आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

दुष्कृतों के अवरोधों को हटाने की साहसिकता उभरे

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साधना क्षेत्र में इस भ्रांति को मिटा देना चाहिए कि संचित दुष्कर्मों को अपने ही स्थान पर छोड़कर आत्मिक प्रगति की जा सकती है। ऐसी उड़ान न तो सम्भव है और न विधि-विधान के अनुकूल ही। कक्षायें उत्तीर्ण करते हुए ही विद्यार्थी स्नातक की उपाधि पाते और अफसर बनते हैं। छलांगें भी कई क्षेत्रों में लगती हैं और लोग जीवट भरे काम करते सफल होते दिखाई देते हैं। परन्तु आत्मिक क्षेत्र में ऐसी सुविधा नहीं है। संचित दुष्कर्मों से विनिर्मित प्रारब्ध न केवल विपत्तियों, असफलताओं का त्रास देता है, वरन् उच्चस्तरीय प्रगति के पथ पर चलने में भी अनेक विघ्न उपस्थित करता है। रास्ते को रोके खड़ी इन चट्टानों को हटाने-सरकाने के लिए साहसपूर्ण पराक्रम अन्तः से उभरकर आता है और स्वयं को कष्ट देते हुए भी मन को शांत व काया को स्वस्थ बनाता है। यही है प्रायश्चित प्रक्रिया, जिसे कल्प साधना में प्रमुखता और वरीयता दी गई है।

कर्मफल की सम्भावना सुनिश्चित है, उसे विश्व-व्यवस्था का एक अनिवार्य एवं अविच्छिन्न अंग ही समझा जाना चाहिए। इन संचयों को स्वयं ही भुगतना होता है। देव-दर्शन, नदी-स्नान, पूजा-उपचार, कथा-वार्ता एवं छुट-पुट कर्मकाण्डों का प्रयोजन इतना ही है कि उनसे परिशोधन-परिमार्जन की ओर ध्यान मुड़े, महत्व समझने का अवसर मिले और वह साहस उभरे जिससे कर्मफल भुगतने का दूसरा विकल्प-प्रायश्चित स्वेच्छापूर्वक बन पड़े। प्रायश्चित के लिए किये जाने वाले व्रत-उपवासों के सामयिक प्रतिफल भी होते हैं, किन्तु वास्तविक एवं चिरस्थायी लाभ देने वाला तथ्य यह है कि दुष्कृत्यों के प्रति घृणा उभरे, भविष्य में वैसा न करने का संकल्प मचले, साथ ही जो किया गया है उसकी क्षति-पूर्ति करने की सदाशयता की खाई पाटने के लिए उत्साह भरा साहस उत्पन्न करे।

यह सारा संसार कर्म व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। भगवान ने दुनिया बनाई और उसके सुसंचालन के लिए कर्म-विधान रच दिया। जो जैसा करता है, वह वैसा भोगता है, सिद्धांत अकाट्य है। लोग भ्रम में इसलिए पड़ते हैं कि कई बार कर्मों का तत्काल फल नहीं मिलता। उसमें विलम्ब हो जाता है। यदि शुभ-अशुभ कर्मों का फल तत्काल मिल जाया करता तो दूरदर्शिता, विवेकशीलता की आवश्यकता ही न पड़ती। आग दूने से हाथ जल जाता है इस प्रत्यक्ष तथ्य के कारण कोई आग में हाथ डालने की मूर्खता नहीं करता। किन्तु सुकृत्यों और दुष्कृत्यों का परिणाम तत्काल नहीं मिलता। उसके परिपाक में देरी हो जाती है। इतने में ही बाल-बुद्धि के लोग अधीर हो जाते हैं। पुण्य के सम्बन्ध में निराशा और पाप के सम्बन्ध में निर्भय हो जाते हैं। जो करणीय है उसे छोड़ बैठते हैं और जो नहीं करना चाहिए उसे करने लगते हैं। यही है वह माया, जिसके बन्धन में जकड़े हुए लोक दिग्भ्रान्त होते, भूल भुलैयों में उलझते तथा भटकावों में खिन्न, उद्विग्न बने दिखाई पड़ते हैं।

