आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आध्यात्मिक कायाकल्प की साधना का तत्वदर्शन

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आयुर्वेदीय शरीर कल्प की तरह आध्यात्मिक भाव-कल्प को समानान्तर समझा जाना चाहिए। एक में काया को दुर्बलता, रुग्णता, जीर्णता आदि अनपेक्षित परिस्थितियों से मुक्त किया जाता है, दूसरे में आस्था, आकांक्षा एवं अभ्यास पर चढ़ी हुई कुसंस्कारिता से त्राण पाने का प्रयत्न किया जाता है।

शरीर की प्रकृति संरचना ऐसी अद्भुत है कि यदि उस पर असंयम जन्य असत-व्यस्तता न लादी जाय तो वह शतायु की न्यूनतम परिधि को पार करके सैकड़ों वर्षों जी सकता है। मरण तो प्रकृति धर्म है पर जीर्ण-शीर्ण होकर जीना—यह मनुष्य का अपना उपार्जन है। आरम्भ से ही सुपथ पर चला जाय, तब तो कहना ही क्या, अन्यथा मध्यकाल में रुख बदल दिया जाय तो भी ऐसा सुधार हो सकता है जिसे अद्भुत, अप्रत्याशित कहा जा सके।

चेतना तन्त्र की संरचना भी ऐसी ही है। ईश्वर का अंग होने के कारण उसमें सभी उच्चस्तरीय विभूतियां भरी पड़ी हैं। पिण्ड ब्रह्माण्ड का छोटा रूप है। परमात्मा की ही छोटी प्रतिकृति आत्मा है। शरीर में वे सभी तत्व विद्यमान हैं जो प्रकृति के अन्तराल में बड़े एवं व्यापक रूप में पाये जाते हैं।

काय साधना से न केवल आरोग्य लाभ मिलता है, वरन् तपश्चर्या की ऊर्जा से तपा, पकाकर ऐसा भी बहुत कुछ पाया जा सकता है जो प्रकृति की रहस्यमय परतों में खोजा-पाया जा सकता है। सिद्ध पुरुषों का प्रकृति पर आधिपत्य होता है। इसका आधारभूत कारण यह है कि काया में उन्हीं रहस्यों की बीज रूप में उपस्थिति को कृषि कार्य के साधनों से विकसित कर लिया जाता है। फलतः काया समूची माया का प्रतिनिधित्व करने लगती है। काया और प्रकृति के बीच आदान-प्रदान होने लगता है। जिस प्रकार पृथ्वी के ध्रुव केन्द्र व्यापक ब्रह्माण्ड से अपनी आवश्यक सामग्री खींचते, उपयोग करते रहते हैं, उसी प्रकार सिद्ध पुरुषों की काया न केवल ब्रह्माण्डव्यापी माया से, प्रकृति से आदान-प्रदान करती है, वरन् चेतनात्मक विशेषता के कारण कई बार उस पर आधिपत्य भी करने लगती है। तपस्वियों की आलौकिक चमत्कारी सिद्धियों का यही रहस्य है।

आत्मा के नाम से पुकारी जाने वाली ब्रह्म ऊर्जा की छोटी चिनगारी का मौलिक स्वरूप भी प्रायः वैसा ही है। पतित, पराजित तो उसे कषाय कल्मषों का आवरण करता है। दर्पण के सामने जो भी वस्तु आती है उसी का प्रतिबिम्ब दीखने लगता है। मूढ़ता और दुष्टता सामने हो तो आत्मा का स्वरूप भी वैसा ही दीखने लगता है। यदि पर्दा हटा दिया जाय तो दृश्य बदलते देर न लगे। नर और नारायण की एकता के दृश्यमान होने में एक ही व्यवधान है—संचित कुसंस्कारिता। चिन्तन पर चढ़ी हुई और व्यवहार-अभ्यास में भरी हुई निकृष्टता को किसी प्रकार निरस्त किया जा सके तो आत्मा का मौलिक स्वरूप प्रकट होने में देर न लगे।

