भारत के परमाणु विस्फोट के संदर्भ में सामयिक विशेष लेख- - आत्मसम्मान की धमक के साथ भारत का मानव जाति के लिए संदेश

July 1998

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नीली धूल का कोई सौ फुट ऊँचा गुबार। जमीन के अन्दर से बादलों जैसी गड़गड़ाहट और जोरदार धमाका। धरती में भूकम्प जैसा कम्पन........। पोखरण और उसके आस-पास के गाँवों के लोग परमाणु विस्फोट को इसी रूप में जानते-पहचानते हैं। पर परमाणु विस्फोट इससे कहीं अधिक जटिल और खतरनाक प्रक्रिया है, जिसके दूरगामी प्रभाव पड़ सकते हैं। यह खेल उन नन्हें परमाणुओं का है, जो सृष्टि के कण-कण में विराजमान् हैं। प्रकृति का हर तत्व, हर पदार्थ नन्हें-नन्हें असंख्य परमाणुओं के मेल से बना है। इसका विखण्डन करने पर उस तत्व का अस्तित्व ही लुप्त हो जाता है। परमाणुओं के इस खतरनाक खेल के मूल में मानव की अथाह ऊर्जा पाने की लालसा है, जिसे हम अपने विवेक से विकास और विनाश दोनों के लिए ही इस्तेमाल कर सकते हैं। विकास के रास्ते पर चलें तो परमाणुओं से बेहद सस्ती ऊर्जा मिलती है। विनाश के रास्ते पर परमाणु बम हैं, जिनके उपयोग से मानव सभ्यता का लोप हो सकता है।

परमाणु हथियारों में परमाणु बम, हाइड्रोजन बम एवं न्यूट्रान बम आते हैं। परमाणु में प्रोट्रान और न्यूट्रान आपस में एकजुट होकर रहते हैं। यह एकजुटता उस बल या ऊर्जा के कारण होती है, जो सभी कणों को आपस में सन्तुलित एवं बाँधे रहती है। इन्हीं कणों को तोड़ने पर अनन्त ऊर्जा निःसृत होती है। इसी प्रक्रिया को परमाणु विखण्डन कहते हैं। परमाणु बमों का निर्माण इसी आधार पर किया जाता है। इसके लिए यूरेनियम-235 का प्रयोग किया जाता है। यूरेनियम का एक नाभिक टूटने पर थोरियम और क्रिप्टन के दो नाभिक बनते हैं। इसके साथ ही कुछ न्यूट्रान तथा 20 करोड़ इलेक्ट्रान वोल्ट ऊर्जा उत्पन्न होती है। यह प्रक्रिया चेनरिएक्शन के तहत चलती है और असीम-अनन्त ऊर्जा निकलती है। परमाणु विखण्डन से प्राप्त कुल ऊर्जा का 85 फीसदी हिस्सा विस्फोट व ऊष्मा के रूप में सामने आता है, जबकि 15 प्रतिशत अदृश्य बनकर वातावरण में विलीन हो जाती है। इसी विकिरण से दूरगामी प्रभाव उत्पन्न होते हैं। विस्फोट के रूप में निकली ऊर्जा ध्वनि के वेग से सफर करती है। इससे वायुमण्डलीय दाब एवं तापमान में भारी वृद्धि हो जाती है। हिरोशिमा और नागाशाकी में गिराया गया बम इसी कोटि का था।

परमाणु बम का एक अन्य शक्तिशाली रूप है-हाइड्रोजन बम। इसे बनाने के लिए हल्के नाभिकों से युक्त तत्वों वाली हाइड्रोजन गैस के गोले के चारों ओर प्लूटोनियम भरकर उसमें विस्फोट कराया जाता है। इससे गोले का ताप व गैसों का घनत्व अत्यधिक बढ़ जाता है, जिससे गैसें प्लाज्मा में बदल जाती हैं और गैस पदार्थ तरल होने से पूर्व गैस बन जाते हैं। हाइड्रोजन बम एक सेकेण्ड के दस करोड़वें हिस्से यानि 0.06 माइक्रो सेकेण्ड में करोड़ों डिग्री सेंटीग्रेट तापमान पैदा कर सकता है। इसीलिए इसे थर्मोन्यूक्लियर डिवाइस भी कहा जाता है। इसे बनाने में परमाणु बम के विपरीत सिद्धान्त का उपयोग किया जाता है। इसमें परमाणुओं को तोड़ने के स्थान पर जोड़ा जाता है। हाइड्रोजन बम को छोटे आकार में बनाने की सुविधा के कारण मिसाइलों में इसका इस्तेमाल किया जाता है। सब किलो टन परमाणु बम को लो यील्ड डिवाइस कहा जाता है। उसे कोई साधारण सैनिक अपने हाथ से ही फेंक सकता है। इसका प्रयोग बाँध-पुल को नष्ट करने अथवा फिर सैनिक ठिकानों पर तबाही मचाने के लिए किया जाता है।

