत्ता अन्तःकरण को प्रभावित करने वाले नैतिक और अनैतिक विचार एवं कर्म ही हमारी भली और बुरी परिस्थितियों के लिए पूर्णतया उत्तरदायी हैं। इसी उद्गम से हमारे उज्ज्वल भविष्य का आधार खड़ा होता है और यहां से विपत्तियों के जाल गिराने वाली दुखद सम्भावनाएं भी विनिर्मित होती हैं। इस मूल केन्द्र का परिशोधन करना ही एक प्रकार से आंतरिक कायाकल्प जैसा प्रयास है। प्रस्तुत संकटों से छुटकारा पाने और निकट भविष्य में फलित होने वाले संचित प्रारब्धों का निराकरण करने के लिए आंतरिक परिशोधन का प्रयास इतना अधिक आवश्यक है कि उसे अनिवार्य की संज्ञा दी जा सकती है और कहा जा सकता है कि विष वृक्ष की जड़ काटने से ही काम चलेगा, पत्तियां तोड़ने से नहीं। इतना सब कुछ जाते हुए भी व्यक्ति असहाय सा जीवन क्यों जीता है? क्यों स्वयं व्याधियों को आमंत्रित करता है? इस पर अध्यात्म विज्ञानियों का मत है कि अधिकांश व्यक्तियों को दुष्प्रवृत्तियों से उबरने की इच्छा होती है। इसके लिए वे प्रयास भी करते हैं, पर आंधी, तूफान की भांति हठीले कुसंस्कार अपने प्रवाह में बहा ले जाते हैं और अभीष्ट इच्छा मात्र एक कल्पना बनकर रह जाती है। दुष्प्रवृत्तियों से जकड़े जाल-जंजाल से निकलते नहीं बनता। मनःचिकित्सा शास्त्र एवं आधुनिक मनोविज्ञान इस असमंजस की स्थिति से उबरने का कोई ठोस उपाय नहीं सुझाता। अध्यात्म तत्ववेत्ताओं ने इनके लिए तप-तितिक्षा की प्रायश्चित प्रक्रिया को एक समग्र और समर्थ उपचार माना है। मानसिक द्वन्द्वों से उबरने के लिए पूर्व में किये पापों का जहां समर्थ मार्गदर्शन के समक्ष प्रकटीकरण आवश्यक है वहीं यह भी जरूरी है कि जो किया गया है उस भूल के लिए सहर्ष प्रायश्चित भी किया जाय। प्रायश्चित द्वारा ही दुहरे व्यक्तित्व से बन आयी मनोग्रन्थियों का उन्मूलन सम्भव है।
अन्तराल के परिशोधन में उथले उपाय कारगर नहीं होते। उसके लिए अध्यात्म चिकित्सा ही एक मात्र अवलम्बन है। इसमें न केवल विपन्नताओं के निराकरण की सामर्थ्य है वरन् प्रसुप्त श्रेष्ठता को उगाने, उठाने जैसी विशेषताएं भी विद्यमान हैं। इतना ही नहीं उस आधार को अपनाने से जीवन के परमलक्ष्य की, पूर्णता की उपलब्धि एवं ईश्वर प्राप्ति के महान् प्रयोजन को प्राप्त करने का भी पथ प्रशस्त होता है। अध्यात्म क्षेत्र में चिकित्सा परिचर्या एवं बलिष्ठता अभिवृद्धि की दृष्टि से कल्प साधना को असाधारण माना गया है एवं अत्यधिक महत्व दिया गया है।