आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

कर्मफल की सुनिश्चतता : एक महत्वपूर्ण तथ्य

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कर्मफल अथवा कर्म-परिपाक से कालान्तर में मिलने वाले परिणाम एक ऐसी सच्चाई का रहस्योद्घाटन करते हैं, जिसे इच्छा या अनिच्छा से सबको स्वीकार करना होगा। यह मानकर चलना चाहिए कि समूची सृष्टि एक सुनियोजित व्यवस्था की शृंखला में जकड़ी हुई है। अनुशासन के उल्लंघन की किसी को भी विशेषाधिकार के नाते छूट नहीं। क्रिया की प्रतिक्रिया का नियम हरेक पर, स्थान-स्थान पर लागू होता है और उसकी परिणति का दर्शन पग-पग पर होता है।

भूतकाल के कृत्यों के आधार पर ही वर्तमान बनता है और वर्तमान का जैसा भी स्वरूप है, उसके अनुरूप भविष्य बनता चला जाता है। जो विद्या किशोरावस्था में कमाई जाती है एवं स्वास्थ्य सम्पदा जवानी में अर्जित होती है, वह बाद में बलिष्ठता एवं सम्पन्नता के रूप में सामने आती है। यौवन का सदुपयोग-दुरुपयोग बुढ़ापे के जल्दी या देर में आने, देर तक जीने या जल्दी मृत्यु की गोद में चले जाने के रूप में परिणाम होता है। वृद्धावस्था की मनःस्थिति संस्कार बनकर मरणोत्तर जीवन में साथ जाती है और पुनर्जन्म के रूप में अपनी परिणति प्रकट करती है।

यही प्रक्रिया संसार की समस्त गतिविधियों में दृष्टिगोचर होती है, जीवन के हर क्षेत्र में अपने प्रभाव का परिचय देती है। आज की परिस्थितियों के सम्बन्ध में पिछले आलस्य या उत्साह को श्रेय दिया जा सकता है। सत्कर्म एवं दुष्कर्मों के सम्बन्ध में भी यही बात है। वे देर सवेर में अपनी परिणति प्रस्तुत किये बिना रहते ही नहीं। वर्तमान का जैसा भी स्वरूप है उसमें कृत्य की ही प्रधान भूमिका रहती है।

कुछ कर्म तत्काल फल देते हैं, कुछ की परिणति में विलम्ब लगता है। व्यायामशाला, पाठशाला, उद्योगशाला के साथ सम्बन्ध जोड़ने के सत्परिणाम सर्वविदित है, पर वे उसी दिन नहीं मिल जाते, जिस दिन प्रयास आरम्भ किया जाता है। कुछ काम अवश्य ऐसे होते हैं जो हाथों हाथ फल देते हैं। मदिरा पीते ही नशा आता है। जहर खाते ही मृत्यु होती है। गाली देते ही घूंसा तनता है। दिनभर परिश्रम करने पर ही शाम को मजूरी मिलती है। टिकिट खरीदते ही सिनेमा का मनोरंजन चल पड़ता है। ऐसे भी अनेक काम हैं, पर सभी ऐसे नहीं होते। कुछ काम निश्चय ही ऐसे होते हैं जो देर लगा देते हैं। असंयमी लोग जवानी में खोखले बनते रहते हैं। उस समय कुछ पता नहीं चलता किन्तु दस बीस वर्ष भी बीतने नहीं पाते कि काया की जर्जरता अनेक रोगों से घिर जाती है।

