ईश्वर से सच्चा प्रेम ही आस्तिकता है

July 1998

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वह आज इस ज्येष्ठ की दोपहरी में बहुत भटका। बहुत-से-दफ्तरों के द्वार खटखटाए। अनेक समाचारपत्रों और दूसरे कार्यालयों में पहुँचा। न जाने कितने दिनों से चल रहा है यह क्रम; कौन गिनने बैठा है इसे? विश्वविद्यालय से एम. ए. करके अपने साथ अनेक प्रशंसापत्र लिए भटक रहा है वह। काम नहीं है उसके लिए! एक एम. ए. के लिए क्या विश्व में कोई काम नहीं है? वह अकेला है, घर पर और कोई नहीं। घर ही नहीं है उसके तो; पर पेट तो है न। अकेले को भी तो भूख लगा करती है। दो-तीन दिन पहले एक कबाड़ी के हाथ वह अपना फाउण्टेनपेन मिट्टी के मोल बेच चुका और अब तो मुट्ठी भर चने लेने में आज उसकी अन्तिम पूँजी भी समाप्त हो गई। उसकी सभी प्रार्थनाओं का जो उसने इधर-उधर भेजी थीं एक ही उत्तर है-काम नहीं। वह जहाँ जाता है उसे द्वार पर दिखा दिया जाता है-काम नहीं’। इतने बड़े संसार में उसके लिए काम नहीं और कल के लिए कौड़ी भी पास नहीं है। काम नहीं-इस ग्रीष्म में, इस तवे से तपते पथ पर वह भटकता रहा और अब उसे लगने लगा है सचमुच संसार में उसका अब कोई काम नहीं है।

रूखे-बिखरे बाल, तमतमाया फीका मुख, पसीने से लथपथ देह और भाल पर चिपकी हुई कुछ अलकें-शरीर कहाँ तक साथ दे किसी का। अब चक्कर आने लगा। पार्क दूर है और कुछ देर विश्राम करना चाहिए। इधर-उधर देखकर मन्दिर में घुस गया वह। शीतल छाया-सुगन्धित वायु जैसे प्राणों को अद्भुत तृप्ति मिली हो। वहीं पास में ‘धम’ से एक खम्भे के सहारे टिक कर बैठ गया। मन्दिर की चिकनी शीतल संगमरमर भूमि बड़ी सुखद लगी। कोई थका हुआ लगता है। पुजारी जी ने एक नजर डाली और विश्राम करने चले गए। भगवान का मध्याह्न विश्राम हो रहा है। मन्दिर के गर्भगृह के पट बन्द हो चुके। वैसे भी आजकल ग्रीष्म की दोपहरी में यदा-कदा ही कुछ श्रद्धालु आते हैं। भगवान का भवन सभी का गृह है न। दर्शनार्थी तो कब के जा चुके। पुजारी भी दो घण्टे तो विश्राम करेंगे ही।

वह तो बहुत एकाकी, थका, खिन्न-सा अनुभव कर रहा था। उसे भला क्या काम मन्दिर से और क्या मूर्ति से। हाँ, इस समय उसे बड़ी शीतलता, बड़ी सुगन्धि, बड़ी शान्ति मिल रही थी। वह विश्राम करने की मनःस्थिति में था। प्यास लगी थी; पर कोई बात नहीं। अभी तो उठा नहीं जा सकता, मन्दिर के बाहर प्याऊ तो वह देख ही आया है।

पिता अच्छे वकील थे। परिमार्जित सुधारक विचार थे उनके। वकालत चलती थी। लेकिन मित्रों का संग और वाहवाही पाने का लोभ, ऐसे में रुपये क्या कभी जेब में टिका करते हैं? पैतृक सम्पत्ति तो वैसे ही नहीं थी। कहीं दूर किसी गाँव में घर है। पर उसने तो सिर्फ चर्चा ही सुनी थी, कभी देखा नहीं उसे। उसके पिता-माता नगर में रहते थे। वहीं उसने जन्म लिया एक सुन्दर बँगले में। बड़े स्नेह से पालन हुआ उसका और बड़े उत्साह से शिक्षा प्रारम्भ हुई। अन्ततः माता-पिता की एक ही तो सन्तान था वह।

