पूर्णता-प्राप्ति की आत्मबोध साधना

July 1998

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मानवीसत्ता के दो भाग हैं-एक का नाम जड़ है, तो दूसरा भाग चेतन कहलाता है। दोनों का सम्मिलित स्वरूप ही प्रत्यक्ष दीखने वाला मानव है। शरीर जड़ है और यह पंचतत्वों से बना है। इसके अंदर चेतन आत्मा का निवास है। शरीर की भौतिक प्रगति के क्षेत्र में भौतिक विज्ञान समर्थ है, जिसकी पहुँच जड़ पदार्थों तक ही सीमित है। आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में समर्थ विद्या का नाम अध्यात्म है-अध्यात्म अर्थात् अपने आप का विज्ञान। अध्यात्म, चेतना का विज्ञान है। जड़ शरीर के लिए जड़ जगत से साधन उपक्रम अपनाने पड़ते हैं और उन्हें जुटाने के लिए भौतिक विज्ञान की विद्या अपनानी पड़ती है। ठीक इसी प्रकार आत्मा को चेतना की प्रगति और समृद्धि के लिए चेतना विज्ञान का सहारा लेना पड़ता है। अध्यात्म विज्ञान का प्रयोजन इसी महती आवश्यकता की पूर्ति करता है।

आत्मोत्कर्ष के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जो कुछ उपाय-उपक्रम अपनाना या करना होता है, उसी का नाम उपासना एवं साधना है। इसे दो पहियों पर चलने वाली आत्मिक प्रगति की यात्रा कह सकते हैं। जिस प्रकार इन्द्रियजन्य वासनाओं और तृष्णाओं की पूर्ति भौतिक साधन-सामग्री के आधार पर होती है, उसी प्रकार आन्तरिक समाधान, संतोष, आनन्द की-उल्लास की असीम शान्ति भरी स्थिति अध्यात्म विज्ञान के आधार पर उपार्जित सम्पदाओं से होती है। नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, लघु से महान, आत्मा से परमात्मा बनने का अवसर इसी पथ पर चलने से मिलता है। नर-पशु को देवता बनाने की स्थिति इसी प्रयास द्वारा संभव होती है। अगणित ऋद्धि-सिद्धियों की राह यही है। महामानव, देवदूत एवं ऋषिकल्प स्थिति प्राप्त करने का यही आधार-अवलम्बन है। जीवनलक्ष्य की पूर्ति इन्हीं प्रयत्नों से संभव होती है।

आत्मोत्कर्ष के पथ पर अग्रसर करने वाले अध्यात्म विधि-विज्ञान की दो धाराएँ हैं-आत्मदर्शन और विश्वदर्शन। इन्हें आत्मबोध और तत्त्वबोध भी कहते हैं। ब्रह्मविद्या का समग्र ढाँचा इन्हीं दो धाराओं की सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक विधि-व्यवस्था समझाने के लिए खड़ा हुआ है। आत्मबोध के अंतर्गत आत्मसत्ता के स्वरूप, लक्ष्य, धर्म, चिन्तन एवं कर्तव्य की वस्तुस्थिति समझी-समझाई जाती है और तत्त्वबोध में शरीर एवं मन के साथ आत्मा के पारस्परिक सम्बन्धों एवं कर्तव्यों का निरूपण किया जाता है। शरीर के साथ सम्बन्ध बनाते हुए परिवार तथा समाज के साथ उपयुक्त व्यवहार का पुनर्निर्धारण किया जाता है। अध्यात्म जगत की यह दो धाराएँ-पवित्र गंगा-यमुना कही जाती हैं। इनका संगम तीर्थराज प्रयाग है, जिसमें स्नान करने से परम पुरुषार्थ का पुण्यफल प्राप्त होता है।

महाशक्ति गायत्री की उच्चस्तरीय साधना में साधकों को आत्मबोध और तत्त्वबोध की दोनों साधनाओं का समन्वय करना पड़ता है। इन दोनों साधनाओं का लक्ष्य एक ही है। दोनों एक-दूसरे पर अन्योऽन्याश्रित हैं और एक-दूसरे के पूरक हैं। इसके लिए ध्यानमुद्रा में बैठकर सामने एक बड़े दर्पण में वक्षस्थल से ऊपर का अपना शरीर ध्यानपूर्वक देखना चाहिए और उसका दार्शनिक विवेचन-विश्लेषण गंभीर मनःस्थिति में करना चाहिए। यही आत्मबोध की प्रत्यक्ष विधा है।

