आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

अन्तर्मुखी प्रवृत्ति और निरन्तर आत्म-दर्शन

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आयुर्वेदीय कल्प प्रक्रिया में सर्वप्रथम वमन, विरेचन, स्वेदन, नस्य आदि के माध्यम से संचित मलों को बाहर निकाला जाता है। इस परिशोधन के उपरांत शरीरगत मलीनताओं का भार हल्का पड़ता है, नये उपचार की पृष्ठभूमि बनती है। ऐसा न करने पर इस उपचार का लाभ शरीर को मिलने के स्थान पर जलती आग में पड़ने वाले ईंधन की तरह भस्म हाथ लगने के अतिरिक्त और कुछ पल्ले नहीं पड़ता। खाई पाटकर ही पार जाया जा सकता है अन्यथा सारा प्रयत्न उस खंदक से जूझने में ही समाप्त होता रहेगा।

आध्यात्मिक कल्प चिकित्सा के आरम्भ में दो काम करने पड़ते हैं। एक तो अपनी चिन्ताओं, समस्याओं, कठिनाइयों, कामना, अभिलाषाओं को विस्तारपूर्वक लिखकर मार्गदर्शक के सम्मुख प्रस्तुत कर देना पड़ता है, ताकि उन्हीं बातों को बताने, पूछने का ताना-बाना न बुनते रहकर जो कहना है वह एक बार में ही कह लिया जाय। इससे भौतिक प्रयोजनों में मन हल्का होने पर अन्तर्मुखी बनना और उद्देश्य का तारतम्य बिठाना सम्भव हो जाता है।

दूसरी बात वह उगलनी होती है जिसमें अपने क्रियमाण दुष्कृत्यों का उल्लेख होता है। चान्द्रायण की तरह कल्प साधना में भी प्रायश्चित पूरा करना होता है। यही अवरोध हैं जो न तो साधना को सफल होने देते हैं, न ही कष्ट-कठिनाइयों से छूटने के लिए किये जा रहे प्रयासों को कारगर होने देते हैं। सृष्टा की कर्म व्यवस्था सुनिश्चित है। वह स्वसंचालित पद्धति से क्रिया की प्रतिक्रिया उत्पन्न करती रहती है। पाप-कृत्यों से कुसंस्कार बढ़ते हैं, कुसंस्कारों से स्वभाव में उद्दण्डता आती है, उद्धत स्वभाव से आचरण में दुष्टता बढ़ती है। उसके फलस्वरूप भीतर से रोग-शोक उभरते हैं और बाहर से असहयोग, तिरस्कार एवं रोग-शोक उभरते हैं और बाहर से असहयोग, तिरस्कार एवं रोष-प्रतिशोध की प्रताड़नाएं बरसती रहती हैं। यही है पाप कर्मों की स्वसंचालित दण्ड व्यवस्था जो अपने लिए स्वयं ही यमदूत उत्पन्न करती है और नशा पीकर नाली में गिरने, खाकर वमन करने, फांसी लगाकर बेमौत मरने की तरह किये हुए दुष्कृत्यों का प्रकारांतर से दण्ड प्रस्तुत करती रहती हैं। इस जंजाल की जकड़न से ऊंचा उठने और बढ़ने की बात बनती ही नहीं। इसलिए उनका निराकरण करना ही बुद्धिमत्ता है। आंख में पड़े हुए तिनके और पैर में धंसे हुए कांटे को निकाल देने में ही समझदारी है। पके फोड़े का मवाद जितनी जल्दी निकल जायेगा उतनी ही सुविधा रहेगी। पापों का प्रायश्चित भी एक आवश्यक कृत्य है। अध्यात्म मार्ग पर चलने वाले इस भार को उतारने और हलके-फुलके प्रगति-पथ पर अग्रसर होने की दूरदर्शिता अपनाते हैं।

इसके लिए भी अपनी स्मृति के सभी दुष्कृत्यों को विस्तारपूर्वक घटनाक्रमों तथा उनके साथ जुड़ी हुई परिस्थितियों के साथ मौखिक या लिखित रूप से मार्गदर्शक की जानकारी में लाते हैं। इसी आधार पर पाप कर्मों के भारी-हल्के होने का और तदनुरूप परिशोधन प्रायश्चित की विधि-व्यवस्था का निर्धारण बन पड़ता है।