हाइड्रोजन बम का प्रथम परीक्षण 31 अक्टूबर सन् 1953 को प्रशान्त महासागर में एक तैरती नौका पर किया गया था। इसकी क्षमता 10 मेगाटन की थी। तब पलभर के लिए आकाश में दो सूर्य चमक उठे थे। यह परमाणु बम की तुलना में सात सौ गुना अधिक शक्तिशाली था। एक किलो टन एक हजार टी. एन. टी. के बराबर होता है। एक मेगाटन का तात्पर्य है-दस लाख टी. एन. टी. के बराबर विध्वंसक शक्ति। अब तक का सबसे बड़ा हाइड्रोजन बम परीक्षण रूस ने 30 अगस्त, 1961 को किया था। इससे अनुमानतः 60 मेगाटन विध्वंसक ऊर्जा निकली थी। यह जापान पर गिराए गए परमाणु बम से हजारों गुना शक्तिशाली था। 6 अगस्त, 1945 को हिरोशिमा में गिराया गया यूरेनियम बम 12.5 किलो टन एवं नागाशाकी में गिराए गए प्लूटोनियम बम का भार 22 किलो टन था। परमाणु बमों की अधिकतम क्षमता कुछ सौ किलो टन तक आँकी गयी है। अमेरिका एवं रूस के अलावा अन्य देशों जैसे इंग्लैण्ड ने सन् 1957 में, चीन ने 1967 में, फ्राँस ने 1968 में एवं भारत ने 11 मई 1998 में हाइड्रोजन बम का परीक्षण किया।

न्यूट्रान बम का आविष्कार अमेरिकी वैज्ञानिक सैमुअल टी. कोहेन ने किया था। न्यूट्रान से विकीर्ण होने वाली ऊर्जा दीवारों को भेदकर पार कर सकती है। इसके विघातक एवं विषाक्त प्रहार से बच पाना असम्भव है। यह अपने विस्फोट से ऊर्जा का 90 प्रतिशत भाग न्यूट्रान द्वारा बाहर फैलाता है। इसके सूक्ष्मकणों के सौवें भाग से 150 से 200 मीटर क्षेत्र तक पूरी आबादी नष्ट हो सकती है। पाँच किलोमीटर के अन्दर उस क्षेत्र का सम्पूर्ण मानव शक्तिहीन एवं निर्बल हो जाएगा। खुले क्षेत्र में आने वाले लोगों में 50 फीसदी से अधिक तो भयंकर एवं असाध्य रोगों के शिकार हो जायेंगे। न्यूट्रान बम से भवनों, सड़कों, वृक्ष-वनस्पतियों आदि को कोई क्षति नहीं पहुँचती। बम का प्रयोग मानव के विरुद्ध भीषण एवं भयानक अस्त्र के रूप में किया जा सकता है।

एक सर्वेक्षण से प्राप्त रिपोर्ट से पता चलता है कि विश्वभर में सन् 1988 में लगभग 60.000 परमाणु ध्वंसास्त्र मौजूद थे। इसमें से अमेरिका और रूस 95 प्रतिशत से अधिक के मालिक हैं। यह विश्व के समस्त सामरिक हथियारों के आधे के बराबर है। संसार के सम्पूर्ण नाभिकीय हथियारों के भण्डार से लगभग 25 से 30 हजार मेगाटन शक्ति पैदा की जा सकती है। यह शक्ति जापान में गिराए जाने वाले बम से दस लाख गुना अधिक है। इससे सारे संसार को सैकड़ों बार भस्मीभूत किया जा सकता है। इन विनाशकारी आयुधों का जनम अमेरिका है। जे. रॉबर्ट ओपेनहाइगर तथा जनरल लेस्लेग्रोवर्स ने प्रथम बार परमाणु बमों का निर्माण किया। इन्होंने 26 जून, 1957 को पहला भूमिगत परीक्षण किया। अब तक किए गए आकलन के अनुसार अमेरिका 212 वायुमण्डलीय परीक्षण के साथ-साथ कुल 1030 परीक्षण कर चुका है। अब तो वह सुपर कम्प्यूटर के माध्यम से बराबर सबक्रिटिकल टेस्ट कर परमाणु बमों का निर्माण करता जा रहा है। वर्ष 1945 में अमेरिका के पास दो बम थे। तत्कालीन अमेरिकन राष्ट्रपति हेनरी ए. ट्रमेन के अनुसार दोनों ही जापान में गिरा दिए गए थे। आज अमेरिका के पास 12,070 परमाणु बम हैं, इसके अलावा उसके पास हाइड्रोजन एवं न्यूट्रान बमों का जखीरा भी रखा हुआ है। इनमें से 8500 तो मोर्चों पर तैनात हैं। इन हथियारों को वह 13,000 किलोमीटर की दूरी तक मार सकता है।