पुरुष-पुरुषोत्तम की, जीव-ब्रह्म की, नर-नारायण की एकता का प्रतिपादन काल्पनिक नहीं है। योगीजनों का प्रमाण-उदाहरण सामने है। उन्हें ईश्वर नहीं तो ईश्वरवत्, ईश्वर का प्रतिनिधि तो माना ही जाता है। इस स्थिति को प्राप्त कर सकना किसी के लिए भी सम्भव है। मनुष्य शरीर में अनेक देवदूत समय-समय पर आये हैं और ऐसे काम कर गये हैं जिससे उन्हें अवतार की, भगवान की मान्यता मिली। इस स्थिति को उपलब्ध करने में किसी दैवी वरदान की आवश्यकता नहीं पड़ती। मनुष्य अपने ही पराक्रम-पुरुषार्थ से कषाय-कल्मषों के आच्छादन तोड़ता है और चक्रव्यूह बेधकर बाहर जा निकलता है। चक्र वेधन जैसी प्रक्रियायें भव बन्धनों की जकड़न तोड़ने और चक्रव्यूह से बाहर निकलने की भावनात्मक प्रक्रिया है। इसे पूरी करने वाले योगी उस जीवन-मुक्त स्थिति को प्राप्त करते हैं जिसका सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य नाम से वर्णन-विवेचन किया जाता है।

योग किसी शारीरिक या पदार्थ परक हलचल का नाम नहीं है, जैसा कि आमतौर से आसन-प्राणायाम या नेति-धौति आदि को जाना बताया जाता है। ये शरीर और मन के व्यायाम भर हैं जो प्रकारान्तर से आत्म–परिष्कार में सहायक सिद्ध होते हैं। तत्वतः योग अन्तराल पर चढ़े हुए अवांछनीय आच्छादनों को हटाने और उनके स्थान पर उच्चस्तरीय परिधान पहनाने की भावनात्मक प्रक्रिया है। उसमें अभ्यस्त आदतों के रूप में स्वभाव का अंग बनी हुई कुसंस्कारिता की जड़ें काटनी पड़ती हैं और उन झाड़-झंखाड़ों के स्थान पर उच्चस्तरीय आस्थाओं को अन्तराल में उगाना-परिपुष्ट करना होता है। अंतर्क्षेत्र का यह समुद्र मन्थन ही योग है। खारे निषिद्ध जलाशय को मथकर किसी समय विष वारुणी को हटाया और अमृत जैसी अनेक विभूतियों को हस्तगत किया था। योग व्यक्तिगत समुद्र मंथन है जिसकी सारी प्रक्रिया अन्तःक्षेत्र में चलती हैं एवं उखाड़ने और जमाने का काया कल्प प्रस्तुत करता है। इसी को योग साधना कहते हैं। संक्षेप में आन्तरिक परिष्कार का नाम योग और क्रिया-प्रक्रिया में संयम-अनुशासन का समावेश तप कहा जाता है। इन प्रयोजनों की पूर्ति के लिए कुछ न कुछ प्रत्यक्ष प्रयोग उपचार भी चलाने पड़ते हैं। कल्प साधना की क्रिया-प्रक्रिया ऐसे ही निर्धारणों से भरी पड़ी है। इतने पर भी इस तथ्य को समझ ही लेना चाहिए कि उपचारों की आवश्यकता इसीलिए पड़ती है कि व्यक्तित्व के अदृश्य स्तर का, अन्तराल का कल्प परिवर्तन सम्भव हो सके। दृष्टिकोण और कर्म प्रवाह में निकृष्टता यथावत् बनी रहे और क्रिया-प्रक्रिया के रूप में चित्र-विचित्र उपचार चलता रहे तो समझना चाहिए जड़ की उपेक्षा करके पत्ते धोने जैसी विडम्बना चल रही है।

कल्प साधकों को उपवास, जप, स्वाध्याय, सत्संग जैसे दैनिक कृत्यों की पूर्ति तो शास्त्र परम्परा के अनुसार करनी ही चाहिए, पर साथ ही यह नहीं भूलना चाहिए कि यह अवधि तत्वतः अन्तर्जगत की गुत्थियों को सुलझाने के लिए किये जाने वाले मन्थन के लिये ही है। उसी को चिन्तन और मनन कहते हैं। इस क्रिया रहित प्रक्रिया को चान्द्रायण कल्प का मेरुदण्ड आधार केन्द्र कहना चाहिए।