समय साध्य परिणितियों को देखकर अनेक को कर्मफल पर अविश्वास होने लगता है। वे सोचते हैं कि आज का प्रतिफल हाथों हाथ नहीं मिला तो वह कदाचित् भविष्य में भी  कभी नहीं मिलेगा। अच्छे काम करने वाले प्रायः इसी कारण निराश होते और बुरे काम करने वाले अधिकांश निर्भय-निरंकुश बनते हैं। तत्काल फल न मिलने की व्यवस्था भगवान ने मनुष्य की दूरदर्शिता, विवेकशीलता को जांचने के लिए ही बनाई है। अन्यथा वह ऐसा भी कर सकता था कि झूंठ बोलते ही मुंह में छाले भर जायें। चोरी करने वाले के हाथ में दर्द होने लगे। व्यभिचारी तत्काल नपुंसक बन जाय। यदि ऐसा रहा होता तो आग में हाथ डालने से बचने की तरह लोग पाप कर्मों से भी बचे रहते और दीपक जलाते ही रोशनी की तरह पुण्य फल का हाथों-हाथ चमत्कार देखते। पर ईश्वर को क्या कहा जाय, उसकी भी तो अपनी मर्जी और व्यवस्था है। सम्भवतः मनुष्य की दूरदर्शिता विकसित करने एवं परखने के लिए ही इतनी गुंजाइश रखी है कि वह सत्कर्मों और दुष्कर्मों का प्रतिफल विलम्ब से मिलने पर भी अपनी समझदारी के आधार पर भविष्य को ध्यान में रखते हुए आज की गतिविधियों को अनुपयुक्तता से बचायें और सत्साहस को अपनाने में जो अवरोध आते हैं, उन्हें भी धैर्यपूर्वक सहन करें। वस्तुतः कर्म फलित होने में देर लगती है। हथेली पर सरसों उगाई जा सकती है, बोने से दस दिन में ही जिनके अंकुर छः इंच ऊंचे उग आते हैं। किन्तु जिनका जीवन लम्बा है, जो चिरस्थाई हैं, उनके बढ़ने और प्रौढ़ होने में देर लगती है। नारियल की गुठली बो देने पर भी एक वर्ष में अंकुर फोड़ती है और वर्षों में धीरे-धीरे बढ़ती है। बरगद का वृक्ष भी देर लगाता है, जबकि अरण्ड का पेड़ कुछ ही महीनों में बढ़ने और फल देने लगता है। हाथी जैसे दीर्घजीवी पशु, गिद्ध जैसे पक्षी, ह्वेल जैसे जलचर अपना बचपन बहुत दिन में पूरा करते हैं, जबकि खरगोश जैसे छोटे प्राणी एक वर्ष में ही बच्चे पैदा करने लगते हैं। मक्खी, मच्छरों का बचपन और यौवन बहुत ही जल्दी आता है, पर वे मरते भी उतनी ही जल्दी हैं। शारीरिक और मानसिक परिश्रम का, आहार-विहार का, व्यवहार-शिष्टाचार का प्रतिफल हाथों हाथ मिलता रहता है। उसकी उपलब्धियां सामयिक होती हैं, चिरस्थायी नहीं। स्थायित्व नैतिक कृत्यों में होता है, उनके साथ भाव संवेदनाएं और आस्थाएं जुड़ी होती हैं। जड़ें अन्तरंग की गहराई में धंसी रहती हैं इसलिए उनके भले या बुरे प्रतिफल भी देर में मिलते हैं और लम्बी अवधि तक ठहरते हैं। इन कर्मों के फलित होने में प्रायः जन्म-जन्मांतरों जितना समय लग जाता है।

अन्तःकरण की संरचना दैवी तत्वों से हुई है। उसमें स्नेह, सौजन्य, सद्भाव, सच्चाई जैसी सत्प्रवृत्तियां ही भरी पड़ी हैं। जीवन-यापन की रीति-नीति उत्कृष्टता के आधार पर बनाने की प्रेरणा इस क्षेत्र से अनायास ही मिलती रहती है।

इस क्षेत्र में जब निकृष्टता प्रवेश करती है तो सहज ही उसकी प्रतिक्रिया होती है। रक्त में जब बाहरी विजातीय तत्व प्रवेश करते हैं तो श्वेत कण उन्हें मार भगाने में प्राण-पण से संघर्ष छेड़ते हैं और परास्त करने में कुछ उठा नहीं रखते। ठीक इसी प्रकार अन्तःकरण की दैवी चेतना भी आसुरी दुष्प्रवृत्तियों को जीव-सत्ता में प्रवेश करने और जड़ जमाने की छूट नहीं देना चाहती। फलतः दोनों के बीच संघर्ष छिड़ जाता है। यही अंतर्द्वंद्व है जिसके बने रहते आंतरिक जीवन अशांत ही बना रहता है और उस विक्षोभ की अनेक दुःखदायी प्रतिक्रियाएं फूट-फूटकर बाहर आती रहती हैं।