रूस ने अपना प्रथम परीक्षण ईगोर बी. कुर्चतोक द्वारा निर्मित परमाणु अस्त्र से नोमाया जेम्ल्या से 29 अगस्त, 1949 में किया था। यह प्लूटोनियम बम 20 किलो टन का था। इसी के साथ वहाँ पहला भूमिगत परीक्षण 22 फरवरी, 1962 को किया था। इसके पश्चात् वह 179 वायुमण्डलीय परीक्षणों के साथ कुल 715 परीक्षण कर चुका है। रूस के पास सर्वाधिक 22,500 परमाणु बम हैं, जिनमें से 10,100 तैनात हैं। फ्राँस के पास 482 परमाणु बम हैं। उसने 209 परीक्षण किए हैं, जिसमें 48 वायुमण्डल में किए गए। फ्राँस ने जनरल चार्ल्स एलरेट के बनाए हुए 70 किलो टन वाले प्लूटोनियम बम से 13 फरवरी, 1960 को अपने इन परीक्षणों की शुरुआत की थी। इस क्रम में चीन भी 45 परीक्षण करके 450 बम बना चुका है। ब्रिटेन भी 45 विखण्डन करके 380 परमाणु बमों का मालिक है।

इन पाँच परमाणु सम्पन्न देशों के पश्चात् भारत का स्थान आता है। भारत ने 17 मई, 1974 को बुद्धपूर्णिमा के दिन पोखरण में अपना प्रथम भूमिगत परीक्षण किया था। इसके ठीक चौबीस वर्ष बाद 11 मई की बुद्धपूर्णिमा एवं उसके दो दिन बाद यानि कि 13 मई, 1998 को क्रमशः तीन एवं दो परीक्षण किए। इसी के साथ वह 65 परमाणु हथियारों का निर्माण कर चुका है। परमाणु होड़ में शामिल होने के लिए पाकिस्तान ने भी 28 एवं 30 मई को पाँच तथा एक आत्मघाती परीक्षण करने का तथाकथित दावा किया है। अन्तर्राष्ट्रीय विश्लेषकों के अनुसार पाकिस्तान के पास 15 से 25 परमाणु हथियार माने जाते हैं। परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष डॉ. आर. चिदम्बरम् के अनुसार भारत के पास 200 मेगाटन हाइड्रोजन बम बनाने की क्षमता है। भारत अपने सुपर कम्प्यूटर ‘परम’ 10,000 से प्रत्येक माह दो परमाणु बम बना सकता है। 11 मई को जिस हाइड्रोजन बम का परीक्षण किया गया था, उसकी क्षमता 45 किलो टन थी। इस तरह भारत सब किलो टन से लेकर मेगा किलो टन तक परमाणु अस्त्र सम्पन्न देश बन चुका है। सुपर कम्प्यूटर के जनक डॉ. विजय वी. भटकर के अनुसार, भारत अब भूमिगत परीक्षण किए बगैर प्रयोगशाला में सब-क्रिटिकल टेस्ट कर सकता है। यह टेस्ट क्षमता विश्व में केवल अमेरिका एवं जापान के पास है।

परमाणु हथियार रखने वाले पाँच महारथियों के अलावा कई ऐसे देश हैं, जिनकी धरती पर या तो अमेरिकी परमाणु मिसाइलें तैनात हैं या कुछ देशों ने अपने राष्ट्रीय कार्यक्रम के तहत परमाणु क्षमता प्राप्त कर ली है। परन्तु इन देशों ने इसका परीक्षण नहीं किया है। इजराइल के पास लगभग 64 से 112 परमाणु हथियार होने का अनुमान है। ईराक एवं दक्षिण कोरिया ने भी यह क्षमता हासिल कर ली थी, परन्तु अमेरिकी कूटनीति के हाथों झुकना पड़ा। ताईवान भी इसी श्रेणी का एक देश है। अमेरिका के परमाणु आयुध जर्मनी, ब्रिटेन, इटली, तुर्की, बेल्जियम, नीदरलैण्ड, ग्रीस, जापान और फिलीपीन्स आदि देशों में तैनात हैं।

