आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आहार एवं औषधिकल्प के मूल सिद्धांत एवं व्यावहारिक स्वरूप

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कल्प चिकित्सा को सामान्यतः आयुर्वेद के एक उपांग के रूप में ख्याति प्राप्त है। चिर पुरातन ग्रन्थों में कल्प के सम्बन्ध में एक ही द्रव्य या औषधि के प्रयोग से रोग निवारण एवं स्वास्थ्य सम्वर्धन के विविध प्रयोजन सिद्ध करने का वर्णन मिलता है। यह भी उद्धरण मिलते हैं कि कल्प का निश्चय करने वाले व्यक्ति कमजोर मनोभूमि के न हों। जो भी व्यक्ति अपनी व्याधि निवारण अथवा जीवनी शक्ति के सम्वर्धन हेतु इसका प्रयोग करें उनकी इच्छा-शक्ति प्रबल होनी चाहिए, भले ही शरीर से वे दुर्बल ही क्यों न हों? आजकल ऐसे व्यक्ति ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलते। थोड़ा-सा अधिक दबाव पड़ने पर मनोभूमि कमजोर होकर चीं बोल जाती है और बहुसंख्यक व्यक्ति कल्प अवधि पूरी भी नहीं कर पाते। रहन-सहन का, खान-पान का स्तर व आदतें इन दिनों कुछ इस प्रकार की हो गयी हैं कि पुराना ढर्रा छूटता नहीं, नया क्रम अपनाते बनता नहीं। ऐसे में च्यवन की तरह जरा के यौवन में बदल जाने की कल्पना भी कैसे की जाय?

सारी परिस्थितियों को एवं जिस परिसर से निकलकर साधक आये हैं, दृष्टि में रखकर सुगमतम निर्धारण करते हैं तो आहार में नियमन व भांति-भांति के सम्मिश्रण छोड़कर एक ही आहार पर गुजारा करने को कल्प का स्वरूप माना जा सकता है। जीवनक्रम के ढर्रे को झकझोरने तथा जो भी कुछ है उसी की मरम्मत कर काम चलाऊ बना लेने तक को ही कायाकल्प मान लेना चाहिए। इससे कम में वे भ्रांतियां मिटेंगी नहीं जो जन मानस में कायाकल्प, दीर्घायुष्य, नवयौवन की प्राप्ति के विषय में संव्याप्त है। कल्प चिकित्सा का मूल सिद्धांत है—शारीरिक क्षय की गति को रोककर आहार क्रम बदलने तथा दिव्य शक्तिदायक औषधियों को ग्रहण करने के माध्यम से नवीन शक्ति का जागरण किया जाय। सूक्ष्म स्तर की साधनायें ऐसी परिष्कृत मानवी काया को ही प्रभावित कर आध्यात्मिक कल्प की प्रमुख भूमिका बनाती हैं। इसके अभाव में तो वे सभी उपचार निरर्थक हैं जो प्रसुप्त की जागृति व अन्तः की सामर्थ्य के जागरण के निमित्त किये जाते हैं।

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