यही आध्यात्मिक वमन, विरेचन है, जिससे मानसिक सफाई का काम हलका हो जाता है। अपनी ओर से बात पूरी कर देने पर दूसरे पक्ष का ही काम शेष रहता है। क्या उपाय करना है? क्या हल निकालना है? इसके लिए प्रतीक्षा भी की जा सकती है। अपना पक्ष प्रस्तुत कर देने के उपरांत साधक की मानसिक स्थिति ऐसी बन जाती है जिसमें कल्पसाधना के मूलभूत उद्देश्य अंतर्मुखी होकर आत्म-शोधन से लेकर आत्म-साक्षात्कार तक की लम्बी प्रक्रिया में तन्मयता एवं तत्परतापूर्वक जुटा जा सकता है।

घर से बाहर अन्यत्र जाकर किसी तीर्थ की पवित्र भूमि में मर्यादाओं की व्रतशीलता में अपने आप को बांधकर ही इस प्रकार की तपश्चर्याएं सही रीति से सम्पन्न होती हैं। अन्यथा उलझे वातावरण में उद्विग्न चित्त से खीजते-खिजाते किसी प्रकार चिह्न पूजा कर लेने से काम तो क्या, कोई भी साधना उपक्रम सफल नहीं होता। कुछ रोग ऐसे होते हैं जिनमें डॉक्टर से परामर्श लेते रहने और घर पर दवा खाते रहने से भी काम चल जाता है, पर कुछ में अस्पताल में भर्ती होने से ही बात बनती है। बड़े आपरेशन घर पर नहीं कराये जा सकते, उसके लिए आवश्यक उपकरण-साधन तथा हर योग्यता के डॉक्टर, सर्जन, सहायक हर समय उपलब्ध नहीं हो सकते। यह सुविधाएं अस्पताल में ही होती है। बड़े उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तद्नुरूप ही व्यवस्था बननी चाहिए। घर पर रहकर या अन्यत्र यह साधना करनी हो, तब भी उपरोक्त आवश्यकताओं की पूर्ति की बात तो ध्यान में रखी ही जानी चाहिए। साधना स्थल की परिस्थिति एवं साधक की मनःस्थिति दोनों ही सुविधाएं समुचित स्तर की रहने पर ही सांसारिक एवं आध्यात्मिक प्रयोजनों की पूर्णता सधती है।

इस स्तर की साधनाओं के लिए किस प्रकार की बाह्य व्यवस्था होनी चाहिए उसके लिए ऐसा उदाहरण है जिससे कुछ प्रेरणा मिलती है और इस क्षेत्र की पुरातन परम्पराओं का पता चलता है। त्रिवेणी तट पर माघ मास में एक महीने का कल्पवास होता है। साधक वहां कुटी बनाकर रहते हैं। पूरा महीना संगम की रेती में ही व्यतीत करते हैं। उस परिधि से बाहर कहीं नहीं जाते। घर की घटनाओं में न तो दिलचस्पी लेते हैं और न आने-जाने की चिट्ठी पत्रों का सिलसिला चलाते हैं। इस प्रतिबन्ध से उन्हें एकान्त का, एकाग्रता का, आत्म चिन्तन का लाभ मिलता है। इतना अंश ठीक है। इसके साथ ही यदि साधना का निर्धारण एवं मार्गदर्शन भी उनके स्तर एवं उद्देश्य के अनुरूप रहा होता तो सोने में सुगन्ध की बात बनती। फिर भी इससे इतना तो पता चलता ही है कि साधक को साधना के प्रति कितना गम्भीर, कितना श्रद्धालु, कितना व्रतशील होना चाहिए। इस सबकी उपेक्षा करके मनमौजी सैलानियों की तरह कौतुक-कौतूहल मानकर साधना से उपचार ज्यों-त्यों करके आधे-अधूरे अपनाये जाएं तो उस विडम्बना से कुछ बात बनती नहीं। उल्टे निराशाजन्य खीज ही उत्पन्न होती है।