कॉलेज और विश्वविद्यालय का जीवन-जेब में कोई अभाव नहीं, प्रतिभा भी सम्पत्ति के समान प्रचुर ही हुई और तब स्वस्थ, सबल वह सहपाठियों में अग्रणी तो रहेगा ही। धर्म की मूर्खतापूर्ण धारणा और ईश्वर की भूल-भुलैया से तो उसके पिता जी ने ही पिण्ड छुड़ा लिया था। माता जी में कुछ बातें थीं, पर उनमें ऐसा कुछ नहीं। फिर वह तो छात्रों में अग्रणी रहा है। नियम, संयम, धर्म, सदाचार, ईश्वर इन सबका उपहास करके इनकी दासता से मुक्ति पा जाना ही तो गौरव है मनुष्य के लिए। आधुनिकता के माहौल में उसने यही सीखा और पाया था।

सहसा पिता जी का हार्टफेल हो गया। इतने बड़े वकील, पर पसलियों के नीचे धुकपुक करता जो छोटा-सा हृदय है, वह तो किसी की अपेक्षा नहीं करता। न्यायालय में खड़े थे और वहीं.... हाँ, तो उसके पश्चात् सम्वेदना, शोक प्रकाश, समाचार पत्रों में संवाद-यह बड़ा दम्भी समाज है। सबने इतना तो ढोंग रचा और जब सहायता की बात आयी, किसी की जेब ऐसी नहीं जो खाली न हो। कुछ ने तो रूखा उत्तर दे दिया। अब तो ये सब पहचानते तक नहीं।

किसे पता था कि पिता जी इतना कर्ज कर गए हैं। वह सामान-फर्नीचर तक नीलाम, वह बंगले से निर्वासित! माता मर गयी इन सब आघातों से और वह स्वयं बेचारा भटक रहा है। भटक ही तो रहा है, यह सब भोगते हुए। कहाँ एम. ए. पास करने के पश्चात् वे पार्टियाँ, वे उत्साह और कहाँ.........। पिता जी योजना बनाते ही रहे अपने होनहार पुत्र के संबंध में और उसी समय मरना था उन्हें।

पता नहीं कितनी बातें स्मरण आयीं। एकाकी रोने और हिचकने का यह पहला दिन तो नहीं है। शरीर के वस्त्र तक बिक चुके। जो लोग बड़े आदर से मिलते थे, अब पहचानते तक नहीं। आज सबसे प्रिय एकमात्र सम्पत्ति फाउण्टेनपेन को भी बेचे दो दिन हो चुके। फुटपाथ पर या पार्क के कोने में सो लिया जा सकता है और अब तो यह अभ्यस्त बात हो गयी। पर भूख, पेट तो नहीं मानता। काम नहीं! सब एक ही बात कहते हैं; सब कहीं एक ही उत्तर मिलता है और सचमुच संसार में क्या काम है उसका।

भगवान, छिः। यह तो मूर्खों की कल्पना है। एम. ए. में प्रथम श्रेणी आने वाला वह भला इसे माने? यह कैसे सम्भव है। पर पता नहीं क्यों यह भगवान आज विचित्र अद्भुत रूप से मन में उठ रहा है। जैसे प्राण पुकारते हों-भगवान! तभी लगा कि कण्ठ सूख रहा है। देर से प्यास लगी है। दोनों हाथ भूमि पर लगाकर वृद्ध की भाँति थका-सा उठा वह और बाहर प्याऊ पर आ गया।

वापस आने पर उसके कानों में शब्द पड़े-भगवान मेरे इस सौदे में लाभ होना ही चाहिए? मैं भली-भाँति पूजा करूँगा आपकी। इन सेठ जी को तो वह भली-भाँति पहचानता है। ये तो व्यापारियों में अच्छे प्रतिष्ठित हैं। ये भला क्यों इस पत्थर की मूर्ति के सामने इस प्रकार हाथ जोड़ रहे हैं? प्रभो मेरा बच्चा आज दस दिन से चारपाई पर है। एक ही लड़का है मेरे। उसे अच्छा कर दो। अच्छा कर दो उसे भगवान और मैं आपकी पूजा करूँगा। ये वकील साहब-ये पढ़े-लिखे सुसभ्य-बेचारे की बुद्धि व्यवस्थित नहीं है, इस समय। आज पहली बार वह मन्दिर में आया था। अब शाम होने को थी, पट खुल गए थे, लोग दर्शनों को आ रहे थे। हारा-थका वह जल पीकर वापस लौट आया था। कहीं जाने का उत्साह नहीं था उसमें। इतने लोग आ गए हैं, इतने लोग खड़े हैं अब एक ओर बैठने का अवकाश तो है नहीं, वह भी पीछे एक ओर खड़ा हो गया। कौतूहलपूर्वक देखने लगा। उसने दर्शन करने और प्रणाम से क्या काम। वह तो देख रहा था यहाँ का कौतुक।