दो सांड़ लड़ते हैं तो लड़ाई की जगह को तहस-नहस करके रख देते हैं। खेत में लड़े तो समझना चाहिए कि उतनी फसल चौपट ही हो गई। दुष्प्रवृत्तियां जब भी, जहां भी अवसर पाती हैं वहीं घुंसपैठ करने, जड़ जमाने में चूकती नहीं। घुन की तरह मनुष्य को खोखला करती हैं और चिनगारी की तरह चुपचाप सुलगती हुई अन्त में सर्वनाशी ज्वाला बनकर प्रकट होती हैं। ठीक इसी प्रकार दुष्प्रवृत्तियां आत्म-सत्ता पर आधिपत्य जमाने के लिए कुचक्र रचती रहती हैं। किन्तु अन्तरात्मा को यह स्थिति सह्य नहीं। अस्तु वह विरोध पर अड़ी ही रहती है। फलतः संघर्ष चलता ही रहता है उसके दुष्परिणाम अनेकानेक शोक संतापों के रूप में सामने आते रहते हैं।

मनोवैज्ञानिक इस स्थिति को ‘दो व्यक्तित्व’ कहते हैं। एक ही शरीर में दो भले-बुरे शांति, सहयोगपूर्वक रह नहीं सकते। कुत्ते-बिल्ली की, सांप-नेवले की दोस्ती कैसे निभे? एक म्यान में दो तलवारें ठूंसने पर म्यान फटेगी ही। शरीर में ज्वर या भूत घुस पड़े तो दुर्दशा होती है इसे सभी जानते हैं। नशेबाजों की दयनीय स्थिति देखते ही बनती है। यह परस्पर विरोधी शक्तियों का एक स्थान पर जमा होना ही है जिसमें विग्रह की स्वाभाविकता टाली नहीं जा सकती।

आत्मा को कितना ही कुचला जाय, वह न मरने वाली है और न हार मानती है। अनसुनी, उपेक्षित पड़ी रहने पर भी अन्तरात्मा की विरोधी आवाज उठती ही रहती है। दुष्कर्म करते समय जी धड़कता और पैर कांपते हैं। यह स्थिति कितनी ही दुर्बल क्यों न कर दी जाय उसका अस्तित्व बना ही रहेगा और झंझट तब तक चलता ही रहेगा, जब तक दुष्प्रवृत्तियां उस घुसपैठ से अपना पैर वापिस न लौटा लें।

अन्तर्द्वन्द्व जीवन की शक्ति और सुव्यवस्था को नष्ट करते हैं, प्रगति पथ अवरुद्ध करते हैं और भविष्य को अन्धकारमय बनाते हैं। पापों की परिणति से किसी भी बहाने बचा नहीं जा सकता। यह शारीरिक संविधान की सामान्य प्रक्रिया पद्धति हुई। इसके अतिरिक्त समाजगत, प्रकृतिगत एवं ईश्वरीय व्यवस्था में भी ऐसे कितने ही आधार हैं जिनके कारण कुमार्गगामी को अपने दुष्कृत्यों के दण्ड अनेक प्रकार भुगतने के लिए विवश होना पड़ता है।

राजदण्ड की व्यवस्था इसीलिए है कि दुष्कर्मों की आवश्यक रोकथाम की जा सके और अनीति बरतने वालों को उनकी करतूतों का मजा चखाया जा सके। पुलिस, कचहरी, जेल, फांसी आदि की शासकीय दण्ड व्यवस्था का अस्तित्व मौजूद है। चतुरता बरतने पर भी लोग उसकी पकड़ में आ जाते हैं और आर्थिक, शारीरिक और मानसिक दण्ड भुगतते हैं, बदनामी सहते और नागरिक अधिकारों से वंचित होते हैं।