सूरत में मोटा महाराज का आश्रम भी इसी परम्परा के अनुरूप चलता है। व्रज चौरासी कोस परिक्रमा के यात्री भी आदि से अन्त तक संकल्पित तितिक्षाओं का पालन करते हैं। वृन्दावन के ‘टट्टिया आश्रम’ में बांस की टट्टी का बाड़ा बना हुआ है। साधक उस बाड़े की परिधि में ही रहते हैं। बाहर नहीं जाते। इस अनुबन्ध का मूल उद्देश्य एक ही है कि साधकों की मानसिक परिधि भी निर्धारित सीमा-मर्यादा में ही केन्द्रित रहे, बन्दर की तरह इधर-उधर उछल कूद न मचाये। योगिराज अरविन्द ने इसी प्रकार का कुटी प्रवेश किया था। निजी साधना में तो और भी ऐसे कितने ही तपस्वी हैं जो जीवन की निर्धारित परिधि में ही केन्द्रीभूत रहते हैं। न शरीर को इधर-उधर मचलने-भटकने देते हैं और न मन को ही आवारागर्दी में भटकने की छूट देते हैं। उच्चस्तरीय साधनाओं में यही नीति अपनाई जानी चाहिए। कल्प साधकों की साधना अवधि एक महीने की हो या दस दिन की, उन्हें परिपूर्ण श्रद्धा के साथ उसी प्रयोजन में तन्मय होना चाहिए, शरीर एवं मन को जहां-तहां भटकने न देकर अन्तर्जगत में ही सीमाबद्ध रहने में निरत रखना चाहिए। गुफा प्रवेश की समाधि साधना जैसा स्तर बना कर ही इस अवधि को पूर्ण करना चाहिए। यदि अवधि बढ़ायी जा सके तो और भी अधिक लाभ मिलते हैं।

आत्म साक्षात्कार, आत्म दर्शन, आत्म बोध आदि की अध्यात्म शास्त्रों में भाव भरी चर्चा है। भगवान बुद्ध को जिस वट वृक्ष के नीचे आत्म बोध हुआ था, उसे ‘बोधिवृक्ष’ नाम दिया गया, देवतुल्य पूजा गया एवं उसकी टहनियां काटकर संसार भर के बौद्ध धर्मानुयायी ले गये और अपने-अपने यहां उसकी स्थापना करके वैसे ही देवात्मा बोधिवृक्ष उगाये। यहां चर्चा वृक्ष विशेष की नहीं हो रही है वरन् यह कहा जा रहा है कि आत्मबोध, आत्मदर्शन ही उच्चस्तरीय देव वरदान है। जिसे उसकी उपलब्धि जिस अनुपात में हो गई समझना चाहिए कि वह उतना ही बड़ा श्रेयाधिकारी बन गया।

सभी देव मानवों की अन्तः स्थिति यही रही है। इनने अपने को जाना, समझा है और आत्म गौरव को प्रमुखता देकर तद्नुरूप जीवनचर्या का निर्धारण किया है। इतने भर से आगे की सारी बात बन जाती है। सही दिशा में प्रवाह चल पड़े तो अन्ततः उसकी समाप्ति समुद्र मिलन के रूप में ही होगी। जिन्हें भव बन्धनों का, समस्त संकटों का, हनन-पराभवों का आधारभूत कारण माना गया है वे और कुछ नहीं मात्र आत्म-विस्मृति के रूप में, निकृष्ट दृष्टिकोण के रूप में अन्तराल पर चढ़े कुसंस्कारी कषाय कल्मष भर हैं।