आज का जमाया हुआ दूध कल दही बनता है, आज का बोया बीज बहुत समय में वृक्ष बनता है, आज का अध्ययन, व्यायाम आज ही कहां फल देता है? परिणाम में देर लगने पर बालक निराश हो सकते हैं, पर विचारशील लोग अपनी निष्ठा विचलित नहीं होने देते और आशा, विश्वास के साथ काम करते रहते हैं। असंयम बरतने पर उसी दिन शरीर रुग्ण नहीं हो जाता। जिस दिन चोरी की जाय, उसी दिन जेल भुगतनी पड़े ऐसा कहां होता है? तो भी समझदारी सुझाती है कि कल नहीं परसों परिणाम मिलकर ही रहेगा। पर लोग भ्रमग्रस्त होकर, कर्मफल के सम्बन्ध में विश्वास छोड़ बैठते हैं। इसी इन्कारी को वास्तविक नास्तिकता कहना चाहिए।

दुष्कर्मों का प्रतिफल कई रूपों में भुगतना पड़ता है। लोक-निन्दा होती है। ऐसे व्यक्ति दूसरों की आंखों में अप्रामाणिक-अविश्वस्त ठहरते हैं। उन्हें किसी का सघन विश्वास एवं सच्चा सहयोग नहीं मिलता। श्रद्धा और सम्मान तो उसी को मिलता है, जिसकी प्रामाणिकता असंदिग्ध होती है। जन-विश्वास एवं सहयोग के आधार पर कोई व्यक्ति प्रगति करता और सफल होता है। संदिग्ध चरित्र वाले व्यक्तियों को इस लाभ से वंचित रहना पड़ता है और वे मित्र विहीन एकाकी-नीरस जीवन जीते हैं। घनिष्ठता का लाभ तो उन्हें स्वजनों से भी नहीं मिलता। वे भी सदा आशंका की दृष्टि से देखते हैं और दिखावे का सहयोग दे पाते हैं। आत्म-प्रताड़ना का दुरूह दुख ऐसे ही लोगों को सहना पड़ता है। दूसरों को झुठलाया जा सकता है, पर अपनी ही आत्मा को कैसे बहकाया जाय? वह दुष्कर्मों से स्वयं खिन्न रहती है। आत्म–धिक्कार से आत्म बल निरन्तर गिरता जाता है।

समाज तिरस्कार, असहयोग, विरोध, उपेक्षा ये प्रत्यक्ष हानियां हैं। जिनके ऊपर घृणा और तिरस्कार बरसता है उनकी अन्तरात्मा को पत्थर बरसने से भी अधिक अन्तःपीड़ा सहनी पड़ती है। धन छिन जाना उतनी बड़ी हानि नहीं है जितना कि विश्वास, सम्मान और सहयोग चला जाना। दुष्कर्मों का यह सामाजिक दण्ड हर कुमार्गगामी को भुगतना पड़ता है। पाप और पारा छिपता नहीं। वह फूट-फूटकर देर-सवेर में बाहर निकलता ही है। सत्कर्म छिप सकते हैं, दुष्कर्म नहीं। हींग की गन्ध कई थैलियों में बन्द करके रखने पर भी फैलती है और दुष्कर्मों की गन्ध हवा में इस तरह उड़ती है कि किसी के छिपाये नहीं छिपती। समाज दण्ड असहयोग-बहिष्कार के रूप में तो बरसता ही है, कई बार वह प्रतिशोध और प्रत्याक्रमण के रूप में भी सामने आता है। लोग अनीति के विरुद्ध उबल पड़ते हैं तो दुरात्मा का कचूमर ही निकाल कर रख देते हैं। आये दिन ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं जिनमें अनीति करने वाले को प्रकारान्तर से दण्ड भुगतना ही पड़ा।

