नवसृजन अंक (जून, 98) के संदर्भ में पूज्यवर का चिन्तन नवनीत- - स्वर्ग और देवत्व के अवतरण की प्रयोगशाला है शान्तिकुञ्

July 1998

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प्रस्तुत लेख परमपूज्य गुरुदेव ने अप्रैल, 1980 के विशेषांक के लिए लिखा था। शान्तिकुञ्ज के विस्तार के संदर्भ में उनने जो विचार इस लेख में अभिव्यक्त किए हैं, वे अक्षरशः आज भी 18 वर्ष बाद उसी तरह लागू होते हैं। परमपूज्य गुरुदेव का मिशन नवनिर्माण का-युगसृजन का मिशन रहा है। उनके संकल्प सदैव ऊँचे रहे हैं। साधारण भवन बनाकर आश्रम खड़ा करने की उनने कभी कल्पना नहीं की। कैसा होगा आने वाले प्रज्ञायुग का समाज, कैसे बनेगी परिवार-संस्था एक आदर्श इकाई के रूप में यही विचार उनके चिन्तन में सतत् घुमड़ते रहते थे। इसीलिए उनने देवपरिवारों को बसाने के लिए एक ऐसे स्थान की, परिकल्पना की जहाँ से भाव-संपन्नों को दिशाधारा दी जा सके। नया संसार बसाएँगे, नया इनसान बनायेंगे-गीत परमपूज्य गुरुदेव ने ही लिखा था। नया भगवान बनाने की बात मात्र एक द्रष्टास्तर की अवतारीसत्ता ही कर सकती है। इसीलिए वे इस लेख में लिखते हैं कि शान्तिकुञ्ज को-गायत्रीनगर को-धरती पर स्वर्ग के अवतरण का एक छोटा नमूना बनाया जा रहा है।

भविष्य में मिशन के होने जा रहे नए विस्तार में जो शान्तिकुञ्ज-गायत्री नगर की वर्तमान भूमि से प्रायः ढाई गुना भूमि क्रय करके शान्तिकुञ्ज व गंगा नदी के बीच बनने जा रहे गायत्रीकुञ्ज में, जो नालंदा-तक्षशिला स्तर का प्रशिक्षण एवं आयुर्वेद के विज्ञानसम्मत अनुसंधान का क्रम चलाना है, वह इसी लेख का उत्तरार्द्ध है। आधार को समझ लेने वालों को, आगे के पक्ष को आत्मसात् करने में कोई कठिनाई होगी नहीं। इसीलिए यह लेख पुनः प्रकाशित किया जा रहा है।

शान्तिकुञ्ज में गायत्री नगर बनाने का संकल्प इसी दृष्टि से उठा कि धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्न छोटे रूप में साकार करके दिखाया जाए। भावी सम्भावनाओं का अनुमान लगाने के लिए वर्तमान में भी कुछ प्रतीक-चिह्न तो खड़े करने ही पड़ते हैं। इमारतें बनने से पूर्व उनके नक्शे बनाए जाने हैं। मूर्तियाँ गढ़ी जाने से पूर्व उनके मॉडल खड़े होते हैं देवताओं का स्वर्ग पहले अपनी भारतभूमि पर बिखरी हुई स्वर्णिम परिस्थितियों में प्रतिभासित होता था। उसे देखकर लोग उससे भी ऊँची परिस्थितियों का अनुमान लगाते थे और मरणोत्तर जीवन आने पर वहीं पहुँचने का स्वप्न देखते थे।