भगवान इस मुकदमे में मेरी लाज रख दो। मैं पाँच सेर लड्डू चढ़ाऊँगा मूर्ख कहीं का-उसने मन-ही-मन उन बाबू साहब पर रुष्ट होते हुए कहा। लोगों में तो बड़ी बुद्धिमानी बघारते हैं और यहाँ इस पत्थर के सामने आए हैं गिड़गिड़ाने। वहाँ वकील की फीस जितनी दे डालते हैं, उतना भी यहाँ नहीं लगाना चाहते और पूरा मुकदमा जीत लेना चाहते हैं। पाँच सेर लड्डू बस इतनी घूस पर्याप्त मान ली इन्होंने।

भगवान! मैं ऐसी भूल फिर कभी नहीं करूँगा। अब सावधान रहूँगा। मेरी जान बचा दो इस बार। ये दरोगा जी हैं। कहीं किसी घात में पकड़े गए जान पड़ते हैं। अब सावधान रहेंगे ये। दूसरों का गला दबाने में थोड़ी भूल हुई, अब सावधानी से दबायेंगे, अब कोई जान नहीं सकेगा-यही तो? इस बार बच जाना चाहिए और तब ये माला चढ़ा देंगे-सवा रुपये का गजरा! बड़ा बुरा लगा, बड़ा क्रोध आया उसे, पर वह चुप रहा।

मेरा यह काम कर दो। मैं तुम्हें लड्डू दूँगा, माला दूँगा, पूजा करूँगा। और कुछ तो यह भी नहीं करना चाहते। वे तो केवल कहते हैं-मेरा अमुक काम कर दो सब आज्ञा देने आते हैं। सब ठगने आते हैं। उस सेठ को सौदे में लाभ हो या न हो, पर दलाल को पूरी दलाली देगा वह। लाभ का कोई पूरा भरोसा दे तो सौ दो सौ देने को भी उद्यत हो जाएगा, पर यहाँ वह पूजा कर देगा और सो भी पूरा लाभ पहले हो तब। दस-पाँच रुपये लगा देगा पूजा में। वह सोचता जा रहा था।

वकील साहब ने बच्चे की औषधियों और डॉक्टरों की फीस में कितना व्यय किया कौन जाने? अभी कोई लड़के को अच्छा करने के विश्वास पर देने-लेने की बात करे तो हजार-पाँच सौ बड़ी बात नहीं और यहाँ वे कहते हैं-बच्चा अच्छा हो जाए तो पूजा करूँगा। पूजा-पथ्य का व्यय भी नहीं। वह भी अच्छा होने पर और डॉक्टर से इन्होंने कहा तक न होगा कि फीस कल ले लीजिएगा। उसके मन में लोगों की स्वार्थपरता के प्रति विद्रोह जगने लगा और तब पता नहीं कहाँ से उसे पत्थर की मूर्ति के प्रति मन में सहानुभूति आ गयी। वे इस भोले भगवान को किस प्रकार ठगना चाहते हैं।

वह सोचने लगा लोग केवल आज्ञा देने आते हैं। सब स्वार्थी हैं, सब ठगने वाले हैं, भगवान मेरा यह काम कर दो, वह काम कर दो, पूजा करूँगा, माला चढ़ाऊँगा। धूर्त कहीं के, सब निराश होकर सारे उपाय करके तब आते हैं और सबसे सस्ते में टकराना चाहते हैं। न जाने क्यों उसका भगवान से, जिसे अब तक वह निरी पत्थर की मूर्ति मानता आ रहा था, अपनत्व जगने लगा था।

इसी अपनेपन के भाव में उसके मन में आया-भगवान मेरे पास कुछ नहीं हैं। मैं यदि चार आना भी पा सकता तो दो आने तुमको दे देता। तुम मेरा कोई काम मत करना-मैं और प्राप्त करूँगा। मैं अवश्य और प्रयत्न करूँगा और तुम्हें दो आने दूँगा। वह स्वयं नहीं समझ सका कि इस पत्थर की मूर्ति के प्रति कैसे वह इतनी बातें कह सका। अपनी भूख के कारण उसमें स्वाभाविक रोष एवं उत्तेजना थी। उसने अनुभव किया कि अब और यहाँ ठहरने पर वह अपने को रोके नहीं रह सकता। अपनी धुन में कुछ सोचता हुआ वह मन्दिर से बाहर आ गया।

बाहर आते ही उसे लगा कि किसी ने आवाज दी। घूमकर देखा तो एक सेठजी कह रहे थे-बाबूजी तनिक यह तार पढ़ देंगे। उसने ध्यान से देखा यही सेठजी तो हैं जो मन्दिर में लाभ का सौदा कर रहे थे भगवान से। हाथ में कोई कागज लिए पुकार रहे हैं-ये आपको कष्ट तो होगा। सेठजी ने बड़ी नम्रता से कहा।

