ऐसी चमत्कारी क्षमताएँ तो जी का जंजाल हैं

July 1998

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प्रायः लोग साधना-उपासना के क्षेत्र में इसलिए प्रवेश करते हैं कि उन्हें इससे वे सिद्धियाँ मिल जायेंगी, जिसके आधार पर सब कुछ प्राप्त कर लेने का दावा शास्त्र करते हैं। जिस आत्मकल्याण के उद्देश्य को पूरा करने के लिए साधना-उपासना का समग्र स्वरूप ऋषियों ने गहन अनुसंधान के उपरान्त खड़ा किया, वह मात्र चमत्कारी सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए नहीं हो सकता। पर इसे विडम्बना ही कहा जाना चाहिए कि साधना-क्षेत्र में प्रवेश करने वालों की रुचि जितनी सिद्धियाँ प्राप्त करने की होती है, उतनी आत्मोत्कर्ष की नहीं। ऐसी आकांक्षा क्यों की जाती है? गहराई से विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि मात्र इसलिए कि कठोर जीवन-संघर्ष के झंझावातों से न जूझना पड़े और सब कुछ सहज-सरल ढंग से प्राप्त हो जाए। यह परमात्मा के व्यवस्था नियमों को तोड़ने की आकांक्षा ही कही जाएगी, अन्यथा परमात्मा ने प्रत्येक मनुष्य को इतने साधन और इतनी शक्तियाँ प्रदान कर रखी हैं कि उनका यदि भली-भाँति उपयोग किया जाए तो विशेष कुछ आवश्यकता रह ही नहीं जाती।

सिद्धियाँ और चमत्कारी क्षमताएँ जिन्हें प्राप्त होती हैं, वे भी केवल इसलिए कि उनका प्रयोग मानव कल्याण के लिए किया जा सके। कई बार किन्हीं व्यक्तियों को अनायास ही कोई सिद्धि या अतीन्द्रिय क्षमता प्राप्त हो जाती है, तो उन्हें अपनी इन क्षमताओं के कारण प्रायः परेशान ही होते देखा गया है। उदाहरण के लिए, पीटरहरकौस को ही लिया जाए जो विश्व के सर्वाधिक प्रसिद्ध और सफल भविष्यवक्ता रहे हैं। उन्हें अतीन्द्रिय दर्शन की यह क्षमता एक दुर्घटना में अनायास ही प्राप्त हुई थी और इस कारण उन्हें इतना अधिक परेशान होना पड़ा कि वे सोचने लगे कि किस प्रकार से इस सिद्धि से छुटकारा पाया जाए? उनमें जब यह क्षमता जागृत हुई तो वे जिस किसी को भी देखते थे, उसके बारे में सब कुछ जान जाते थे। न केवल जिसे देखते थे, उसके बारे में, वरन् उससे संबंधित जीवित और मृत व्यक्तियों के बारे में उनका भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ किसी फिल्म की तरह आँखों के आगे नाचने लगता था। उनकी इसी असाधारण अतीन्द्रिय चेतना से कई लोग उनकी जान के दुश्मन बन गये और कई बार उन पर प्राणघातक हमले भी हुए।

जिस दुर्घटना के कारण उनकी यह तृतीय दिव्य दृष्टि जाग्रत हुई थी, वह एक्सटर्डम-हालैण्ड के पास एक सैनिक मुख्यालय में घटी थी। सीढ़ी से पैर फिसल जाने के कारण तीस फीट की ऊँचाई से वे गिरे थे और उनके सिर हड्डियाँ चटक-सी गयी थीं और वे गिरते ही बेहोश हो गये थे। अस्पताल में जब उन्हें भरती कराया गया तो डॉक्टरों को स्वयं आश्चर्य हुआ कि इतनी बुरी तरह चोट खाने के बाद भी वह कैसे बच गये थे? भला उनके बचने की क्या उम्मीद की जा सकती थी?

दूसरा आश्चर्य तब हुआ, जब चार दिन तक लगातार बेहोशी में डूबे रहने के बाद पीटर ने पलकें झपकाईं और धीमे से कराहे। उनकी कराह सुनकर ड्यूटी पर काम कर रही नर्स बिस्तर के पास आयी और पीटर ने उसे देखते ही कहा कि वह अपनी सहेली का सूटकेस अभी घर से चलते समय ट्रेन में भूल आयी है बात एकदम सही थी। हालाँकि नर्स को स्वयं अभी तक सूटकेस ट्रेन में ही छूट जाने की बात याद नहीं आयी थी।

चमत्कार ही था कि चार दिन से बेहोश पड़े मरीज ने किसी व्यक्ति को उसके संबंध में ऐसी बात बतायी थी जिसका उसे स्वयं भी ध्यान नहीं था। इस चमत्कार के बाद तो पीटर चमत्कार पर चमत्कार इतने करने लगे कि अपने चमत्कारों से वह खुद परेशान हो उठे।