न केवल अध्यात्म क्षेत्र में वरन् भौतिक जीवन में भी यही सिद्धांत काम करता है। रक्त विकार जैसे रोगों को दूर करने के लिए कुशल वैद्य पेट की सफाई करने के उपरान्त अन्य रक्त शोधक उपचार करते हैं। कायाकल्प चिकित्सा में बलवर्धक औषधियों का नहीं, संचित मलों का निष्कासन करने वाले उपायों को ही प्रधान रूप से कार्यान्वित किया जाता है। वमन, विरेचन, स्वेदन आदि क्रियाओं द्वारा मल निष्कासन का ही प्रयास किया जाता है इसमें जितनी सफलता मिलती जाती है, उसी अनुपात से जरा जीर्ण, रोगग्रस्त व्यक्ति भी आरोग्य लाभ करता है और बलिष्ठ बनता चला जाता है। कायाकल्प चिकित्सा का विज्ञान इसी सिद्धांत पर आधारित है।

दोष, दुर्गुणों के रहते चिरस्थाई प्रगति के पथ पर चल सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं हुआ है। फूटे बर्तन में दूध दुहने से पल्ले कुछ नहीं पड़ता, पशु पालने और दुहने का श्रम निरर्थक चला जाता है। कषाय-कल्मषों से, दोष-दुर्गुणों से लड़ने के लिए जो संघर्ष, पुरुषार्थ करना पड़ता है, उस के विधि-विधानों को तप साधना कहते हैं। अपना शोधन जितना अधिक सम्भव हो सके, समझना चाहिए—कल्प साधना की तप प्रक्रिया में उतनी ही प्रगति पथ की यात्रा पूरी कर ली गई। इसके अभाव में कठोर अनुष्ठान भी अधूरे रह जाते हैं। असफलता के कारण, कर्मफल के न मिल पाने के कारण ऐसे व्यक्ति निराश होते हुए भी देखे जाते हैं, पर कालान्तर में शोधन पूरा होते ही उन्हें लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है। आयुर्वेद के प्रख्यात ग्रन्थ माधव निदान के प्रणेता माधवाचार्य अपने साधना काल में वृन्दावन में रहकर समग्र तन्मयता के साथ गायत्री महापुरश्चरणों में संलग्न थे। उन्होंने पूर्ण विधि-विधान के साथ लगातार 11 वर्षों तक अपनी साधना जारी रखी। इतने पर भी उन्हें सिद्धि का कोई लक्षण प्रकट होते दिखाई न पड़ा। इस असफलता से उन्हें निराशा भी हुई और खिन्नता भी। सो उसे आगे और चलाने का विचार छोड़कर काशी चले गये।

काशी के गंगा तट पर वे बड़ी दुःखी मनःस्थिति में बैठे हुए थे कि उधर से एक अघोरी कापालिक आ निकला। साधक की वेशभूषा और छाई खिन्नता जानने के लिए वह रुक गया और कारण पूछने लगा। माधवाचार्य ने अपनी व्यथा कह सुनाई। कापालिक ने आश्वासन दिया कि उसे वैभव की सिद्धि का विधान आता है। एक वर्ष तक उसे नियमित रूप से करने पर सिद्धि निश्चित है। माध्वाचार्य सहमत हो गये और कापालिक के बताये हुए विधान के साथ मणिकर्णिका घाट की श्मशान भूमि की परिधि में रहकर साधना करने लगे, बीच-बीच में गई डरावनी और लुभावनी परीक्षायें होती रहीं। उनका धैर्य और साहस सुदृढ़ बना रहा, एक वर्ष पूरा होते-होते भैरव प्रकट हुए और वरदान मांगने की बात कहने लगे।

