आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आहार सम्बन्धी कुछ भ्रान्तियां एवं उनका निवारण

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>


आहार से ही जीवन बनता है। अन्न एवं वनस्पतियां हमारे बाह्य कलेवर का प्राण हैं। इनके बिना शरीर रूपी वाहन चल नहीं सकता। प्राण में प्राणशक्ति न हो, हमारा मूल ईंधन ही अपमिश्रित हो तो कलेवर में गति कहां से उत्पन्न हो? आवश्यकता इस बात की है कि अन्न प्राणवान बने, संस्कार दे तथा शरीर शोधन व नव निर्माण की दुहरी भूमिका सम्पन्न करे। खान-पान सम्बन्धी आदतों ने आज अन्न को विकृत तथा शाक-वनस्पतियों को पूरी तरह दूषित कर दिया है। तला-भुना खाने, सुस्वादु भोजन ही लेने की मान्यताओं ने बहुसंख्य व्यक्तियों को रोगी बना दिया है। कुपोषण वही नहीं, जो कम आहार या कैलोरी लेने से होता है, वह भी है जो विकृत आहार लेने से होता है। जिसे भोजन के रूप में अपने प्राकृतिक स्वरूप में ग्रहण किया जाना चाहिए था, उसे ही हम अशुद्ध बनाकर अपनी पाचन क्रिया बिगाड़ते, नाना प्रकार के रोगों तथा जरा को शीघ्र आमंत्रण देते हैं। इन मान्यताओं में परिवर्तन करने के लिए एक प्रकार की विचार क्रांति का ही स्वरूप बनाना होगा।

सभी जानते हैं कि नमक एक प्रकार का विष है। जितना भी शरीर को आवश्यकता है, उतना अपने सहज रूप से अन्न से लेकर वनस्पति तक सभी में यह अनिवार्य तत्व विद्यमान है। उस पर भी यदि ऊपर से लिया जाय तो वह रक्त की सांद्रता बढ़ाकर जीव कोष की क्रियाशीलता घटाता है, जीवन शक्ति को गिराता है तथा शरीर को रोगों का घर बनाता है। नमक में सोडियम क्लोराइड होता है और बाहर से लिए गये इस अतिरिक्त रसायन से से मोर्चा लेने में हृदय, रक्त परिवहन संस्थान तथा गुर्दे को कितना संघर्ष करना पड़ता होगा, इसकी कल्पना सामान्य जन कर भी नहीं सकते। वैज्ञानिकों का कथन है कि बाहर से लिए गये नमक को आहार से हटाकर निश्चय ही उन व्याधियों की संख्या कम की जा सकती है जो व्यक्ति को मृत्यु के मुंह में धकेलती हैं। इनमें उच्च रक्तचाप, दमा, एथेरोस्क्लेरोसिस, कैन्सर जैसी व्याधियां प्रमुख मानी जाती है। जीवनकोष अपने लिए निश्चित मात्रा-अनुपात में आवश्यक तत्वों का आदान-प्रदान ‘सोडियम-पोटेशियम पम्प’ के माध्यम से करते हैं। इन दोनों का झिल्ली की सतह पर आगमन ही ‘सेल’ को विद्युतीय चार्ज से युक्त करना है। इन दोनों का झिल्ली की सतह पर आगमन ही ‘सेल’ को विद्युतीय चार्ज से युक्त करना है। इन आवेशों के कारण ही ‘सेल’ सभी महत्वपूर्ण क्रियायें सम्पन्न कर पाते हैं। अतिरिक्त मात्रा में आया सोडियम जीव कोषों की झिल्ली पर विद्युत रसायन प्रक्रिया को अस्त-व्यस्त कर देता है और धीरे-धीरे इन कोषों की आयु कम होने लगती है। यदि समग्र कायाकल्प ही अभीष्ट है, काया को निरोगी बनाना है, जीवनी शक्ति को जूझने योग्य सामर्थ्यवान् बनाना है तो निश्चित ही इस कृत्रिम विष की आहार में मात्रा को या तो घटाना पड़ेगा या मनोबल दृढ़ हो तो उसे हटाना ही होगा। इससे कमजोरी आने की बात कहना तो मन को झुठलाना भर है। स्वादेन्द्रियों की दृष्टि को महत्व देने वालों की तो बात ही क्या करना? वे तो अपने पक्ष के समर्थन में भांति-भांति के तर्क देते रहते हैं पर विचारशील मनीषी वर्ग यदि मन से विचार करे तो उसे प्रतीत होगा कि आहार में समुचित संशोधन अनिवार्य है। इसके बिना कायाकल्प करना तो दूर, उसका नाम भी नहीं लेना चाहिए।