इतने पर भी पीछा नहीं छूटता। शारीरिक ‘व्याधि’ और मानसिक ‘आधि’ उन्हें घेरती हैं और तिल-तिल करके रेतने-काटने जैसा कष्ट देती हैं। शरीर पर मन का अधिकार है। अचेतन मन के नियंत्रण में आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष, श्वास-प्रश्वास, रक्तसंचार, ग्रहण-विसर्जन आदि अनेक स्वसंचालित समझी जाने वाली गतिविधियां चलती हैं। चेतन मन की शक्ति से ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रियां काम करती हैं। प्राण निकलते ही शरीर सड़ने और नष्ट होने लगता है। चेतना का केन्द्र संस्थान मस्तिष्क है। मन के रूप में ही हम चेतना का अस्तित्व देखते एवं क्रिया-कलाप का अनुभव करते हैं। यह संस्थान-मनोविकारों से, पाप ताप एवं कषाय-कल्मषों से विकृत होता है तो उसका प्रभाव शारीरिक आरोग्य पर पड़ता है और मानसिक संतुलन पर भी। नवीनतम वैज्ञानिक शोधों का निष्कर्ष यह है कि बीमारियों का केन्द्र पेट या रक्त में न होकर मस्तिष्क में रहता है। मन गड़बड़ाता है तो शरीर का ढांचा लड़खड़ाने लगता है। बीमारियों की नई शोध होती है और उनके लिए आये दिन एक से एक प्रभावशाली उपचार ढूंढ़े जाने की घोषणाएं होती हैं। अस्पताल तेजी से बढ़ रहे हैं और चिकित्सकों की बाढ़ आ रही है। आधुनिकतम उपचार भी खोजे जा रहे हैं, इतने पर भी स्वास्थ्य समस्या का कोई उपयुक्त समाधान निकल नहीं रहा है। तात्कालिक चमत्कार की तरह दवाएं अपना जादू दिखाती तो हैं, पर दूसरे ही क्षण रोग बदलकर नई आकृति में फिर खड़े होते हैं। यह स्थिति तब तक बनी रहेगी जब तक कि मानसिक विकृतियों के फलस्वरूप नष्ट होने और अगणित रोग उत्पन्न होने के तथ्य को स्वीकार नहीं कर लिया जाता।

न केवल शारीरिक वरन् मानसिक रोगों की भी इन दिनों बाढ़ आई हुई है। सिरदर्द, आधाशीशी, जुकाम, अनिद्रा, उन्माद, बेहोशी के दौरे आदि तो प्रत्यक्ष और प्रकट मस्तिष्कीय रोग हैं। चिन्ता, भय, निराशा, आशंका, आत्महीनता जैसे अवसाद और क्रोध, अधीरता, चंचलता, उद्दण्डता, ईर्ष्या, द्वेष, आक्रमण जैसे आवेश मनःसंस्थान को ज्वार-भाटों की तरह असंतुलित बनाये रहते हैं। फलतः मानसिक क्षमता का अधिकांश भाग निरर्थक चला जाता है एवं अनर्थ बुनने में लगा रहता है। अपराधी दुष्प्रवृत्तियों से लेकर आत्म-हत्या तक की अगणित उत्तेजनाएं विकृत मस्तिष्क के उपार्जन ही तो हैं। तरह-तरह की सनकों से कितने ही लोग सनकते रहते हैं और अपने तथा दूसरों के लिए संकट खड़े करते हैं। दुर्व्यसनों और बुरी आदतों से ग्रसित व्यक्ति अपना, साथियों का कितना अहित करते हैं, यह सर्वविदित है। पागलों की संख्या तो संसार में तेजी के साथ बढ़ ही रही है। मनोविकार ग्रसित, अर्धविक्षिप्त लोगों की गणना की जाय तो आधी जनसंख्या इसी चपेट में आई हुई दिखाई पड़ेगी। शारीरिक रोगों का विस्तार भी तेजी से हो रहा है। दुर्बलता और रुग्णता से सर्वथा अछूते व्यक्ति बहुत ही स्वल्प मात्रा में मिलेंगे। जिन्हें शारीरिक एवं मानसिक रोगों से सर्वथा मुक्त, पूर्ण निरोग कहा जा सके ऐसे लोगों को ढूंढ़ निकालना इन दिनों अतीव कठिन है।