मन्थन में रई घुमाई जाती है। उसकी रस्सी एक बार आगे चलती है, दूसरी बार पीछे लौटती है। पीछे लौटना चिन्तन है और आगे बढ़ना मनन है। चिंतन को आत्म-समीक्षा और आत्म-सुधार कह सकते हैं। उसे तपश्चर्या की संयम अनुशासन अपनाने की पृष्ठभूमि कहना चाहिए। मनन को आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास की पृष्ठभूमि कहना चाहिए। क्षुद्रता को महानता के साथ जोड़ देना ही योग है। इस उद्देश्य के लिए कामना को भावना में, तुच्छ को महान में, सीमित को असीम में परिवर्तित करना होता है। यही योग है। उसमें आस्थाएं, आकांक्षाएं एवं आदतें किस प्रकार उच्चस्तरीय बन सकें इसका निर्धारण एवं कार्यान्वयन करना होता है। प्रगतिक्रम को व्यवहार में उतारने की योजनाबद्ध साहसिकता की पृष्ठभूमि मनन के माध्यम से बनती है।

साधनाकाल में आस्था एवं विचारणा के क्षेत्र में नव-निर्माण का प्रयत्न पूरी तत्परता के साथ चलना चाहिए। शरीर तप अनुशासन में संलग्न रहे। समयचर्या उन्हीं अनुबन्धों के शिकंजे में कसी रहे। किन्तु विचार प्रवाह को भौतिक क्षेत्र से हटाकर अन्तर्मुखी रहने के लिए विवश करना चाहिए। इन दिनों भौतिक क्षेत्र की चिन्ता समस्याओं से उपराम ही लेना चाहिए। जो गम्भीरतापूर्वक कभी सोचा ही नहीं गया, उसे इन दिनों सोचना चाहिए। जिस क्षेत्र में कभी बुहारी तक नहीं लगी, कभी दृष्टि ही नहीं गई उसे इन दिनों साफ-सुथरा बनाने से लेकर सुन्दर सुसज्जित बनाने के लिए तत्परता एवं तन्मयता के साथ जुटे रहना चाहिए।

जप साधना के सीमित समय को छोड़कर प्रायः शेष सारा ही समय ऐसा है जिसमें विचार मंथन पर कोई रोकथाम नहीं है। शरीर कृत्यों के साथ-साथ चिन्तन प्रवाह अपने क्षेत्र में बहता रह सकता है। हल जोतते समय किसान घर-गृहस्थी की बात सोच सकता है, तो कोई कारण नहीं कि उपवास, श्रमदान आदि करते-करते जीवन की महत्वपूर्ण समस्याओं पर विचार करते रहने पर कोई रोकथाम रहे। यों चिन्तन-मनन के लिए कल्प में एक घण्टा नित्य एक निर्धारित प्रक्रिया के रूप में निश्चित है। उस समय तो विचार-मंथन उपरोक्त दो प्रयोजनों में निरत रहना ही चाहिए। इसके अतिरिक्त भी कभी भी खाली रहने या काम करते रहने की स्थिति में भी चिंतन-मनन का उपक्रम जारी रखा जा सकता है।

चिन्तन का विषय है—आत्मशोधन। मनन का उद्देश्य है—आत्म-परिष्कार। दोनों को एक दूसरे का पूरक कहना चाहिए। मल-त्याग के उपरान्त ही पेट खाली होता है तभी भूख लगती है और भोजन गले उतरता है। धुलाई के उपरान्त रंगाई होती है। नींव खोदने पर दीवार चुनी जाती है। सांस छोड़ने पर नई सांस मिलती है। प्रयाण से पिछला पैर उठता और अगला बढ़ता है। आत्म-परिष्कार प्रथम और आत्म-विकास द्वितीय है। जो लोग चित्त और चरित्र से निकृष्टता हटाने की अपेक्षा करके सीधे ईश्वर तक पहुंचने के लिए योग सिद्धियों की बात करते हैं उन्हें हवा में तैरने वाले कल्पना लोक के पखेरू ही कहा जा सकता है। ऐसे शेखचिल्ली अध्यात्म क्षेत्र में भी कम नहीं है जो जिस-तिस क्रिया-प्रक्रिया को ही सब कुछ मानते हैं और श्रम प्रयास के आधार पर ही साधना की सफलता का स्वप्न देखते हैं।

