आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

कल्पकाल की अति फलदायी ऐच्छिक साधनायें

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कल्प की अवधि में साधक को प्रायश्चित एवं तपश्चर्या के अतिरिक्त अपनी प्रकृति के अनुरूप विशिष्ट साधनायें भी करनी होती हैं। ये ऐच्छिक हैं एवं उस अनिवार्य साधना क्रम के अतिरिक्त हैं जो साधक को व्यक्तिगत रूप से करनी हैं। कौन सी किसे अनुकूल पड़ेगी, इसका निर्धारण मनःस्थिति का पर्यवेक्षण करने पर मार्गदर्शक ही सुझा सकते हैं। इस ऐच्छिक साधना क्रम में विभिन्न साधनायें इस प्रकार हैं—

(1) प्राणाकर्षण प्राणायाम —  इस सृष्टि में सतत् विभिन्न स्तर के प्राण प्रवाहों का स्पन्दन चल रहा है। साधक अपने पुरुषार्थ से इन्हें सहज ही प्राप्त व धारण कर सकता है। प्राणाकर्षण प्रयोग में अन्तरिक्ष के असीम प्राण भण्डार से अनुदान प्राप्त किये जाते हैं। इनका प्रयोग इस प्रकार है :—

पूर्वाभिमुख हो पालथी मारकर बैठे। दोनों हाथ घुटनों पर, मेरुदण्ड सीधा, आंखें बन्द। ध्यान करें कि अखिल आकाश प्राण तत्व से व्याप्त है। सूर्य के प्रकाश में चमकते बादलों की शक्ल के प्राण का उफान हमारे चारों ओर उमड़ता चला आ रहा है। नासिका के दोनों छिद्रों से सांस खींचते हुए यह भावना कीजिए कि प्राण तत्व के उफनते हुए बादलों को हम अपने अन्दर खींच रहे हैं। यह प्राण हमारे विभिन्न अवयवों में प्रवेश कर रहा है। जितनी देर आसानी से रोग सकें सांस को भीतर रोकें, भावना करें कि प्राण तत्व में सम्मिलित चैतन्य, बल, तेज, साहस, पराक्रम जैसे घटक हमारे अंग-प्रत्यंगों में स्थिर हो रहे हैं। इसके बाद सांस धीरे-धीरे बाहर निकालें, साथ ही चिन्तन कीजिए कि प्राण का सार तत्व हमारे अंग-प्रत्यंगों द्वारा पूरी तरह सोख लिया गया है। थोड़ी देर तक बिना सांस के रहें व भावना करें कि जो दोष बाहर निकाले गये हैं, वे हमसे बहुत दूर चले जा रहे हैं व उन्हें अब अन्दर प्रवेश नहीं होने देना है। इस पूरी प्रक्रिया को पांच प्राणायामों तक ही सीमित रखा जाय।

(2) सूर्यवेधन प्राणायाम —  ब्रह्म-प्राण को आत्म-प्राण के साथ संयुक्त करने के लिए उच्चस्तरीय प्राणयोग की आवश्यकता पड़ती है। सूर्यवेधन इसी स्तर का प्राणायाम है। इसमें ध्यान-धारणा को और भी अधिक गहरा बनाया जाता है एवं प्राण ऊर्जा को सांस से खींचकर इसे सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कराया जाता है। पद्धति इस प्रकार है—