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रंगाई से पूर्व धुलाई आवश्यक है। यदि कपड़ा मैला-कुचैला है तो रंग ठीक नहीं चढ़ेगा। इस प्रयास में परिणाम, समय और रंग सभी नष्ट होंगे। कपड़े को ठीक तरह धो लेने के उपरांत उसकी रंगाई करने पर अभीष्ट उद्देश्य पूरा होता है। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक प्रगति के लिए की गई साधना का समुचित प्रतिफल प्राप्त करने के लिए उन अवरोधों का समाधान किया जाना चाहिए जो दुष्कर्मों के फलस्वरूप आत्मोत्कर्ष के मार्ग में पग-पग पर कठिनाई उत्पन्न करते हैं। दीवार बीच में हो तो उसके पीछे खड़ा हुआ मित्र अति समीप रहने पर भी मिल नहीं पाता। कषाय-कल्मषों की दीवार ही हमें अपने इष्ट से मिलने में प्रधान अवरोध खड़ा करती है।

आज की अपनी दुःखद परिस्थितियों के लिए भूतकाल की भूलों पर दृष्टिपात किया जा सकता है। इसी प्रकार सुखी समुन्नत होने के सम्बन्ध में भी पिछले प्रयासों को श्रेय दिया जा सकता है। इस पर्यवेक्षण से सीधा निष्कर्ष यही निकलता है कि अशुभ विगत को धैर्यपूर्वक सहन करें या फिर उसका प्रायश्चित करके परिशोधन की बात सोचें। शुभ पूर्व कृत्यों पर संतोष अनुभव करें और उस सत्य प्रवृत्ति को आगे बढ़ायें। यह नीति निर्धारण की बात हुई। अब देखना यह है कि यदि आधि-व्याधियों के रूप में अशुभ कर्मों की काली छाया सिर पर घिर गई है तो उसके निवारण का कोई उपाय है क्या?

जो कर्मफल पर विश्वास न भी करते हों उन्हें भी मानवी अन्तःकरण की संरचना पर ध्यान देना चाहिए और समझना चाहिए कि वहां किसी के साथ कोई पक्षपात नहीं। पूजा-प्रार्थना से भी दुष्कर्मों का प्रतिफल टलने वाला नहीं है। देव-दर्शन, तीर्थ स्नान आदि से इतना ही हो सकता है कि भावनाएं बदलें, भविष्य के दुष्कृत्यों की रोकथाम बन पड़ें, अधिक बिगड़ने वाले भविष्य की सम्भावना रुके। पर जो किया जा चुका, उसका प्रतिफल सामने आना ही है। उसके उपचारार्थ शास्त्रीय परम्परा और मनःसंस्थान की संरचना को देखते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुंचना होता है कि खोदी हुई खाईं को पाटा जाय। प्रायश्चित के लिए भी वैसा ही साहस जुटाया जाय जैसा कि दुष्कर्म करते समय मर्यादा उल्लंघन के लिए अपनाया गया था। यही एकमात्र उपचार है जिससे दुष्कर्मों की उन दुखद प्रतिक्रियाओं का समाधान हो सकता है जो शारीरिक रोगों, मानसिक विक्षोभों, विग्रहों, विपत्तियों, प्रतिकूलताओं के रूप में सामने उपस्थित होकर जीवन को दूभर बनाये दे रही हैं। यह विषाक्तता यदि लदी रही तो भविष्य के पूरी तरह अन्धकारमय होने की भी आशंका है। अस्तु प्रायश्चित को अपनाकर, सामाजिक दुःख-कष्ट भोगकर वर्तमान और भविष्य को सुखद बनाना ही दूरदर्शिता है। कर्मफल के इस अकाट्य तथ्य को दृष्टिगत रखकर ही कल्प साधना में साधकों के लिए प्रायश्चित की व्यवस्था की गई है।

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