माधवाचार्य ने आंख खोलकर चारों ओर देखा पर बोलने वाला कहीं दिखाई न पड़ा। उन्होंने कहा—‘यहां आये दिन भूत-पलीत ऐसी ही छेड़खानी करने आया करते हैं और ऐसी ही चित्र-विचित्र वाणियां बोलते हैं। यदि आप सचमुच ही भैरव हैं तो सामने प्रकट हों। आपके दर्शन करके चित्त का समाधान कर लूं तो वरदान मांगू।’ इसका उत्तर इतना ही मिला, ‘‘आप गायत्री के उपासक रहे हैं। आपके मुख मण्डल पर इतना ब्रह्म तेज छाया हुआ है कि सामने प्रकट होकर अपने को संकट में डालने की हिम्मत नहीं है। जो मांगना हो ऐसे ही मांग लो।’’

माधवाचार्य असमंजस में पड़ गये—‘यदि गायत्री पुरश्चरणों से इतना ही ब्रह्मतेज उत्पन्न होता है तो उसकी कोई अनुभूति मुझे क्यों नहीं हुई?’ सिद्धि का आभास क्यों नहीं हुआ। यह प्रश्न बड़ा रहस्यमय था, जो भैरव के सम्वाद से ही उपजा था। उन्होंने समाधान भी उन्हीं से पूछा और कहा—‘देव! यदि आप प्रकट नहीं हो सकते और गायत्री उपासक को इतना तेजस्वी पाते हैं तो कृपा कर यह बता दें कि मेरी इतनी निष्ठा भरी उपासना निष्फल कैसे हो गई? इतना समाधान करा देना भी आपका वरदान जैसा ही होगा। जब आप गायत्री तेज के सम्मुख होने तक का साहस नहीं कर सकते तो फिर आपसे अन्य वरदान क्या मांगू।’

भैरव ने उनकी इच्छा पूर्ति की और पिछले ग्यारह जन्मों के दृश्य दिखाये जिनमें अनेक पाप कृत्यों का समावेश था। भैरव ने कहा—‘आपके एक-एक जप गायत्री पुरश्चरण से एक-एक जन्म के पाप कर्मों का परिशोधन हुआ है। ग्यारह जन्मों के संचित पाप निर्मित प्रारब्धों के दुष्परिणाम इन ग्यारह वर्षों की तप साधना से नष्ट हुए हैं। अब आप नये सिरे से फिर उसी उपासना को करें। संचित प्रारब्ध की निवृत्ति हो जाने से आपको आगे के प्रयासों में सफलता मिलेगी।’

माधवाचार्य फिर वृन्दावन लौट गये और बारहवां पुरश्चरण करने लगे। अब की बार उन्हें आरम्भ से ही साधना की सफलता के लक्षण प्रकट होने लगे और बारहवां वर्ष पूरा होने पर इष्टदेव का साक्षात्कार हुआ, उन्हीं के अनुग्रह से वह प्रज्ञा प्रकट हुई, जिसके सहारे माधव निदान जैसा महान ग्रन्थ लिखकर अपना यश अमर करने और असंख्यों का हित साधन कर सकने की उपलब्धि मिली और जीवन का लक्ष्य पूरा कर सकने में सफल हुए।

इस गाथा से इस तथ्य पर प्रकाश पड़ता है कि साधना की सिद्धि में प्रधान बाधा क्या है? संचित दुष्कर्म ही उस मार्ग की सफलता में प्रधान रूप से बाधक होते हैं। यदि उनके निराकरण का उपाय सम्भव हो सके तो अभीष्ट सफलता सहज ही मिलती चली जायेगी।

बाल विनोद की प्रारम्भिक साधनायें तो मात्र नित्य कर्म कहलाती हैं। उनमें देव प्रतिमाओं के पूजा उपचार को ही महत्व दिया जाता है और अनेक गुना अधिक माहात्म्य समझाया जाता है। उच्चस्तरीय साधनाओं का परिणाम भी असाधारण होता है। उसके लिए उचित मूल्य चुकाने वाली कठोर साधनाएं अनिवार्य हैं। संचित अशुभ का निराकरण और शुभ, सुखद का शीघ्र परिपाक होने के दोनों ही उद्देश्य इन तप साधनाओं द्वारा सम्पन्न होते हैं। कल्प साधना जैसे उपक्रमों को अपनाते हुए साधक निश्चित ही प्रगति पथ पर अग्रसर होता है।

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