नमक के अतिरिक्त एक अन्य पक्ष है आहर की विकृति। लोगों की मान्यता कुछ इस प्रकार की है कि जो पदार्थ स्वादिष्ट लगे, जिसका जायका बढ़िया हो, जिसमें घी, तेल-मसाले प्रचुर मात्रा में हों, जिसे देखते ही मुंह में पानी भर आये, वही भोजन ग्रहण करने योग्य है। ऐसे चटोरे लोग खाद्य सामग्री के सारे पोषक तत्वों को नष्ट कर मात्र कार्बन ही खाते हैं। भोजन अग्निहोत्र प्रक्रिया के समान है जिसमें प्रदीप्त जठराग्नि में आहुति दी जाती है। जिस प्रकार यज्ञाग्नि में उपयुक्त-अनुपयुक्त, अशुद्ध और निषिद्ध किसी भी प्रकार की आहुति देने से सुफल की आशा नहीं की जा सकती वरन् हानि एवं दैवी अभिशाप की ही सम्भावना अधिक रहती है उसी प्रकार क्षुधा रूपी ज्वाला में अखाद्य, अशुद्ध, अग्राह्म हवि निश्चित ही रोगों को दिया गया आमंत्रण है जिसे जीवन देवता का अभिशाप भी मान सकते हैं।

इसी प्रकार भोजन का अर्थ किसी तरह पेट को भरना नहीं है। जिस वक्त जो कुछ मिल जाय उल्टा-सीधा, अच्छा-बुरा पेट में डालकर इस पापी की आग बुझाना एक प्रकार से गलत दृष्टिकोण है। भोजन की उपेक्षा करने वाले भी उतने ही निन्दा के पात्र हैं जितने स्वाद के नाम पर विकृत आहार लेने वाले।

यदि पकाने में अग्नि संस्कार कम से कम लिया जाय और मात्र हल्की आग पर खाद्य वस्तुओं को उबालने तक की ही चूल्हे की भूमिका मान ली जाय तो अन्न को, वनस्पतियों को बिगड़ने से काफी कुछ बचाया जा सकता है। तलना, भूनना, एक प्रकार से खाद्य की जीवनी शक्ति को नष्ट कर देना है। उबालने का श्रेष्ठतम तरीका भाप के सहारे पकाने का है। इसमें खाद्य पदार्थों की मूल सामर्थ्य नष्ट नहीं होती। प्रेशर कुकर-सादे कुकर की व्यवस्था से भोजन पक सके तो इससे श्रेष्ठ कोई विधि नहीं। यह पूर्णतः वैज्ञानिक है तथा महत्वपूर्ण घटकों से बिना छेड़छाड़ किये उन्हें परिपाक के योग्य बनाने वाली प्रक्रिया है। शांतिकुंज की कल्प चिकित्सा में इस प्रक्रिया से ही आहार पकाया जाता है। ब्याइलर व्यवस्था से पकाया अन्न पूर्णतः सात्विक, पौष्टिक, सुस्वादु तथा हाइजिनिक होता है, यह सभी जानते हैं व अनुभव भी करते हैं।

आहार विषयक एक और त्रुटिपूर्ण मान्यता है जिसे मात्र सनक ही कहा जा सकता है। थाली में अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थ हों, यह प्रदर्शन करने वाले को सुहा सकता है, आमाशय व आंतों को यह स्वीकार नहीं। कटोरियों व वस्तुओं की संख्या जितनी कम होगी, पेट को उतनी ही सुविधा रहेगी। आमाशय व आंतों का भी अपना कुछ क्रम है। वहां शीघ्र पचने योग्य वस्तुएं तुरन्त अवशोषित हो जाती हैं, कई ऐसी होती हैं जो धीरे धीरे पचती है। यदि ऐसी विपरीत स्वभाव वाली वस्तुओं को साथ ग्रहण कर लिया गया तो एक हांड़ी में कई प्रकार के खाद्य-पदार्थ हो जायेंगे। आधी कच्ची आधी पकी प्रक्रिया से रक्त में अनिवार्य घटक भी अधूरे घुलेंगे। इतना ही नहीं शेष अधपचे आहार से आंत्र संस्थान में जो क्रांति मचेगी, उनकी पीड़ा तो नित्य भुगतने वाले ही जानते हैं। अपच, खट्टी डकारें, भोजन के उपरान्त तुरन्त शौच आना, आंवसहित पतले दस्त, उदर शूल—इसी की प्रतिक्रियायें हैं। यदि भांति-भांति के सम्मिश्रण से बचा जा सके, एक या दो आहार तक स्वयं को सीमित कर लिया जाय तो इससे श्रेष्ठ कोई सरल साधन साधक के लिए नहीं हैं। साधकों के लिए आहार की चर्चा में कुछ और भी तथ्य जानने योग्य हैं। पेट खराब करने वाली आदतें ऐसी हैं जो अचेतन के अभ्यस्त ढर्रे में ढल जाती हैं, फिर सरलता से निकलती नहीं। बिना पूरी तरह चबाये जल्दी-जल्दी ग्रास निगल जाना, साथ ही पानी का अत्यधिक मात्रा में प्रयोग, बार-बार कुछ न कुछ उदरस्थ करते रहना तथा आधे मन से नाक-मुंह सिकोड़ते हुए भोजन करना अत्यधिक हानिकारक मानी गयी चार आदतें हैं। इनके विषय में विस्तार से न लिखकर इतना बना देना भर ही पर्याप्त होगा कि जहां तक हो सके कल्प के साधक इनसे बचें व आहार साधना को अन्य साधना जितना ही महत्व दें। इतना करने पर ही आगे के महत्वपूर्ण प्रसंगों का व्यवहार में उतार पाना सम्भव है।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118