वह धीरे-धीरे ठीक होते जा रहे थे और अस्पताल में अपने आस-पास के मरीजों से बात-चीत करते हुए उनकी निजी जिंदगी के अज्ञात पहलू उघाड़ते रहते थे। एक बार उनने अपने पास ही लेटे मरीज को बताया कि तुमने अपने पिता की अन्तिम निशानी भी बेच डाली है, जो सचमुच पास वाले मरीज ने अपने पिता द्वारा दी हुई घड़ी बेच दी थी और उससे मिली हुई रकम जुए में हार गया था। जुए के खेल में ही मारपीट से वह बुरी तरह घायल होकर अस्पताल में भरती हुआ था तथा स्वास्थ्यलाभ कर रहा था। उसके आस-पास मौजूद किसी भी व्यक्ति को नहीं मालूम था कि उस व्यक्ति ने अपने स्वर्गीय पिता की घड़ी बेच दी है और उसकी रकम जुए में हार गया। वह व्यक्ति बड़ा परेशान हुआ और इस ढंग से पोल खोल दिये जाने पर मन-ही-मन नाराज हो उठा।

पीटर हरकौस जिन दिनों अस्पताल में थे और पहले से काफी स्वस्थ भी हो गये थे, उन्हीं दिनों ठीक होकर जा रहे एक व्यक्ति को उन्होंने रोका। वह पास आकर खड़ा हुआ तो पीटर ने कहना शुरू किया, मित्र मेरी बात मानो तो तुम अभी बाहर मत निकलो, जर्मन जासूस तुम्हें ढूँढ़ रहे हैं और तुम्हें देखते ही वे गोली मार देंगे।

वह व्यक्ति बड़ा घबड़ाया और पीटर की बात अनसुनी कर आगे बढ़ गया। न जाने क्या हुआ कि पीटर जोर से चीख उठा-रोको उसे मत जाने दो, वह ब्रिटिश जासूस है और जर्मन सैनिक उसे मार डालेंगे। यह कहते-कहते वह उठ पड़ना चाहते थे कि डॉक्टरों और नर्सों ने पकड़कर सम्हाला। तब तक वह व्यक्ति अस्पताल से बाहर जा चुका था और कुछ ही देर बाद बाहर गोलियाँ चलने की आवाज सुनाई दी। सचमुच वह व्यक्ति भून दिया गया था।

उसी अस्पताल में कुछ ऐसे नये-नये लोग भरती हुए थे, जो जर्मनी के विरुद्ध भूमिगत संघर्ष चला रहे थे। पीटर के द्वारा उस ब्रिटिश जासूस के संबंध में मचाये गये इस हो-हल्ले से उन्हें शंका हुई कि कहीं वह जर्मनी का जासूस तो नहीं है? जिसने चिल्लाकर बाहर घूम रहे अपने साथियों को इस व्यक्ति के ब्रिटिश जासूस होने की सूचना दी। अस्पताल में भरती हालैण्ड मुक्ति मोर्चे के लोग पीटर के बारे में यह संदेह कर रहे थे और पीटर स्वयं दुविधापूर्ण स्थिति में थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे मुझे दूसरे लोगों के बारे में सब कुछ मालूम हो जाता है? और क्यों अनचाहे भी उस जानकारी को कह उठता हूँ?

दूसरों के बारे में प्रकट-अप्रकट बातों का अपने आप ज्ञान हो जाने के बाद भी पीटर लाख कोशिश करते कि वे किसी से कुछ न कहें पर उस समय एक आवेग-सा उठता था और न चाहते हुए भी वह अपनी अनुभूतियों को व्यक्त कर देते थे। लोगों की अपनी निजी जिंदगी में कई बातें ऐसी होती थीं जिन्हें वे गोपनीय रखते थे और किसी को बताना नहीं चाहते थे। ऐसे लोग पीटर के सामने पड़ते तो वह उनकी गोपनीय बातों को तुरंत रिकार्ड की तरह बजा देते। इस कारण कई लोग उनके दुश्मन बनने लगे।

इधर हालैण्ड मुक्ति मोर्चे के कुछ सदस्य जो संयोगवश पीटर के संपर्क में आये थे, वे भी उसके बारे में पक्के तौर पर समझने लगे थे कि वह जर्मनी का एजेण्ट है। क्योंकि पीटर अपने स्वभाव के अनुसार उनके ज्ञात-अज्ञात रहस्य उसी प्रकार व्यक्त कर देता था, जैसे वह इन लोगों के एक-एक पल का हिसाब रखता था। रहस्यों को क्षणभर में जान लेना और उन्हें ज्यों-का-त्यों बता देना पीटर की मजबूरी थी, किन्तु यह मजबूरी जर्मनी के विरुद्ध सक्रिय गुप्तदल के लिए उसके जर्मन एजेण्ट होने का प्रमाण था। इसलिए मुक्ति मोर्चे के लोगों ने जर्मन एजेण्ट समझे जा रहे पीटर का सफाया कर देने का निश्चय किया और दल के कुछ व्यक्ति इस काम के लिए नियुक्त हुए।