मैं बेगार नहीं किया करता। उसे बहुत रोष है सेठ जी पर। ये स्वयं तो इतने बड़े सौदे में भगवान को भी पूजा पर टकराना चाहते हैं और वह उनका तार पढ़ दे, क्यों पढ़ दे? पर वह इतना अनुदार तो नहीं है, वह तो दूसरों की सेवा, उनके काम के लिए सदा प्रस्तुत रहा है। कुछ सोचकर तार पढ़ दिया।

लेकिन तब उसे बहुत आश्चर्य हुआ जब सेठजी ने चमकती हुई चवन्नी निकाली और उसके हाथ में थमा दी। शायद तार में सेठ जी के बहुत काम की कोई बात लिखी थी। क्योंकि तार का मजमून सुनते ही वह उछल पड़े थे और शीघ्रता से यह कहते हुए आगे बढ़ गये कि बाज़ार में बहुत ही अनुकूल भाव आए हैं इस समय उन्हें किसी चीज की चिन्ता न थी।

पर वह अपने हाथ पर रखी चवन्नी को बड़े विस्फारित नेत्रों से देख रहा था। चवन्नी-इतनी शीघ्र इतनी सरलता से यह चवन्नी मिली है। चवन्नी का मूल्य आज उसकी दृष्टि में जो है, वह दूसरा कैसे समझ सकता है। दो आने मन्दिर के उस भगवान को देने हैं। कितना भोला है वह भगवान भी। सब उसे ठगने को ही पहुँचते हैं। वह चाहे जितना कंगाल हो गया हो, उसका हृदय कभी विश्वासघाती नहीं होगा। वह बेईमानी नहीं करेगा। दो आने भगवान को देगा। उसके लिए तो दो आने आज पेट की भूख मिटा देने भर को हैं ही। मन्दिर की ओर मुड़ा वह।

मन्दिर बन्द हो गया। पुजारी ने द्वार बन्द कर दिए मन्दिर के? उसने बन्द द्वार के सम्मुख खड़े होकर भी अपने आप से ही पूछा। अब तो यह कल खुलेगा। क्या चिन्ता, कल सही। मैं कल दो आने यहाँ के भगवान को दे जाऊँगा। अभी तो भूख लगी है।

लेकिन तभी विचार-श्रृंखला परिवर्तित हुई, अरे! इसमें दो आने दूसरे के हैं, मैं उसका भाग दिए बिना अपना भाग ले लूँ। बेईमानी तो न होगी? मैं अपना ही भाग तो ले रहा हूँ। बँटवारा तो हुआ नहीं, अपना भाग कहाँ से आया? दो आने के चने ही तो लिए जा सकते हैं। बेचारा वह चने की दुकान आया। मन्दिर के बाहर ही जल पीकर भूखा लेट गया वह भूमि पर। आज न सही कल तो चने मिल ही जाएँगे। चवन्नी अपने पास तो है ही।

वह सोच रहा था, मैंने दो आना देने को कहा है। वह मूर्ति सही, पर मैंने उसी को तो देने को कहा है। दो आने के लिए बेईमानी करूँ मैं छिः। उसका उपयोग हो या नहीं। मैंने कहा है न। उसने सोच लिया कि वह दो आने तो मूर्ति को, उस भगवान को देगा ही। इसी सोच-विचार में कब पलकें बन्द हुईं, कब सो गया, यह पता ही न चला।

सुबह आँख खुली, तो फिर से मन्दिर में भीड़ लग चुकी थी। कोई कह रहा था, भगवन्, आपने मेरी विनय पर ध्यान नहीं दिया। आप तो दयामय हैं प्रभो। आज का सौदा........। सेठ जी मन्दिर में दोनों समय आते हैं। द्वार पर उसे देखते ही पहचान लिया उन्होंने। उससे भी आज नम्रता से उनके जयराम जी का उत्तर दिया। सेठजी को पर्याप्त लाभ हुआ, ऐसे सौदों में लाभ हुआ है, जिनमें लाभ की आशा छोड़ चुके थे वे। पर उस सौदे में कहाँ लाभ हुआ, जिसके लिए प्रार्थना कर गए थे वे भगवान से। उस सौदे में तो उन्हें थोड़ी हानि ही रही है। तभी तो वे यह दो पैसे वाली माला लिए आए हैं मन्दिर में। दूसरे सौदों में लाभ हुआ-यह तो कोई बात नहीं, वह तो हो गया। भगवान ने उनके बताए सौदे में क्यों लाभ नहीं कराया? कैसे पूजा करें वे।