शरीर कल्प में न केवल कुटी प्रवेश करने की, नीयत आहार-विहार अपनाये रहने की आवश्यकता पड़ती है वरन् उन दिनों चिन्तन के लिए भी एक नियत क्षेत्र निर्धारित रहता है। उन दिनों उसी प्रकार सोचते रहना पड़ता है ताकि कायिक परिवर्तन में चिन्तन की भूमिका का भी समुचित योगदान रह सके। यदि वैसा न बन पड़े-कुटी प्रवेश की स्थिति में प्रयोग की असफलता, व्यर्थता का संदेह छाया रहे, जी घबराने लगे, उद्विग्नता छाई रहे तो समझना चाहिए कि कायाकल्प प्रयोग की सफलता संदिग्ध हो गई। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक कल्प-साधना के दिनों में मात्र भोजन में कटौती और जप पूरा करने की बेगार भुगती जाती रहे और आत्म-चिन्तन की उपेक्षा होती रहे तो समझना चाहिए कि शरीर-श्रम का जितना लाभ हो सकता है, उतना ही मिलेगा। मनोयोग के अभाव में उस उच्चस्तरीय प्रतिफल की आशा न की जा सकेगी, जो शास्त्रकारों, अनुभवी सिद्ध पुरुषों द्वारा बताई गई है।

समझा जाना चाहिए कि चिन्तन का विषय अनुशासन है—इसी को संयम कहा जाता है। इन्द्रिय-संयम, अर्थ-संयम, समय-संयम और विचार-संयम की चर्चा पिछले पृष्ठों पर हो चुकी है। अपने वर्तमान स्वभाव-अभ्यास में इन प्रसंगों में कहां क्या त्रुटि रहती है इसका निष्पक्ष निरीक्षक एवं कठोर परीक्षक की तरह जांच-पड़ताल की जानी चाहिए। आत्म–पक्षपात मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्गुण है। दूसरों के दोष ढूंढ़ना, अपने छिपाना आम लोगों की आदत होती है। कड़ाई से आत्म–समीक्षा कर सकने की क्षमता आध्यात्मिक प्रगति का प्रथम चिह्न है। पाप-कर्मों का प्रकटीकरण और प्रायश्चित का साहस इस बात का चिन्ह है कि इस क्षेत्र में प्रगति की आवश्यक शर्त को समझा और अपनाया जा रहा है। इसी शृंखला का अलग कदम स्वाध्याय सत्संग के द्वारा बाहरी प्रकाश-परामर्श प्राप्त करना है। उसी प्रक्रिया का सूक्ष्म रूप चिन्तन-मनन है। चिन्तन में गुण, कर्म, स्वभाव में घुसी हुई अवांछनीयताओं को बारीकी से ढूंढ़ निकालने का पर्यवेक्षण करना होता है। साथ ही उन्हें किस प्रकार निरस्त किया जाय—यह न केवल सोचना होता वरन् उसके लिए दिनचर्या का ऐसा ढांचा बनाना होता है जिसे अपनाकर उपरोक्त चारों संयमों का क्रमबद्ध अभ्यास चलता रहे। आदतों को बदलने के लिए उनकी प्रतिद्वन्द्वी आदतों को दैनिक व्यवहार में सम्मिलित करना होता है। असंयम की गुंजाइश जिन कारणों से, जिन कार्यक्रमों से बनती है, उनको भी बदलना होता है। व्यवहार बदलने पर ही आदतें बदलने की बात बनती है इसलिए होना यह चाहिए कि असंयमों का अभ्यास तोड़ने वाला चारों क्षेत्रों का एक निश्चित कार्यक्रम बनाया जाय और उसका परिपालन कठोरतापूर्वक आरम्भ कर दिया जाय। कल्प अवधि इन अभ्यासों के लिए प्रभात काल की तरह सौभाग्य बेला समझी जानी चाहिए। इन दिनों अंतःप्रेरणा के आधार पर स्वेच्छा-निर्धारण से उपरोक्त चार संयमों के कठोर परिपालन की व्यवस्था बनाई जाय। साथ ही यह भी निश्चित किया जाय कि इन निर्धारणों को घर लौटने पर भी भविष्य में नियमित रूप से जारी रखा जायगा। इस निश्चय पर उसी प्रकार आरूढ़-व्रतशील रहना चाहिए जिस प्रकार विवाह होने पर पति-पत्नी एक दूसरे का आजीवन निर्वाह करते हैं।

अब मनन का प्रश्न आता है। उपलब्ध साधनों को आत्म-कल्याण के लिए उसी प्रकार प्रयुक्त करने का निश्चय करना चाहिए जिस प्रकार कि शरीर निर्वाह एवं परिवार-पोषण के लिए किया जाता है। दोनों के बीच विभाजन रेखा बननी चाहिए। जीवन व्यवसाय में आत्मा और शरीर की साझेदारी न्यायपूर्वक चलनी चाहिए। दोनों के योगदान से ही यह व्यवसाय चलता है तो लाभांश भी दोनों में विभाजित-वितरित होना चाहिए।