अपने आपको विस्मृत कर देने के उपरान्त फिर भटकाव ही भटकाव शेष रहता है। कस्तूरी मृग की निराशा और मृगतृष्णा की थकान की कथा प्रसंगों में बार-बार चर्चा होती रहती है। सियारों के झुण्ड में पले सिंह शावक का जल में परछाई देखकर आत्म-बोध होने पर पिछला स्वभाव तत्काल बदल देने वाला दृष्टान्त सभी ने सुना है। इस उद्धरण में उपनिषदकार का वही उद्बोधन झांकता है जिसमें ‘आत्मावतरे ज्ञातव्य.............’ आदि की हुंकार है। गीताकार का मन्तव्य है ‘उद्धरेत आत्मनात्मानं..........’ यह आत्मदर्शन ही प्रकारान्तर से ईश्वर दर्शन है। इसी उपलब्धि को जीवन मुक्ति कहा गया है। जीवन लक्ष्य का चरम बिन्दु यहीं पहुंचने पर समाप्त होता है।

आत्म दर्शन शब्द रहस्यवादियों के जाल जंजाल में फंसकर कुछ ऐसा बन गया है मानो किसी जादुई दृश्य को देखने और आश्चर्यचकित रह जाने जैसे कौतुक भरी स्थिति-परिस्थिति की चर्चा की जा रही हो। अनुमान लगता है कि आत्मा कोई अद्भुत आकृति की अन्तरिक्ष वासिनी देवी होगी जो बिजली की तरह साधक को अपनी छवि दिखाने के साथ-साथ वरदानों का पिटारा साधक पर उड़ेल कर फिर आकाश में विलुप्त हो जाती होगी। इन बाल कल्पनाओं के लिए तो कोई क्या कहे? पर जिन्हें तत्वदर्शन समझने का, ब्रह्म विद्या के प्रतिपादनों में प्रवेश करने का अवसर मिला है, उन्हें इस तथ्य को समझने में कहीं कोई भ्रम नहीं होना चाहिए कि अदृश्य आत्मा का दृश्यमान स्वरूप जीवन ही है। उसी को आत्मसत्ता के रूप में, व्यक्तित्व की समग्रता के रूप में देखा-समझा जा सकता है। आत्म साधना का तात्पर्य है—जीवन साधना। निराकार आत्मा का यही साकार रूप है। आत्मदेव को सर्वोपरि देव कहा गया है। उसकी तुलना कल्पवृक्ष से की गई है और कहा गया है कि उसकी आराधना करने वाले की सभी मनोवांछाएं पूर्ण होकर रहती हैं।

वेदान्त दर्शन में आत्मा को ब्रह्म कहा गया है। ‘अयमात्मा ब्रह्म-तत्वमसि प्रज्ञानं ब्रह्म-सच्चिदानन्दोऽहम्-शिवोऽहम्’ आदि सूत्र संकेतों में इसी तथ्य का प्रतिपादन है कि अपना परिष्कृत आपा ही सुविकसित, सुसंस्कृत स्थिति में पहुंचने पर परब्रह्म की, परमात्मा की भूमिका निभाने लगता है। नर पिशाच, नर पशु, नर कीटक की स्थिति तभी तक रहती है जब तक साधक को अपने आपका बोध नहीं होता।

जब ‘स्व’ शरीर तक सीमाबद्ध हो जाता है तब आकांक्षाएं, विचारणाएं, गतिविधियां भी काय कलेवर की शोभा सुविधा बढ़ाने में ही निरत रहने लगती है। विलास, वैभव ही इष्ट बन जाता है। वासना, तृष्णा और अहंता की पूर्ति के लिए ही समूची प्रतिभा नियोजित रहती है। कई बार तो यह लिप्साएं इतनी आकुल-व्याकुल हो उठती हैं कि नीति-मर्यादा के औचित्य अनुशासन का उल्लंघन करने में तनिक भी संकोच नहीं होता।

दुनियादारी पर छाई रहने वाली इस दुर्बुद्धिजन्य दुर्गति से उबरने में वेदान्त शिक्षा ही समर्थ नौका का काम  देती है। उस तत्व दर्शन को अपनाने से आत्म-बोध उभरता है। अपनी स्थिति का सही ज्ञान होता है और लगता है कि अज्ञान आच्छादन से छुटकारा पाना ही परम पुरुषार्थ है। यही जीवन लक्ष्य भी है। मुक्ति के नाम से इसी स्थिति की सुखद सम्भावनाएं शास्त्रकारों ने सुविस्तृत विवेचना एवं आकर्षक अलंकारिक भाव संवेदना के साथ प्रस्तुत की हैं।