घर-परिवारों को स्वर्ग का छोटा प्रतीक-प्रतिनिधि माना जाता था। उसमें भावनात्मक षट्रस व्यंजन मिलते हैं। छोटे-बड़े नर-नारी समर्थ, अविकसित, मिल−जुलकर एक गुलदस्ता बनते थे और उनके संयुक्त अस्तित्व आनंद के निर्झर झरते थे। दीवार, छप्पर तो इन्हीं दिनों जैसे होते थे। चूल्हा-चक्की बुहारी-चारपाई तो इन दिनों जैसी ही होते थे, पर उनमें व्यवस्था और सुसज्जा की ऐसी कलाकारिता समाई होती थी कि उस आश्रम में पलने वाले स्वर्ग का पूर्णाभास पाते ओर मोद मनाते थे। जहाँ श्रमशीलता और व्यवस्था रहेगी वहाँ दरिद्रता क्योंकर प्रवेश करेगी? जहाँ आपाधापी नहीं, वहाँ मनोमालिन्य किस बात का? जहाँ दुष्टता नहीं वहाँ ‘विग्रह’ क्यों? जिन कारणों से नरक पनपता है, उनकी जड़ ही न जमने पाये तो असंतोष और संतोष कैसा? भारतीय परिवारों में आतिथ्य पाने वाले, विदेशी तक अपने भाग्य को सराहते थे। वहाँ क्या खाया-पाया तो छोटी बात थी, क्या देखा और क्या अनुभव किया, इसी की स्मृति उनके मानसपटल पर आजीवन छाई रहती थी। ऐसे थे भारतीय परिवार। उन्हीं का संयुक्त रूप अपने देश की धरती पर बिखरा पड़ा था। फलतः उसे जन-जन द्वारा ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ की मान्यता और प्रतिष्ठा मिली थी।

नव-निर्माण मिशन ने अपने लक्ष्य को दो स्वरूप में चरितार्थ होने की सम्भावना घोषित की है। एक धरती पर स्वर्ग का अवतरण, दूसरा मनुष्य में देवत्व का उदय यह दो आधार, दो पृथक् इकाइयाँ नहीं वरन् एक ही तथ्य के दो पहलू है। जहाँ लोगों की मनःस्थिति में देवत्व की उत्कृष्टता भरी होगी, वहाँ व्यवहार में स्नेह-सहयोग सृजन, सौंदर्य की हलचलें दृष्टिगोचर होंगी। दूसरे शब्दों में, इसी प्रकार कहा जा सकता है कि जहाँ स्वर्गीय वातावरण होगा वहाँ उस प्रभाव से प्रभावित व्यक्ति देवत्व का आचरण करते, देवों जैसा दृष्टिकोण अपनाते पाये जायेंगे। देवताओं की निवास भूमि को स्वर्ग कहते हैं। जितना यह कथन सत्य है उतना ही यह भी सत्य है कि स्वर्गीय वातावरण में रहने वाले देवत्व से भरते चले जायेंगे।

यह प्रतिपादन किस हद तक सही है? सामान्यतः इसे हर व्यक्ति जानना चाहेगा? जो व्यवहार में दृष्टिगोचर होता है, कुतूहल उसी का होता है। जादू उस प्रस्तुतीकरण को कहते हैं, जो सामान्यतः देखा नहीं जाता। सिद्धियाँ उन विशेषताओं को कहते हैं, जो हर किसी में दृष्टिगोचर नहीं होतीं। देवता अलौकिक होते हैं। स्वर्ग धरती से बहुत ऊपर है। इन समस्त प्रतिपादनों से एक ही ध्वनि निकलती है कि जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए युगनिर्माण मिशन के प्रयास चल रहे हैं, वह सामान्य जन-जीवन से ऊँची स्थिति है।

धरातल पर सहगमन एक जैसा होता है। मनुष्य दो पैरों से और पशु चार पैरों से चलता है, पर पक्षी आकाश में उड़ते हैं। चलने और उड़ने का अंतर स्पष्ट है। इसी प्रकार लोकव्यवहार और आदर्शवादी अनुशासन में भी भिन्नता रहेगी। आस्थाओं और चेष्टाओं में उत्कृष्टता की मात्रा बढ़ जाने को ही अध्यात्म की भाषा में उत्कर्ष या अभ्युदय कहते हैं।