मनुष्य के पास कई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सम्पदायें हैं। श्रम, समय, चिन्तन एवं साधन के रूप में ये चारों हर किसी के पास समान रूप से विद्यमान हैं। इन्हीं के बदले विभिन्न प्रकार की सम्पदायें, विभूतियां, सफलतायें अर्जित की जाती हैं। विशेष चातुर्य कौशल न सही, इन चारों की सामान्य मात्रा हर किसी को उपलब्ध है। होना यह चाहिए कि इनका विभाजन, उपयोग शरीर के लिए ही नहीं, आत्मा के लिए भी होने लगे। यह तभी सम्भव है जब उपरोक्त क्षमताएं मात्र शरीरचर्या में ही नियोजित न रहें, इनका लाभ शरीर सम्बन्धी ही न उठाते रहें वरन् होना यह भी चाहिए कि आत्म-कल्याण के लिए भी इनका उपयोग होता रहे। मनन का उद्देश्य यही है कि वह निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह यह फैसला करे कि जब जीवन-व्यवसाय में दोनों की पूंजी लगी हुई है—दोनों ही रम करते हैं तो लाभ एक पक्ष ही क्यों उठाता रहे। दूसरे को उसका उचित भाग क्यों न मिलने लगे। जो बीत गया उसकी बात छोड़ी भी जा सकती है, पर भविष्य के लिए तो यह विभाजन रेखा बन ही जानी चाहिए कि किसे कितनी मात्रा में लाभांश उपलब्ध होता रहेगा।

पूजा-उपचार, आत्म-जागरण भर की आवश्यकता पूरी करते हैं उनसे आत्मिक प्रगति की समग्र आवश्यकता पूरी नहीं होती। जिस प्रकार शरीर को स्नान, दांतों को मंजन, कपड़े को धोना, कमरे को बुहारना आवश्यक है, उसी प्रकार मनःक्षेत्र की स्वच्छता का दैनिक प्रयोजन पूरा होता है। जीवन-लक्ष्य की पूर्ति भजन से नहीं हो सकती। उसके लिए आत्मा की श्रद्धा, प्रज्ञा एवं निष्ठा जैसी उच्चस्तरीय आस्थाओं से अभ्यस्त कराना होता है। अभ्यास में उद्देश्य और श्रम का समन्वय होना चाहिए। शरीर को सत्प्रवृत्तियों में नियोजित करने के लिए लोकमंगल की साधना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। मनुष्य-जन्म की धरोहर इसीलिए मिली है कि ईश्वर के विश्व को सुविकसित बनाने में कुशल माली की भूमिका निभाई जाय। सृष्टा की विश्व-व्यवस्था में उत्कृष्टता बढ़ाने-बनाने में सहायक की तरह हाथ बंटाया जाय। लोक मानस के भावनात्मक परिष्कार का कार्यक्रम बनाने और उनमें साधनों का महत्वपूर्ण भाग लगाते रहने से ही ईश्वर की इच्छा पूरी होती है, साथ-साथ आत्म-कल्याण का, आत्मोत्सर्ग का प्रयोजन भी पूरा होता है।

परमार्थ प्रयोजनों के दो लाभ हैं एक दूसरे की सेवा साधना, विश्व व्यवस्था में योगदान। दूसरा उस आधार पर अपने स्वभाव-अभ्यास में उत्कृष्टता का अभिवर्धन। मात्र सोचते रहने से ही स्वभाव नहीं बनता। संस्कारों में ही शक्ति होती है और वे भावना तथा क्रियाशीलता के समन्वय से ही बनते-ढलते हैं। संस्कार ही आत्मा के साथ लिपटते-घुलते हैं और उसकी प्रगति-अवगति के निमित्त कारण बनते हैं। सुसंस्कारिता अर्जित करने के लिए सेवा-साधना में निरत होने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ, परिव्राजकों को आत्मलाभ इसीलिए मिलता है कि वे परमार्थ के माध्यम से सच्चे अर्थों में आत्म निर्माण का, आत्म-विकास का क्रमबद्ध उद्देश्य पूरा करते रहते हैं और उस राजमार्ग पर चलते हुए चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। प्रत्येक भगवद्भक्त को अपनी भक्ति भावना का प्रमाण-परिचय लोकमंगल की भावना में निरत रहकर देना पड़ता है। व्यस्त व्यक्ति भी यदि भावना सम्पन्न है तो उस दिशा में मुंह मोड़कर नहीं रह सकता।