आत्मबोध को आत्मदर्शन का पुरुषार्थ कहा गया है। यही चरम सौभाग्य भी है। इसी एक साधना के सधने से असंख्य विपत्तियों से छुटकारा मिलता है और समस्त सिद्धियों का द्वार खुलता है। ब्रह्म विद्या की उपनिषद् चर्चा में अनेकानेक तर्कों, तथ्यों, मार्गदर्शक प्रमाणों व उपचार को प्रस्तुत करते हुए श्रेयार्थी को एक ही शिक्षा, एक ही प्रेरणा की गयी है कि वह माया बन्धनों से मुक्त होने का प्रयत्न करे। माया अर्थात् अपने को शरीर मानने की, उसी की वासना तृष्णा में पिसने की लिप्सा शरीर सम्बन्धियों को भी इसी परिधि में गिनकर व्यक्ति गूलर के फलों की तरह इसी संकीर्णता की कीच में सड़ता-गलता रहता है। इसी नरक दल-दल से उबरने, उछलने की साहसिकता, दूरदर्शिता उभारने के लिए ही कई प्रकार के योगाभ्यास तप साधन किए जाते हैं। स्वाध्याय, सत्संग, चिंतन, मनन के चारों प्रयोग उपचार इसी एक आवश्यकता की पूर्ति में नियोजित किए जाते हैं।

आध्यात्मिक कल्प के दिनों में साधक का समूचा चिंतन इस एक ही तथ्य के इर्द-गिर्द भ्रमण करना चाहिए कि वह शरीर नहीं आत्मा है। वह ब्रह्म लोक का निवासी है। वही उसका घर परिवार है। यहां तो मेले-ठेले का प्रबन्ध करने, अपव्यय को व्यवस्था में बदलने के विशेष उद्देश्य के लिए उसकी सुरक्षा रखना भर उसका कर्तव्य है। इन्द्रिय लिप्सा और मनोगत तृष्णा तो छलावा भर है। वास्तविक हित साधन तो आत्मा की आवश्यकता पूरी करने के लिए पुरुषार्थ करने में है। इस स्तर का चिंतन निरंतर जारी रखा जाय। शरीर से आत्मा की भिन्नता को पढ़ने, रटने से काम नहीं चलता। उसकी अनुभूति उभरनी चाहिए। इसके लिए एक ही स्तर की दृश्यावली कल्पना क्षेत्र पर छाई रहनी चाहिए—आत्मा और शरीर की भिन्नता तथा दोनों की अपने-अपने ढंग की आवश्यकता। दोनों के बीच दूरदर्शी ताल-मेल बिठाने वाली ‘महाप्रज्ञा’ की भाव भूमि का, चान्द्रायण अवधि में इसी वेदान्त प्रतिपादित आत्मानुभूति का, अभ्यास करते रहना चाहिए। इसके लिए कोई नियत समय निर्धारित करने की आवश्यकता नहीं है। काम करते, चलते-फिरते विभिन्न उदाहरणों को अपनाकर इस अनुभूति को उभारने, परिपक्व करने का प्रयत्न करना चाहिए।

वाहन, सेवक, उपकरण, वस्त्र आदि की उपमा शरीर की और स्वामी, प्रयोक्ता की स्थिति आत्मा की समझी जाने लगे तो समझना चाहिए कि आत्मदर्शन का आलोक उभरा। इस अनुभूति के साथ ही वे तथ्य भी प्रकट होते हैं जिनमें अपना स्थाई निवास ब्रह्मलोक में होने का प्रतिपादन है। उत्कृष्टता की भाव-भूमिका में होने की बात पर विश्वास जमता है, साथ ही इस निष्कर्ष पर पहुंचने में भी कठिनाई नहीं होती कि शरीर को उपयुक्त पोषण और आत्मा को उबारने का अवसर मिलना चाहिए। यह सब कैसे बन पड़े? इसका निर्धारण दूरदर्शी-विवेकशीलता, महाप्रज्ञा का अवलम्बन लेने से ही शक्य होता है।