सम्पदाओं को वैभव कहते हैं। वैभव कोई भी कमा सकता है, चोर, उचक्का-लुच्चा भी। वह उत्तराधिकार, लाटरी में या भाग्यवश अनायास भी मिल सकता है। किन्तु अभ्युदय तो हर व्यक्ति का निजी उपार्जन है। रोटी स्वयं खाई, पचाई जाती है, काया को जीवनी-शक्ति उसी से प्राप्त होती है। दूसरों के खाने-पचाने से अपने शरीर में रक्तमांस नहीं बढ़ता। इसी प्रकार देवत्व और अभ्युदय के लिए वैयक्तिक प्रयास से परिशोधन और अभिवर्द्धन का क्रम चलता है। इसी राजमार्ग पर एक-एक कदम चलते हुए जीवनलक्ष्य तक पहुँचना सम्भव होता है। यही है देवत्व की उपलब्धि का स्वरूप। उसे प्राप्त करने में यों आवश्यक तो मार्गदर्शन भी होता है, पर वस्तुतः काम वातावरण से बनता है।

अनुगमन की प्रेरणा प्रभावी प्रतिपादन से नहीं, प्रस्तुत उदाहरण से मिलती है। इसकी व्यवस्था जहाँ बनी, समझना चाहिए कि सम्भावनाओं के प्रत्यक्ष होने का साधन बन गया।

नवयुग में चिंतन किस स्तर का होगा, उसकी झाँकी करने और उसे लोकमानस में जमाने के लिए अखण्ड-ज्योति ने लम्बे समय से प्रयास किया है। प्रतिपादनों के पीछे जुड़े हुए तथ्य और सत्य ने हर विचारवान को प्रभावित और प्रेरित किया है। चिंतन का प्रवाह मोड़ने में उस प्रयास को उत्साहवर्द्धक ही नहीं, आशातीत कही जाने वाली सफलता भी मिली है। इतने पर भी उसका प्रत्यक्ष प्रतिफल दृष्टिगोचर नहीं उतरा और देवचिंतन के रहते हुए भी देवत्व का प्रत्यक्ष अस्तित्व दृष्टिगोचर नहीं हुआ। इस कमी का एक ही कारण है-बीजारोपण के उपरान्त उपयुक्त खाद-पानी का न मिलना।

आदर्शवादी प्रतिपादनों को बीजारोपण से अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता। वह आवश्यक तो है, पर समग्र नहीं। स्वाध्याय और सत्संग का महत्व एकपक्षीय है। बात आचरण से बनती है और उसके लिए अनिवार्य रूप से वातावरण चाहिए। उद्यान लगाने वाले सिंचाई रखवाली माली आदि की समस्त व्यवस्थाएँ बनाते हैं अन्यथा अपने आप तो जंगलों में झाड़-झंखाड़ ही उगते-बढ़ते हैं। अनगढ़ता सर्वत्र है। सुसंस्कारिता के लिए तो नियोजन और अनुशासन को निरंतर अपनाये रहना पड़ता है। उद्यान लगाना और परिवार बसाना एक ही प्रक्रिया के दो प्रयोग हैं।

‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का उद्घोष बनाये रहने से काम नहीं चलेगा। इस मधुर कल्पना को कब तक रखे रहा जाएगा? स्वप्नों के कल्पना-चित्र भी छाप छोड़ते और संवेदना उभारते देखे जाते हैं, पर वे प्रत्यक्ष में न उतरने के कारण अविश्वस्त ओर निरर्थक समझे जाते हैं। वसुधैव कुटुम्बकम् के महान आदर्श में ही उज्ज्वल भविष्य की संभावनायें सन्निहित हैं। एकता और ममता के ईंट-गारे से ही नवयुग का भवन चुना जाएगा। उस प्रतिपादन को प्रत्यक्ष करना होगा। योजनाएँ भी दिवास्वप्न ही होती हैं। उनमें अन्तर इतना ही रहता है। कि उपलब्धि के लिए साधन जुटाने की सम्भावनाओं को जुड़ा रखते हैं, जबकि स्वप्नों में वैसा कुछ नहीं होता। वसुधैव कुटुम्बकम् के स्वप्न चिरकाल से देखे जाते रहे हैं और उनकी पूर्ति में उज्ज्वल भविष्य का रंगीन चित्र दर्शाया जाता रहा है। अब एक कदम आगे बढ़ने की आवश्यकता है। रात्रि-स्वप्नों और दिवास्वप्नों में जो अंतर होता है उसे समझा जाना चाहिए। रात्रि-स्वप्न कल्पनाक्षेत्र में अविज्ञात से आते और अनन्त की ओर उड़ते चले जाते हैं। उनके सिर पैर नहीं होते। किन्तु दिवा-स्वप्नों के पीछे कार्य-कारण की संगति होती है। उनके पीछे क्रमबद्ध योजना बनती है और साधन जुटाने की तत्परता रहती है। वसुधैव कुटुम्बकम् की आदर्शवादिता को अब स्वप्नलोक से नीचे लगने और व्यवहार में उतरने का समय आ गया।