वेदान्त के स्वर्णिम सूत्र आत्मसत्ता का निरूपण करते हुए कहते हैं-तत्त्वमसि अयमात्माब्रह्म, प्रज्ञानं ब्रह्म, सोऽहम्, शिवोऽहम्-सच्चिदानंदोऽहम् इन विवेचनाओं में आत्मसत्ता को ब्रह्मसत्ता का एक अविनाशी अंश एवं अभिन्न घटक बताया गया है। वस्तुतः वह वैसा ही है भी। रामायणकार के शब्दों में-ईश्वर जीव अंश अविनाशी’ ही नहीं, ‘ईश्वर जीवहि नहि कछु भेदा’ भी है, परन्तु भ्रान्तियों और मलीनताओं के कीचड़ में फँसाकर उसे उसी तरह दीन-दयनीय बना दिया गया, जिस प्रकार भारी दलदल में गरदन तक फँसा हुआ हाथी अपने उद्धार का कोई मार्ग न पाकर हृदय विदारक करुण क्रन्दन करता है। प्रायः हर व्यक्ति भवबन्धनों से बँधा हुआ, दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों का सताया हुआ रुदन-क्रन्दन करता हुआ संक्षोभों की आग में जलता हुआ जी रहा है।

दर्पण में अपना स्वरूप देखते हुए आत्मबोध के साधक को अपनी इसी दयनीय स्थिति पर करुणा व्यक्त करनी चाहिए। ईश्वर का अविनाशी अंश इस धरती पर ईश्वरीय प्रयोजन पूरे करने के लिए-पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आया था। पर वह सब तो एक प्रकार से सर्वथा विस्मरण ही हो गया। पैर उस जाल-जंजाल में फँस गया, जिसे आटे की गोलियों के लोभ में गला फँसाने वाली मछली, पिंजड़े में फँसे हुए चूहे के समतुल्य दुर्दशाग्रस्त स्थिति कहा जा सकता है।

शास्त्रीय मान्यता के अनुसार, चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के उपरान्त एक बार ही मनुष्य जन्म मिलता है। वह चाहे तो ईश्वरीय निर्देश और अध्यात्म-कर्तव्य का पालन करते हुए पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है और अपूर्णता से पूर्णता का वरण कर सकता है। यदि वैसा न करके मनुष्य पशुता एवं पैशाचिकता की दुष्प्रवृत्तियों में उलझ पड़े तो उसे फिर चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने का दीर्घकालीन दुस्सह दुख सहना ही पड़ेगा। यदि कोई चाहे तो मनुष्य जन्म का सदुपयोग करके भवबन्धनों के कुचक्र से निकल सकता है, अन्यथा फिर अपने सामने कोल्हू में पेले जाने और चक्की में पीसे जाने की स्थिति आँखों के सामने खड़ी है।

दर्पण के सामने बैठकर अपनी छवि शीशे में देखते हुए आत्मविश्लेषण किया जाता है। ईश्वर का अविनाशी राजकुमार-विश्व में सुरम्य परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए नियुक्त किया गया विशेष प्रतिनिधि-पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर सकने के सुअवसर से सम्पन्न सौभाग्यशाली-यह है जो दर्पण में बैठा हुआ है। इसके काय-कलेवर में ईश्वर की समस्त शक्तियाँ और विभूतियाँ भरी पड़ी हैं। इसका एक-एक कण ऐसी विशेषताओं से सँजोया गया है कि वह चाहे तो सहज ही महामानवों की, देवदूतों की पंक्ति में बैठ सकता है।

सूक्ष्मरूप में मानव शरीर में समस्त देवताओं की, ऋषियों की दिव्यसत्ता विद्यमान रहती है, उसे थोड़ा भी पोषण मिले तो यह बीज विशालकाय वट-वृक्ष में परिणत होकर अपने को धन्य और विश्वमानव को सुसम्पन्न बना सकता है। इसमें गाँधी, बुद्ध, ईसा, आद्य शंकराचार्य, रामकृष्ण बनने की परिपूर्ण संभावनाएँ हैं। इतना सब कुछ होते हुए भी अवांछनीय गतिविधियाँ अपना ने के कारण यह दर्पण में बैठा हुआ महामानव किस दयनीय दुर्दशा से ग्रसित हो रहा है, यह कैसे आश्चर्य और दुर्भाग्य की बात है। लोभ और मोह के, वासना और तृष्णा के, स्वार्थ और संकीर्णता के बन्धनों ने इसे किस बुरी तरह जकड़ रखा है। जीभ और जननेन्द्रियों का गुलाम बनकर इसने अपने शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य को किस बुरी तरह चौपट कर डाला। परिवार के उचित उत्तरदायित्वों को निबाहना और परिजनों को सुसंस्कृत बनाना तो कर्तव्य था, पर उनके लिए ही सब कुछ करना, उन्हीं की इच्छानुकूल चलना-यह कहाँ की बुद्धिमानी थी? आत्मकल्याण के-देश धर्म, समाज और संस्कृति के समस्त कर्तव्यों से इसी निमित्त मुख मोड़ लेना, यह कहाँ की समझदारी थी? कुत्साओं और कुंठाओं से ग्रसित जीवनक्रम और स्वरूप बना लेने की उसी की पूरी जिम्मेदारी है, जो इस दर्पण में बैठा है। मकड़ी का जाला उसी ने बुना है और उसमें स्वयं फँसा है। वह चाहे तो जाल को समेट कर पेट में फिर भर सकता है और स्वच्छन्द विचरण, जीवनमुक्ति की स्थिति प्राप्त कर सकने में पूर्ण सफल हो सकता है।