बड़ी समस्यायें सामने आने पर उनका स्वरूप समझने, संभावनाओं का अनुमान लगाने, हल करने का उपाय खोजने, सहयोग और साधन जुटाने के सम्बन्ध में कई प्रकार से ताना-बाना बुनना पड़ता है। तब कुछ कामचलाऊ रास्ता निकलता है। चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवार वोट पाने के लिए अनेक उपाय सोचते हैं और अनेक उपाय अपनाते हैं। जीवन की सबसे बड़ी बाजी जीतने का इन दिनों यही आधार समझा जाना चाहिए कि आत्मबोध की न केवल झांकी, कल्पना उभरती रहे वरन् स्थिति उस स्तर तक पहुंचे कि मान्यता की परिपक्वता अर्थात् अपने को आत्मा के रूप में शरीर से भिन्न देखने का अनुभव अभ्यास भी परिपक्व होने लगे।

आत्मोत्कर्ष की यह भाव संवेदना जिस अनुपात में उभरेगी, उतना ही यह विश्वास बढ़ेगा कि आत्मा और परमात्मा का संयुक्त समन्वय जीवन सम्पदा के रूप में प्रत्यक्ष है। उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग की योजना बनाना और कार्यान्वित करना यही ही वेदांत साधना है और यही है आत्मदेव की यथार्थवादी आराधना-अभ्यर्थना।

वेदान्त चिन्तन का समुद्र मंथन चलते रहने पर उससे जिस सर्वोपरि उपहार-अनुदान की उपलब्धि होती है उसे अमृत कहते हैं। मंथन अर्थात आत्मबोध अर्थात् जीवन सम्पदा की उच्चस्तरीय ईश्वरीय अनुदान के रूप में मान्यता। इसका श्रेष्ठतम सदुपयोग कैसे बन पड़े इसी के चिन्तन, मन्थन और निर्धारण को ब्रह्म विद्या का सारतत्व समझा जाना चाहिए। कल्प की अवधि में चेतना को एक ही समस्या को समझाने में जुटाये रहना चाहिए कि आत्मा की, उसके दृश्यमान प्रतिनिधि जीवन की ‘आत्मदेव’ की अभ्यर्थना कैसे की जाय और उस कल्प वृक्ष के नीचे बैठकर ऋद्धि-सिद्धियों का अनन्त वैभव वरदान किस प्रकार पाया जाए।

साधक महाप्रज्ञा गायत्री का अनुष्ठान सवालक्ष का इस अवधि में करते ही हैं। अनुष्ठान में जप के साथ चिन्तन, आत्मनिर्देशन, दिशा चयन, लक्ष्य प्राप्ति की तीव्र जिज्ञासा का भाव-भरा समावेश है। इससे कम में अनुष्ठान पूर्ण हुआ माना नहीं जाना चाहिए। मात्र मुंह से जप लेना, मनके घुमा लेना, किसी तरह 4-5 घण्टे की अवधि काट लेना तो एक प्रकार से सिर पर आई बला को टालना है। चिन्तन को सुनियोजित बनाकर लक्ष्य के साथ जब तादात्म्य हुआ जाता है तो स्वयं ही अपना व्यक्तित्व उस सांचे में ढलने लगता है जो कल्प साधना की अंतिम परिणति होना चाहिए। उपासना साकार हो या निराकार अनुष्ठान के साथ जुड़े चिन्तन पर उसकी सफलता निर्भर करती है। पूरे एक माह की अवधि में व्यक्ति अधिकाधिक अपने अन्तः को बदलने में समर्थ हो सके इसके लिए निरन्तर आत्मदर्शन एवं आत्ममुखी चिन्तन को प्रधानता देनी होगी। स्वाध्याय के साथ सोद्देश्य चिन्तन प्रधान अनुष्ठान साधना के प्रतिफल अत्यधिक महत्वपूर्ण होते हैं, साधक कृतकृत्य होता है एवं अपनी जीवन धारा को नये ही पड़ाव पर पाता है।

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