अवसर पाते ही गुप्तदल के लोगों ने पीटर को धर दबोचा। उन्होंने अपनी सफाई में कुछ कहना चाहा तो मुक्ति मोर्चे के सदस्य हँसी उड़ाते व्यंग्य करते हुए अपना काम निबटाने के लिए पीटर का गला दबाने लगे। पीटर की साँस घुटने लगी, आँखें उबलने लगीं और उन्हीं क्षणों में पीटर ने कोई ऐसी बात कही जिसे वे स्वयं नहीं समझ पाये कि उसने क्या कहा? किन्तु उस बात ने गुप्तदल के आक्रमणकारियों का सारा भ्रम दूर कर दिया। पीटर ने स्पेनिश भाषा में कुछ ऐसे वाक्य कह दिये थे, जो गुप्तदल के लोगों को बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी देने वाले लगे और यह जानकारी दुश्मन का आदमी किसी भी स्थिति में दूसरे को नहीं दे सकता था। हालाँकि पीटर को स्वयं स्पेनिश भाषा का कोई ज्ञान नहीं था, लेकिन इस भाषा में अति महत्वपूर्ण जानकारी सुनने के बाद गुप्तदल वालों को यह विश्वास हो गया कि पीटर अपनी अतीन्द्रिय क्षमता के बारे में जो दावा कर रहे थे, वह बिलकुल सही है।

इस प्रकार अतीन्द्रिय क्षमता के कारण पीटर के लिए दूसरी बार संकट उत्पन्न हुआ। इसके पहले उनके कुछ मित्रों ने उनके द्वारा बहुत ही गोपनीय रहस्य प्रकट कर दिये जाने के कारण उन पर प्राणघातक हमला किया था। यह बात अलग है कि इस बार आसन्न संकट को टालने में अतीन्द्रिय क्षमता ही काम आयी थी, किन्तु संकट भी तो उसी के कारण उत्पन्न हुआ था और इसी के कारण वह अपने कई मित्रों को दुश्मन बना चुके थे। पीटर हरकौस का कहना है कि उन दिनों किसी के बारे में कोई जानकारी देते समय मेरा अपने आप पर बिलकुल भी नियंत्रण नहीं रहता था। मुझे लगता था कि बात अपने आप फिसलती हुई जीभ पर आ रही है और मुँह को खोलती हुई निकली जा रही है।

सन् 1947-48 में जाकर समस्या कुछ सुलझी और पीटर अपने आप पर कुछ नियंत्रण रख पाने में सफल हुए। इस बीच के पाँच-छह वर्ष इतने संत्रास में बीते कि कोई अतीन्द्रिय क्षमता को भले ही सिद्धि या वरदान समझे, किन्तु पीटर के लिए तो वह अभिशाप ही सिद्ध हुई। उसने अपने सैकड़ों मित्र रूठ गये, अनेकों लोग शत्रु बन गये, कइयों ने जान से भी मार देने की कोशिश की और सबसे बड़ी परेशानी तो यह कि किसी के बारे में ऐसी वैसी बात कह देने पर स्वयं भी आत्मग्लानि होती थी। ये वर्ष पीटर ने कितनी तनावपूर्ण मनःस्थिति और परेशानी में बिताये होंगे, इसका अनुमान लगा पाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।

अपने आप पर नियंत्रण पाते ही पीटर ने यह संकल्प कर लिया कि वह केवल उन्हीं अनुभूतियों को व्यक्त करेंगे जिनसे दूसरों का हित होता हो। यह संकल्प करने के बाद उनकी परेशानी कुछ सुलझने लगी। पर यह तथ्य अपने स्थान पर है कि जिन सिद्धियों तथा अतीन्द्रिय क्षमताओं की कामना की जाती है, वे वास्तव में यदि प्राप्त हो जाएँ तो मनुष्य के लिए सुविधा होने के स्थान पर दिक्कतें भी खड़ी हो जाती हैं।

इसीलिए मनीषियों ने इस तरह की सिद्धियों को तो स्पष्ट रूप से आत्मकल्याण के मार्ग में बाधक माना है, क्योंकि सिद्धियाँ यदि प्राप्त भी हो जाएँ तो मनुष्य उनके प्रदर्शन में, उनसे भौतिक लाभ उठाने के जाल-जंजाल में भटक जाता है और आत्मसाधना के पथ से विचलित हो जाता है। दूसरे उनकी लौकिक जीवन में भी क्या उपयोगिता? शरीर को बड़ा या छोटा करने, परकाया प्रवेश करने, दृश्य-अदृश्य होने, किसी के मन की बात जान लेने या इसी तरह की और सिद्धियाँ प्राप्त कर ली जाएँ तो भौतिक जीवन में उनसे लाभ क्या होगा? उलटे अनर्थकारी परिणतियाँ ही सामने आयेंगी। अतः आत्मविकास के इच्छुक साधक को सिद्धियों और अतीन्द्रिय क्षमताओं के प्रति आग्रह नहीं करना चाहिए वरन् सरल राजमार्ग पर चलते हुए आगे बढ़ते रहना चाहिए।


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