पूर्वाभिमुख, सरल पद्मासन, मेरुदण्ड सीधा, नेत्र खुले, घुटने पर दोनों हाथ। यह ध्यान-मुद्रा है। बायें हाथ को मोड़ें, उसकी हथेली पर दायें हाथ की कोहनी रखकर, मध्यमा-अनामिका अंगुलियों से बायें नथुने को बन्द कर दाहिने नथुने से गहरी सांस खींचें। सांस इतनी गहरी हो कि पेट फूल जाए, वह फेंफड़े तक सीमित न रहे। ध्यान करें कि प्रकाश प्राण से मिलकर दायें नासिका छिद्र से पिंगला नाड़ी में होकर अपने सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कर रहा है। सांस रोकें व दोनों नथुने बन्द कर यह ध्यान करें कि नाभिचक्र में प्राण द्वारा एकत्रित यह तेजपुंज यहां अवस्थित चिरकाल से पड़े सूर्य-चक्र को प्रकाशमान कर रहा है। यह निरन्तर प्रकाशवान् हो रहा है। अब बायें नथुने को खोल दें और ध्यान करें कि सूर्यचक्र को सतत् घेरे रहने वाले, धुंधला प्रकाश बनाने वाले कल्मष छोड़ी हुई सांस के साथ बाहर निकल रहे हैं। पीत वर्ण का मलिन प्रकाश इड़ा नाड़ी से बाहर निकल रहा है।

अब दोनों नथुने फिर बन्द कर फेफड़ों को बिना सांस के खाली रखें व भावना करें कि नाभिचक्र में एकत्रित प्राण तेज पुंज की तरह, अग्नि शिखा की तरह ऊपर उठ रहा है, सुषुम्ना नाड़ी से प्रस्फुटित हुआ यह प्राण तेज सारे अन्तः प्रदेश को प्रकाशवान् बना रहा है। सर्वत्र तेजस्विता व्याप्त हो रही है। यही प्रक्रिया फिर बायें नथुने से सांस खींचकर व रोककर दायें से बाहर फेंकते हुए दुहरायें व भावना उसी प्रकार करें जैसा ऊपर वर्णित है। यह पूरी प्रक्रिया एक लोम-विलोम सूर्यवेधन प्राणायाम की हुई।

(3) नाड़ी शोधन प्राणायाम —
  इस प्राण प्रयोग में तीन बार बायें नासिका से सांस खींचते और छोड़ते हुए नाभिचक्र में चन्द्रमा का शीतलध्यान, तीन बार दाहिने नासिका छिद्र से सांस खींचते हुए सूर्य का उष्ण प्रकाश वाला ध्यान तथा आखिरी बार दोनों छिद्रों से सांस खींचते हुए मुख से सांस निकालने की प्रक्रिया सम्पादित की जाती है।

मुद्रा पूर्व की तरह दायीं नासिका का छिद्र बन्द करके बायें से सांस खीचें और उसे नाभि चक्र तक ले जायें, ध्यान करें कि नाभि स्थान में पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान शीतल प्रकाश विद्यमान है। सांस उसे स्पर्श कर स्वयं शीतल एवं प्रकाशवान् बना रही है। इसी नथुने से सांस बाहर निकालें व थोड़ी देर सांस रोककर बायीं ओर से ही इड़ा नाड़ी के इस प्रयोग को तीन बार करें। अब दायें नथुने से इसी प्रकार पूरक, अन्तः कुम्भक, रेचक व बाह्य कुम्भक करें व नाभिचक्र में चन्द्रमा के स्थान पर सूर्य का ध्यान करें। भावना कीजिए कि नाभि स्थित सूर्य को छूकर लौटने वाली वायु पिंगला नाड़ी से होते हुए ऊष्मा और प्रकाश उत्पन्न कर रही है, इस क्रिया को भी तीन बार करें। अन्त में नासिका के दोनों छिद्र खोलकर सांस खींचकर व भीतर रोककर मुंह खोलकर एक बार में ही बाहर निकाल दें। प्रारम्भ में ही नाड़ी शोधन का अभ्यास करें, पीछे धीरे-धीरे संख्या बढ़ायी जा सकती है।