मनन का एक ही विषय है कि जीवनचर्या में उस सेवा-साधना का समन्वय कितना, किस प्रकार किया जाय? जिससे आत्म-कल्याण का जीवन लाभ मिल सके। आत्म-संतोष, आत्म–सम्मान एवं दैवी अनुग्रह अर्जित करने के लिए उपासना ही पर्याप्त नहीं, इसके लिए संयम साधना और लोक मंगल की आराधना का समन्वय करके अपना प्रयास-क्रम त्रिवेणी संगम जैसा बनाना चाहिए। कल्प अवधि में भावी जीवनचर्या का शुभारम्भ एवं प्राथमिक प्रयोग-अभ्यास करना पड़ता है। उसकी सार्थकता तो तभी बनती है जब यह परिवर्तन क्रम आजीवन बना रहे और ठीक तरह निभता रहे।

कार्यक्रम तो आवश्यकता एवं स्थिति के अनुरूप बनते-बदलते रहते हैं। मूल प्रश्न यह है कि उसे सम्पन्न करने की सामर्थ्य सामग्री कहां से प्राप्त हो? कहना न होगा कि इसके लिए शरीर और परिवार की लिप्सा और तृष्णा के निमित्त जो समूची शक्ति खप जाती है उसमें कटौती की जाय और आत्म-कल्याण के निमित्त जो कुछ भी नहीं बन पड़ता, उसकी पूर्ति उस कटौती के द्वारा की जाय। प्रकारान्तर से यह वही प्रक्रिया है जिसे समयदान, अंशदान के रूप में प्रत्येक जागरूक आत्मा को सनातन परम्परा अपनाने के लिए प्रशिक्षित-उत्तेजित किया जाता है।

प्रज्ञा परिवार के प्राथमिक सदस्यों को न्यूनतम चिह्न पूजा की तरह एक घण्टा समय और दस पैसा नित्य ज्ञानयज्ञ के लिए लगाते रहने के लिए बाधित किया जाता है। जागृत आत्माओं, प्राणवान प्रज्ञापुत्रों को इससे कुछ अधिक करने का दबाव डाला जाता है। उन्हें महीने में एक दिन की आजीविका एवं अवकाश के क्षणों का महत्वपूर्ण अंश समयदान के रूप में देते रहने के लिए कहा जाता है। आत्मोत्कर्ष की दिशा में सच्ची आकांक्षा जगाने और यथार्थवादी तत्परता उभारने के लिए प्रत्यक्ष चिह्न हैं। जिनमें ऐसा कुछ दृष्टिगोचर न हो, कृपण निष्ठुरता चट्टान की तरह अड़ी बैठी रहे, न श्रद्धा उमंगे और न उदार सेवा साधना का कोई चिह्न उभरे तो समझना चाहिए कि ऊसर भूमि में कृषि कर्म करने, उद्यान लगाने की निरर्थक विडम्बना पल रही है।

कल्प साधना में प्रायश्चित प्रसंग प्रमुख है। उसका छोटा अंश उपवास अनुष्ठान है जो मात्र थोड़े से काय-कष्ट से अति सरलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है। बड़ा काम वह है जिसमें दुष्कर्मों द्वारा समाज को पहुंचाई गई क्षति की भरपाई करनी पड़ती है अर्थात् सम्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए श्रमदान, अंशदान के रूप में उतनी उदारता का परिचय देना पड़ता है, जिससे खोदी गई खाई का पट सकना सम्भव हो सके। मनन प्रक्रिया में दोनों ही तथ्यों को ध्यान में रखते हुए यह निर्धारण किया जाना चाहिए कि उपलब्ध समय एवं साधनों में से कितना अंश आरम्भ में एक बारगी लगाया जाना है और कितना भविष्य में किस अनुपात में नियोजित होता रहेगा।

जीवन-व्यवसाय के लाभांश का विभाजन इस प्रकार होना चाहिए कि शरीर तथा उसका सम्पर्क परिकर ही सब कुछ न निकलता, हड़पता रहे, वरन् उपलब्धियों का एक महत्वपूर्ण अंश परमार्थ प्रयोजनों के लिए नियमित रूप से लगाने लगे। अभ्यस्त कृपणता, सम्बन्धियों का व्यामोह तथा प्रचलनों का दबाव, तथाकथित मित्रों का उपहास असहयोग बोधक हो सकता है। इनके चक्रव्यूह से किस प्रकार निपटा जायेगा, इसका साहसिक निर्धारण भी मनन प्रक्रिया के साथ-साथ ही करना होता है।

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