भगवान मेरा बच्चा रात को कुछ ठीक रहा है। आप दया करें उस बालक पर, आज मैंने बड़े वैद्यजी को बुलाया है, बस उनकी औषधि से जरूर लाभ हो जाए। लाभ होना चाहिए और वह भी अब बड़े वैद्य जी की औषधि से। पूजा-पूजा तो लड़का पूरी तरह से अच्छा हो जाएगा तब न? अभी तो वह कुछ ही ठीक रहा है।

भगवान..........। वह देखता रहा चुपचाप। बाबूसाहब, दरोगा जी कल वाले अनेक लोग आज फिर आए और चले गए। किसी को थोड़ा लाभ हुआ, किसी को बताए स्थान पर लाभ नहीं हुआ, किसी और स्थान में हुआ तो उसे वह क्यों गिने? कोई आया है याद दिलाने कि उसका काम भूल न जाएँ और कुछ लोग केवल तुलसीदल और एक-आध फूल लेकर आए हैं। भगवान इस बार हाथ संकट में है॥ काम हो जाने पर वे अब आर्थिक संकट अनुभव करने लगे हैं। आगे कभी दूसरा काम पड़ेगा, तब यह कमी पूरा कर देना चाहते हैं वे।

भगवान मेरा काम कर दो। इतने लोग आते हैं, इनका काम होता है-मूर्ख तो नहीं है ये सब। अभी चार आने तो जेब में हैं उसी की। कितनी अकल्पित रीति से मिले ये चार आने। तब यह भगवान है, है ही नहीं, कुछ करते भी हैं। उसने मूर्ति की ओर देखा और एकटक देखता रहा।

पर बड़े भोले हैं ये भगवान। लोग ठगते ही रहते हैं। सब आते हैं, आज्ञा देते हैं और चाहते हैं कि उनका बताया कार्य उन्हीं की बताई रीति से और उन्हीं के बताए समय पर पूरा हो जाए। इतने पर भी कम-से-कम पारिश्रमिक देना चाहते हैं। काम हो जाने पर बहानेबाजी और......। उसे बहुत बुरा लग रहा था यह दम्भ लोगों का।

क्या यही धर्म है? क्या यही आस्तिकता है? जैसे प्रश्न उसके दिमाग में बिजली की तरह कौंध उठे। वह सोचने लगा, मैं नास्तिक ही भला। कम से कम मैं किसी को ठगने का इरादा तो नहीं रखता, भगवान को भी नहीं। अभी उसके विचारों का चक्रवात कुछ देर और उथल-पुथल मचाता रहता, तभी पीछे से किसी ने उसके कन्धे पर हाथ रखा। स्पर्श में अपनापन था, स्नेह की कोमल भावनाएँ थीं, जो अनजाने में ही उसे अन्दर तक छू गयीं। उसने पीछे मुड़कर देखा, तो पाया गैरिक वस्त्रधारी साधु खड़े थे।

परस्पर दृष्टि-विनिमय होने पर वे कहने लगे-मन्दिर के ये भगवान अपने सम्मुख आए आर्तजनों के भाव ही देखते हैं। पदार्थों का इनकी

दृष्टि में क्या मूल्य। इन पूर्णकाम को क्या प्रयोजन पदार्थों का। परन्तु इन बातों से उसकी जिज्ञासा शान्त नहीं हुई। उसके प्रश्न यथावत रहे, जिसे साधु महाराज की गहन अन्तर्दृष्टि ने ताड़ लिया। वे कह रहे थे-धर्म संवेदना है, प्यार है, आर्तजनों का कष्ट मिटाने की भावाकुलता है और आस्तिकता ईश्वर से प्रेम है। उनसे गहरा अपनत्व है।

तब क्या वह स्वयं भी? आगे कुछ और सोचता इससे पहले ही वे साधु महाराज बोल पड़े, हाँ तुम्हारे अन्दर सच्ची आस्तिकता ने जन्म लिया है। भगवान तुम्हें अपने लगने लगे हैं और तुम भी उनके अपने हो। इस अपनेपन के अहसास ने उस युवक को साधु बना दिया। सद्गुरु स्वामी निगमानन्द के चरणों में बैठकर वह महायोगी अनिर्वाण बना। अब उसका एक ही मकसद था, जन-जन को आस्तिकता का सच्चा बोध कराना, सारे जीवन उनका एक ही सन्देश रहा-आस्तिकता ईश्वर से सौदेबाजी नहीं, बल्कि उनसे सच्चा प्रेम है।


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