दर्पण में दृष्टिगोचर प्रतिबिम्ब के सहारे आत्मविश्लेषण की अधिक गहराई में प्रवेश किया जा सकता है और पतन-पराभव की स्थिति से ऊँचे उठकर उत्थान के उच्च शिखर पर पहुँच सकने का पथ-निर्धारण किया जा सकता है। भविष्य के लिए ऐसी सुसंतुलित गतिविधियों का निर्धारण किया जा सकता है, जिसमें भौतिक और आत्मिक उत्तरदायित्वों के निर्वाह की सुसंतुलित गुँजाइश बनी रहे।

दर्पण एक माध्यम है आत्मबोध का। आमतौर से हम बाह्य जगत में इतने घुले और व्यस्त रहते हैं कि अपने को एक प्रकार से भूल ही बैठे होते हैं। याद तो शरीर और मन की क्षुधा एवं तृष्णा-वासना ही रहती है। आत्मचेतना भी कुछ होती है, हम भी आत्मा हैं और आत्मा के कुछ अपने स्वार्थ और कर्तव्य भी हैं क्या? यह बात पढ़ी-सुनी तो कई बार होती है, पर उसने तथ्य के रूप में कभी हृदय की गहराई तक प्रवेश नहीं किया होता। यदि आत्मबोध की यथार्थता अन्तःकरण में सजग हुई होती तो निश्चित रूप से भौतिक सुख-सुविधाएँ प्राप्त करने की तरह आत्मोत्कर्ष के लिए भी कुछ करने की प्रेरणा उठी होती और उस दिशा में भी कुछ तो बना ही होता।

अकेला दर्पण आत्मबोध, आत्मदर्शन करा दे, यह किसी भी प्रकार संभव नहीं। यदि ऐसा होता तो प्रायः हर व्यक्ति दिन में कई-कई बार दर्पण में अपना चेहरा देखता और सजता-सँवरता रहता है, पर इसे उससे मिलता क्या है-मात्र आत्मप्रवंचना और छद्म-अहं की तुष्टि। परन्तु जब यही दर्पण आत्मसाधना का माध्यम बन जाता है, तो वह उपासनात्मक प्रतीक का कार्य करने लगता है। पूजा-उपासना के पीछे जो प्रेरणाएँ भरी पड़ी हैं, उनसे प्रभावित होकर उपयुक्त

चिन्तन और कर्तृत्व अपनाते हुए दिव्यजीवन की रीति-नीति अपनायी जा सके तो ही इन उपासनात्मक कर्मकाण्डों का महत्व है। आत्मबोध की विचारधाराओं से अन्तःकरण को भरने में सहायता करना ही दर्पण-उपकरण का उद्देश्य है। उसी प्रकार पूजा का उपयोग यही है कि वह जीवन-निर्माण की प्रेरणाओं को उभारें और उन्हें सक्रिय बनाये।

आत्मबोध की-आत्मविश्लेषण की साधना के द्वारा प्रायः सम्बन्धित सभी समस्याओं पर प्रकाश पड़ जाता है। आत्मबोध, आत्मनिरीक्षण, आत्मसुधार और आत्मविकास की पृष्ठभूमि क्या हो सकती है? आस्थाओं, आकांक्षाओं में क्या हेर-फेर होना चाहिए, गतिविधियों में रीति-नीति में एवं कार्यपद्धति में क्या उलट-पलट की जानी चाहिए, इसकी एक प्रभुप्रेरित रूप-रेखा सामने आती है।

यदि प्रस्तुत दिव्य-संदेशों को अन्तःकरण की गहन भूमिका में प्रतिष्ठापित किया जा सका और उन्हें क्रियारूप में परिणत करने का प्रबल पराक्रम भरा आत्मबल उपलब्ध हो सका तो समझना चाहिए कि दर्पण के माध्यम से की जाने वाली आत्मबोध की साधना गायत्री माता का दिव्य-वरदान बनकर सामने आयी। आत्मबोध से लाभान्वित ऐसी आत्माओं की प्रत्येक विचारणा एवं प्रत्येक क्रियापद्धति में मात्र आदर्शवादिता ही उभरती, छलकती दिखाई पड़ती है। भगवान बुद्ध को जिस दिन आत्मबोध हुआ, उसी दिन से वे दिव्य मानव बन गये। बुद्ध को सामान्य राजकुमार से भगवान बना देने का श्रेय उस आँतरिक जागरण को ही दिया जाता है, जिसे ‘आत्मबोध’ के रूप में पुकारते हैं। यह दिव्य उपलब्धि जिसे भी मिल सकेगी, वह बुद्ध की तरह उसी मार्ग पर चलने वाला और वैसा ही सत्परिणाम प्राप्त करने का अधिकारी माना जाएगा। *


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