गुरुकुलों, आरण्यकों और तीर्थकल्पों की गरिमा-गाथा का बखान यदि सच्चे मन से होता है, तो उसमें एक कड़ी और जुड़नी चाहिए-उस त्रिवेणी के पुनर्जागरण की, पुनर्जीवन की। गंगा का अस्तित्व तो पहले भी था। पर था वह स्वर्गलोक में। उसे प्रयत्नपूर्वक भगीरथ ने धरती पर उतारा। मनुष्यों को देवत्व के वरदान-उपहार से लदे रहने वाली वह त्रिवेणी रूठकर दमयंती को लाने अपने पितृगृह चली गई है अथवा यों कहना चाहिए कि सीता की तरह अपहृत कर ली गई है। जो हो उसे वापस लाया जाना चाहिए। मानवी काया में शैतान भी रहता है और भगवान भी। परिस्थितियाँ उसे हैवान बनाये रहती हैं, किंतु अनुकूलता मिलने पर उसका इनसान भी प्रकट एवं प्रबल हो सकता है। युगसृजन में इसी प्रयास की आवश्यकता है।

इसी दूरदर्शी चिंतन ने, समय के इसी दबाव ने गायत्री नगर बनाने की प्रेरणा दी और इस इमारत का काम-चलाऊ अंश बनकर तैयार भी हो गया है। अब इसमें इतनी जगह हो गई है कि मन-मसोस कर न बैठा जाए। जो करना है उसके लिए कुछ कर सकने के लिए कदम बढ़ाया जाए। देवालय, धर्मशाला बनाने की बात न कभी सोची गई और न सोची जा रही है। धनीमानी यशलिप्सा या पुण्य लूटने की दृष्टि से उस प्रकार के भवन बनाते ही रहते हैं। जितनी तेजी से जितनी संख्या और जैसी विशालता के साथ वे बन रहे हैं, उन्हें देखते हुए कई बार तो यहाँ तक सोचना पड़ता है कि वस्तुतः इनकी आवश्यकता है भी या नहीं? कहीं निर्माण-सामग्री और भूमि का अपव्यय तो नहीं हो रहा है? गायत्री नगर बनाते समय इस प्रकार का अन्धानुकरण कभी कल्पना में भी नहीं आया। उसके पीछे एक सुनिश्चित योजना रही है। इसी प्रेरणा से इसके साधन जुटाने में एड़ी-चोटी का श्रम किया गया है। भावसम्पन्नों को दिशाधारा दे सकने योग्य वातावरण बनाने की दृष्टि से ही इस निर्माण को हाथ में लिया गया। उसका ढाँचा खड़ा होने पर अब दूसरा कदम उठाना है-देव-परिवार बसाने का। युगमंच से एक गीत आरंभ से ही गाया जाता रहा है-नया संसार बनायेंगे, नया इनसान बनायेंगे। नया भगवान बनायेंगे, नया परिवार बनायेंगे।

युगसृजन के पीछे इसी तत्वदर्शन को क्रियान्वित करने की आकांक्षाएँ उफनती और छोटी-बड़ी योजनाएँ बनती आई हैं। अब वह समय आ गया कि उन्हें साकार और गतिशील बनाया जाए।