(4) कुण्डलिनी योग —
  शक्तिचालिनी मुद्रा-ब्रह्मशक्ति का केन्द्र है। ब्रह्मलोक और जीवशक्ति का आधार है—भूलोक। दोनों ही काया में सूक्ष्म रूप से विराजमान है। भूलोक—जीव-संस्थान का मूलाधार चक्र है, मूलाधार जननेन्द्रियों का मूल, मल-मूत्र छिद्रों का मध्य भाग। इसी स्थान की हलचलों के कारण प्राणी जन्म लेते हैं। कुण्डलिनी शक्ति उसी केन्द्र में मुंह नीचा किये मूर्छित अवस्था में पड़ी रहती है। विवेकवान् उसे जगाकर अनेक गुनी प्रखर बनाते हैं और जागरण की इस प्रखरता का उपभोग व्यक्तित्व को प्रतिभा-सम्पन्न बनाने, उच्चस्तरीय कार्य सम्पादन करने में प्रयुक्त करते हैं।

कुण्डलिनी जागरण की इस साधना में मूलाधार शक्ति को जगाने, उठाने के लिए ध्यान-धारणा के साथ जिन यौगिक क्रियाओं का सहारा लिया जाता है, उनमें एक मुद्रा व एक बंध का युग्म है। शक्तिचालिनी मुद्रा व उड्डियान बन्ध अधोमुखी शक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए प्रयुक्त होते हैं। शक्तिचालिनी मुद्रा बज्रासन या सुखासन में बैठकर की जाती है। इसमें मल एवं मूत्र संस्थान को संकुचित करके उन्हें ऊपर की ओर खींचा जाता है। खिंचाव पूरा हो जाने पर उसे शिथिल कर देते हैं। प्रारम्भिक स्थिति में दो मिनट व धीरे-धीरे पांच मिनट तक बढ़ाते हुए यही क्रिया बार-बार दुहरायें। उड्डियान बन्ध में स्थित आंतों को ऊपर की ओर खींचा जाता है। यह क्रिया स्वतः शक्ति-चालिनी मुद्रा के साथ धीरे-धीरे होने लगती है। पेट को जितना ऊपर खींचा जा सके, खींचकर पीछे पीठ से चिपका देते हैं। उड्डियान का अर्थ है—उड़ना। कुण्डलिनी जागृत करने, चित्तवृत्ति को अधोमुखी से ऊर्ध्वमुखी करने की यह पहली सीढ़ी है। इससे सुषुम्ना नाड़ी का द्वार खुलता है, मूलाधार चक्र में चेतना आती है। इन दोनों क्रियाओं के द्वारा समूचे कुण्डलिनी क्षेत्र पर ऐसा सूक्ष्म विद्युतीय प्रभाव पड़ता है जिससे इस शक्तिस्रोत के जागरण व मेरुदण्ड मार्ग से ऊर्ध्वगमन के दोनों उद्देश्य पूरे होते हैं।

(5) हंसयोग-सोऽहम् साधना —
  प्राणायाम जहां संचय की प्रक्रिया है वहां सोऽहम् साधना महाप्राण-ब्रह्मप्राण की प्राप्ति का साधना-विधान है। कारण शरीर के अन्तराल को स्पर्श करने के लिए जिस महाप्राण की आवश्यकता होती है, वह इसी साधना से अर्जित किया जाता है।

हंसयोग में सांस खींचने के साथ अत्यन्त गहरे सूक्ष्म पर्यवेक्षण में उतर कर यह खोजना पड़ता है कि वायु के भीतर प्रवेश करते समय सीटी बजने जैसी ‘सी’ की ध्वनि भी उसी के साथ घुली है। यह ध्वनि प्रकृतिगत नहीं, ब्राहमी है। इसे कृष्ण वंशीवादन के समतुल्य समझा जाय। भावना यही की जाय कि जीवन-सम्पदा पर परिपूर्ण अधिकार ‘सोऽहम्’ परमेश्वर का है। सांस छोड़ते समय सांप की फुफकार जैसी ‘अहम्’ की ध्वनि का अनुभव अभ्यास में लाना होता है, भावना करनी होती है कि अहंता को विसर्जित, निरस्त कर दिया गया। ‘अहम्’ (ईगो) के स्थान पर ‘स’ (उस परमेश्वर) की प्रतिष्ठापना हो गई। यह स्थिति अद्वैत वेदान्त दर्शन की है।