परमाणु हथियार रखने वाले पाँच देशों के पास घोषित रूप से 1997 के अन्त तक 36 हजार परमाणु बम हैं। इन्हें लड़ाकू विमानों या लम्बी और मध्यम दूरी की बैलेस्टिक मिसाइलों या पनडुब्बी आधारित मिसाइलों से छोड़ा जा सकता है। इन मिसाइलों की मारक क्षमता क्रमशः अमेरिका की 13,000 किमी., ब्रिटेन की 12,000 किमी., फ्राँस की 5300 किमी, रूस की 11,000 किमी., चीन की 11,000 किमी., भारत की 2500 किमी. तथा पाकिस्तान की 1500 किमी. है।

परमाणु हथियारों से होने वाला सम्भावित खतरा बड़ा स्पष्ट है। इसे रोकने के लिए विश्वव्यापी तमाम सन्धियों का अभियान चला। सामरिक अस्त्र परिसीमनवार्ता (स्टार्ट-2) सन्धि के लागू होने पर अमेरिका एवं रूस केवल साढ़े तीन-तीन हजार बम ही रख सकते हैं। इस सन्धि के असफल होने पर दोनों देशों के पास 22 हजार परमाणु बम शेष रहेंगे। आपसी शीतयुद्ध की समाप्ति के पश्चात् अमेरिका ने सारे विश्व में परमाणु निरस्त्रीकरण अभियान चलाया। इसके तहत एन. पी. टी. (परमाणु अप्रसार सन्धि) सी. टी. बी. टी. (समग्र परमाणु परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि) जैसे सन्धि के प्रस्ताव सामने आए। इसमें भारी भेदभाव एवं पक्षपातपूर्ण रवैये की वजह से भारत ने इस सन्धि प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और अपने परमाणु विकल्प खुले रखे। इसे हास्यास्पद स्थिति ही कहेंगे कि इस सन्धि के उपरान्त भी अमेरिका अपने नाभिकीय आयुधों में भारी वृद्धि एवं विकास करता रहा है। इसमें बी-61 नामक एक ऐसा परमाणु बम है, जिसमें पृथ्वी के भीतर गहरी घुसपैठ कर विस्फोट किया जा सकता है। इसका समावेश सी. टी. बी. टी. पर हस्ताक्षर के पश्चात् हुआ है। अभी दो माह पूर्व ही उसने अपनी प्रयोगशाला में सबक्रिटिकल टेस्ट किए हैं, जिन पर कोई नियम लागू नहीं होता। सी. टी. बी. टी. पर हस्ताक्षर करने के थोड़े दिनों ही पहले चीन एवं फ्राँस ने क्रमशः तीन एवं छह परमाणु परीक्षण किए।

सन् 1954 में प्रथम बार भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पृथ्वी से परमाणु हथियार के उन्मूलन के लिए एक विश्वव्यापी सन्धि का प्रस्ताव रखा था। इस समय अमेरिका के पास 263 और रूस के पास केवल 150 परमाणु बम जमा हो सके थे। 1964 में भारत-चीन युद्ध के दो वर्ष पश्चात् भारत के अग्रणी परमाणु वैज्ञानिक डॉ. होमी जहाँगीर भाभा ने आत्मरक्षा के लिए परमाणु हथियार के पक्ष में प्रस्ताव रखा था। इसके तीन सालों बाद सन् 1967 तक अमेरिका के पास 31,141 परमाणु बम, रूस के पास 8,339, ब्रिटेन के पास 270, फ्राँस के पास 36 और चीन के पास 25 परमाणु बम हो चुके थे। इसी बीच भारत ने रूस के साथ 20 वर्षों की मैत्री सन्धि की, जिसका अमेरिका ने भारी विरोध किया एवं भारत को 1973 के भयंकर तेलसंकट से गुजरना पड़ा। इन्हीं सब अन्तर्राष्ट्रीय दबावों से भारत ने अपने राष्ट्रहित में 1974 की बुद्ध पूर्णिमा को पोखरण में प्रथम परमाणु परीक्षण किया।

इन बमों की भयावहता हमें जापान के भीषण नरसंहार की याद दिलाती है। छह अगस्त सन् 1945 को रात तीन बजे अमेरिकी वायुसेना के कर्नल पाल और रॉबर्ट लुई ने बी. 29 विमान से 31,000 फीट की ऊँचाई से हिरोशिमा पर यह बम डाला था। इस परमाणु बम का नाम था-लिटिल ब्वाय। इस विस्फोट से तत्क्षण 70,000 लोग मारे गए तथा कुछ दिनों के अन्तराल में डेढ़ लाख लोग काल के गाल में समा गए। लाखों लोगों ने जो दीर्घकालीन यातना सही वह असहनीय थी। विस्फोट के केन्द्र में तापमान 3000 से 4000 डिग्री तक पहुँच गया, जबकि लोहा 1550 डिग्री पर पिघल जाता है। यही हाल नागाशाकी का भी हुआ। इन दोनों शहरों में लगभग साढ़े तीन लाख लोगों की मृत्यु हुई। उन दिनों जो भीषण नरसंहार हुआ, उसका प्रभाव वहाँ के वातावरण पर्यावरण में आज तक शेष है।