गायत्री नगर में क्या किया जाना है। इसकी योजना और घोषणा पिछले दिनों संक्षिप्त रूप से बताई जाती रही है। उसे युगशिल्पियों का प्रशिक्षण संस्थान बनना है-बौद्ध विहारों और संघारामों जैसा। बुद्ध के धर्मचक्र-प्रवर्तन अभियान में प्रशिक्षण के लिए विहार और नियोजन के लिए संघाराम बने थे। उतने विशाल निर्माणों का अवसर तो नहीं मिला, पर गायत्री तपोभूमि को संघाराम एवं गायत्री नगर को बुद्ध विहार के अनुकरण कर सकने योग्य बनाया गया है।

युगशिल्पी बारी-बारी से यहाँ आते रहे और आत्मनिर्माण तथा लोकनिर्माण की उभयपक्षीय प्रक्रिया को क्रियान्वित करने का आभास करते रहे। ऐसी पाठ्यविधि बनाई गई है। एक-एक महीने के साधना एवं शिक्षण के बहुमुखी प्रशिक्षण सत्र यहाँ चलते रहेंगे। जो अधिक समय ठहरना चाहेंगे, उनके लिए वैसी सुविधा भी रहेगी। युगसृजन बड़ा काम है। उसकी जटिलताओं को देखते हुए तदनुरूप प्रशिक्षण नितान्त आवश्यक है। डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, वैज्ञानिक, कलाकार आदि को अपने विषय में पारंगत होने के लिए कई-कई वर्ष का प्रशिक्षण एवं अनुभव प्राप्त करना पड़ता है। तो कोई कारण नहीं कि युगसृजन के समुद्र-मंथन जैसे महान कार्य को संपन्न करने के लिए आवश्यक अनुभव एवं अभ्यास की आवश्यकता न पड़े। गायत्री शक्तिपीठों का चलाना रेलगाड़ी चलाने से भी अधिक पेचीदा है। संचालकों में स्तरीय प्रवीणता न हो तो वह बहुमूल्य प्रयास निरर्थक बनकर रह जाएगा। तथ्य को ध्यान में रखते हुए-आवश्यकता को समझते हुए सृजनशिल्पियों की बहुमुखी शिक्षा-व्यवस्था का कार्यक्रम बना है।

यह प्रत्यक्ष क्रिया-प्रक्रिया हुई। अब इससे भी पहले की बात यह सोचनी है कि छात्रों को पढ़ायेगा कौन? यह प्रश्न सरल भी है और कठिन भी। सरल इस अर्थ में कि अन्य विद्यालयों की तरह निर्धारित पाठ्यक्रम को पूरा करा देने वाले अध्यापक आसानी से मिल सकते हैं। पेचीदा मशीनों को चलाने, बनाने, सुधारने की कला जब कुछ ही समय में सिखाई जा सकती है, तो युगसृजन जैसी सीधी-सादी पाठ्यविधि को पूरा करने में क्या कठिनाई हो सकती है। किसी भी अध्यापक स्तर के व्यक्ति को निर्धारित विषयों का अभ्यास कराने और पढ़ाने में प्रवीण किया जा सकता है। इस दृष्टि से यह कार्य नितान्त सरल है।

कठिन इस अर्थ में कि इस शिक्षण-प्रक्रिया में छात्रों के व्यक्तित्व को ढालना भी सम्मिलित है। उनके निजी चिंतन, स्वभाव एवं क्रिया-कलाप में ऐसा परिवर्तन लाना है कि वे सम्पर्क क्षेत्रों में अन्यान्यों को ढाल सकने वाले साँचे की भूमिका निभा सकें। ‘डाई’ से पुर्जे बनते चले जाते हैं। किंतु डाई का बनना अत्यन्त कठिन होता है। उसे कुशल कारीगरों के अभ्यस्त हाथ तथा अनुभवी मस्तिष्क ही सही रूप में बना पाते हैं। जो शिक्षार्थी गायत्री नगर में आवेंगे उन्हें प्रवक्ता-अध्यापक बनना होता तो निश्चय ही यह बहुत सरल था। कला सीखना-सिखाना कठिन नहीं है, पर व्यक्तित्वों को ढालना, बदलना, हीरा तराशने और खरादने जैसा कठिन है। शिक्षार्थी साँचा और डाई बन सके तो ही उनके शिक्षण की सार्थकता है अन्यथा आवश्यक जानकारी तो पत्रिकाओं में छपते रहने वाले लेख ही करा देते हैं। उतने भर के लिए किसी को समय और धन खर्च करने की आवश्यकता क्यों पड़े?