निरन्तर आत्मा और परमात्मा के साथ अपने सम्बन्ध को स्मरण रखने के लिए और सम्पर्क सूत्र बनाये रखने के लिए हर सांस के साथ सोऽहम् का अजपा जाप जारी रखा जाय।

(6) लययोग-खेचरी मुद्रा —  शान्त मस्तिष्क को ब्रह्मलोक और निर्मल मन को क्षीर सागर माना गया है। मनुष्य सत्ता और ब्रह्मलोक व्यापी समष्टि सत्ता का आदान-प्रदान ब्रह्मरन्ध्र मार्ग से होता है। यह मस्तिष्क का मध्य बिन्दु है, जीवसत्ता का नाभिक है, यही सहस्रार कमल है। मस्तिष्क मज्जा रूपी क्षीर सागर में विराजमान विष्णु-सत्ता के सान्निध्य और अनुग्रह का लाभ लेने के लिए खेचरी मुद्रा की साधना की जाती है। ध्यान मुद्रा में शांत चित्त से बैठकर जिह्वाग्र भाग को तालु मूर्धा से लगाया जाता है। सहलाने जैसे मन्द-मन्द स्पन्दन किये जाते हैं। इस उत्तेजना में सहस्रदल कमल की प्रसुप्त स्थिति जागृति में बदलती है। बन्द छिद्र खुलते हैं और आत्मिक अनुदान जैसा रसास्वादन जिह्वाग्र भाग के मध्य से अन्तःचेतना को अनुभव होता है। यही खेचरी मुद्रा है।

तालु मूर्धा को कामधेनु की उपमा दी गई है और जीभ के अगले भाग से उसे सहलाना-सोमपान, पयपान कहलाता है। इस क्रिया से आध्यात्मिक आनन्द की, उल्लास की अनुभूति होती है। यह दिव्यलोक से आत्मलोक पर होने वाली अमृत वर्षा का चिन्ह है। देवलोक से सोमरस की वर्षा होती है। अमृत कलश से प्राप्त अनुदान आत्मा को अमरता की अनुभूति देते हैं।

(7) शिथिलीकरण मुद्रा-योगनिद्रा —  इस मुद्रा का अभ्यास शवासन में लेटकर अथवा आराम कुर्सी पर शरीर ढीला छोड़कर किया जाता है। यह क्रिया शरीर, मन, बुद्धि को तनाव से मुक्त करके नई चेतना से अनुप्राणित कर देती है। साधक को शरीर से भिन्न अपनी स्वयं की सत्ता की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है।

कोलाहल मुक्त वातावरण में लेटकर पहले शरीर शिथिलीकरण के निर्देश स्वयं को दिये जाते हैं। शरीर के निचले अंगों से आरम्भ करके शनैः-शनैः यह क्रम ऊपर तक चलाते हैं। हर अंग को एक स्वतंत्र सत्ता मानकर उसे विश्राम का स्नेह भरा निर्देश देते हैं। कुछ देर उस स्थिति में रहकर धीरे-धीरे शारीरिक शिथिलीकरण सधने पर क्रमशः मानसिक शिथिलीकरण एवं दृश्य रूप में शरीर पड़ा रहते देखते, चेतनसत्ता के सरोवर में ईश्वर को समर्पित कर देने की भावना की जाती है।

शिथिलीकरण योगनिद्रा का प्रारम्भिक चरण है। अचेतन को विश्राम देने, नई-स्फूर्ति दिलाने तथा अन्तराल के विकास-आत्मशक्ति के उद्भव का पथ प्रशस्त करने की यह प्रारम्भिक क्रिया है। ध्यान योग की यह प्रक्रिया आध्यात्मिक दृष्टि से उपलब्धियों से भरी हुई है, शरीरगत तथा मनोगत इसके सत्परिणाम तो सर्वविदित हैं ही।

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