परमाणविक विस्फोट दो प्रकार के होते हैं। ‘लो एयर वर्स्ट’ जो वायु में कुछ ऊँचाई पर होता है। ग्राउण्ड वर्स्ट में बम धरती पर आकर फटता है। धरती पर हुए विस्फोट की क्षति का दायरा कम होता है। हवा में हुआ विस्फोट दूर तक असर करता है, यदि 20 किलो टन क्षमता का एक परमाणु बम एक शहर पर गिराया जाता है, तो उस केन्द्र से एक किलोमीटर की परिधि में सारी इमारतें पूरी तरह ध्वस्त हो जायेंगी और 95 प्रतिशत लोग तुरन्त मर जायेंगे। एक से दो किलोमीटर के बीच आँशिक से पूर्ण विनाश होगा और 50 प्रतिशत लोग तत्काल मर जायेंगे। दो से तीन किलोमीटर के दायरे में विनाश भारी-भरकम होगा। इस क्षेत्र में केवल 25 फीसदी लोग मरेंगे। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 30 लाख आबादी वाले एक शहर पर 20 किलो टन के एक परमाणु बम से 13 लाख लोगों के मरने की सम्भावना है।

यदि भविष्य में नाभिकीय युद्ध हुआ तो 80 प्रतिशत ओजोन परत पूरी तरह से नष्ट हो जायेगी। विश्व के नाभिकीय हथियारों के जमा जखीरे का मात्र 5 से 10 फीसदी का ही प्रयोग किया जाए, तो लगभग दस लाख वर्ग किलोमीटर विस्तृत धरती भीषण आग में जलकर भस्म हो जायेगी। इस संभावित भयावहता को देखकर विश्वविख्यात सैन्यविचारक लिटिल हार्ट ने कहा है, नाभिकीय युद्ध मानवी सभ्यता को सम्पूर्ण रूप से विनष्ट कर सकता है। संसार के सुप्रसिद्ध सैन्य इतिहासकार जनरल जे. एफ. सी. फुलर ने स्पष्टतया चेतावनी दी है कि नाभिकीय युद्ध से विजेता एवं विजित दोनों ही समाप्त हो जायेंगे। जोनाथन शेल ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘द फेट ऑफ द अर्थ’ में उल्लेख किया है कि परमाणु युद्ध होने पर हम गहन अंधकार में डूब जायेंगे। एक ऐसा अंधकार, जिसमें कोई राष्ट्र, कोई समाज, कोई विचारधारा, कोई सभ्यता नहीं बचेगी। फिर किसी शिशु का जन्म नहीं होगा और धरती पर कभी मानव अवतरित नहीं होगा। ऐसा भी कोई नहीं बचेगा, जो धरती पर मानव के अस्तित्व को याद कर सके।

भविष्य की इन आशंकाओं के बावजूद धरती का स्वर्गीय सौंदर्य नष्ट नहीं होने पायेगा। जिनमें अंतर्दृष्टि है, जो भविष्य की उज्ज्वल किरणों को देख सकते हैं, वे स्पष्ट देख रहे हैं कि मानवी दुर्बुद्धि का यह दौर अधिक दिनों तक टिकने वाला नहीं है। इक्कीसवीं सदी मानवी जीवन का जो स्वरूप प्रस्तुत करने जा रही है, उसमें इंसान परमाणु ऊर्जा का उपयोग करेगा तो अवश्य, पर विनाश के लिए नहीं, अपितु विकास के लिए, जीवन के नवनिर्माण के लिए। पोखरण में हुए परमाणु विस्फोट को भारत के आत्मसम्मान की धमक के साथ वह भी समझा जाना चाहिए कि यह एक ऐसा परिवर्तन बिन्दु है, जो ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे जे आचरहिं ते नर न घनेरे’ की तर्ज पर उपदेश देने वाले देशों को यह सोचने पर विवश करेगा, केवल बातों से नहीं, परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए सार्थक कदम बढ़ाए बिना उन्हें मानवता की भावी पीढ़ी कभी क्षमा नहीं करेगी।


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