मनुष्य को उत्कृष्टता के ढाँचे में ढालने की कोई मशीन नहीं बनी है। वह कार्य तो प्रेरणाप्रद वातावरण और निजी प्रभाव से ही सम्भव हो सकता है। नवसृजन के प्रशिक्षण में इसी तथ्य की प्रमुखता रहेगी। अतएव अध्यापक ऐसे होने चाहिए। जो शिक्षार्थियों को जानकारी ही नहीं दे वरन् उन्हें विकसित-परिष्कृत कराने में, प्रखर प्रतिभाशाली बनाने में भी योगदान दे सकें। विद्यार्थी भर्ती करने से पूर्व अध्यापकों की नियुक्ति करनी पड़ती है अन्यथा बिना पढ़ाने वालों का स्कूल तो अनाथालय बनकर रह जायेगा। गायत्री नगर के विद्यालय के अध्यापकों को ‘छात्राध्यापक’ की दुहरी भूमिका निभानी पड़ेगी। वे स्वयं भी पढ़ेंगे, साथ ही दूसरों को भी पढ़ायेंगे। गायत्रीनगर में बसने के लिए अखण्ड-ज्योति परिवार ने उन प्रबुद्ध परिजनों को आमंत्रित किया गया है, जो आत्मकल्याण और लोककल्याण की दुहरी शिक्षा-साधना साथ-साथ करने में रुचि रखते हों, जिन्हें सच्चा स्वार्थ साधने और सच्चा परमार्थ करने में उत्साह हो। बड़ी कक्षाओं के छात्रों में से कितने ही ऐसे भी होते हैं, जो छोटी कक्षाओं के छात्रों को पढ़ाने की व्यवस्था बनाकर अपना काम चलाते हैं। गायत्री नगर में बसने वाले अपनी वर्तमान स्थिति से ऊँचा उठने के लिए-अपने स्तर की प्रगति करेंगे। साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा की चतुर्विधि आत्मोत्कर्ष प्रक्रिया हर श्रेयार्थी के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है। मात्र भजन अधूरा है। किसान को भूमि, बीज, सिंचाई और रखवाली की चारों व्यवस्थाओं पर समान रूप से ध्यान देना और प्रबन्ध करना पड़ता है। इसी प्रकार श्रेयार्थी साधना, स्वाध्याय, संयम सेवा के चारों विधान अपनी दिनचर्या में सम्मिलित करते हैं। यही रीति-नीति उन्हें अपनानी होगी, जो गायत्री नगर में निवास करते हुए उसका वातावरण बनाने तथा उससे स्वयं लाभान्वित होने के महत्व को समझे होंगे।

शान्तिकुञ्ज को गायत्री नगर को धरती पर स्वर्ग के अवतरण का एक छोटा नमूना बनाया जा रहा है। उसके निवासी इस प्रयत्न में निरत रहेंगे कि मनुष्य में देवत्व के उदय की सम्भावना को अपने निजी व्यक्तित्व में प्रकट कर सकें। ‘वसुधैव कुटुम्बक की आदर्शवादिता को चरितार्थ करने के लिए किन गतिविधियों को अपनाना होगा? शिक्षार्थियों और निवासियों को लाभान्वित कर सकने वाला प्रेरणाप्रद वातावरण किस प्रकार बन सकता है? इन्हीं तथ्यों को उजागर करने के लिए गायत्री नगर को युगचेतना उभारने की एक सशक्त प्रयोगशाला बनाया जा रहा है। उसे सफल बनाने में छात्रों से भी अधिक योगदान उनका होगा, जो इसमें बसेंगे तथा उपर्युक्त प्रयोजनों की पूर्ति में सतत् संलग्न रहेंगे।


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