विकलांगता प्रगति में बाधक नहीं

July 1998

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मन में उमंग हो और जीवन में कुछ बनने की ललक, तो अपंगता की अड़चन प्रगति में आड़े नहीं आने पाती। इस क्रम में अवरोध तब पैदा होता है, जब निजी अक्षमता को लेकर मनुष्य अपनी सामर्थ्य को कम करके आँकना शुरू करता है, पर सच्चाई यह है कि उसकी असमर्थता शारीरिक कम, मानसिक ज्यादा होती है। भौतिक अंग-अवयवों की कमी किसी की प्रतिभा के प्रकट-प्रत्यक्ष होने में उतनी बाधा पैदा नहीं करती, जितनी कि मन की हताशा। इसे यदि दूर किया जा सके, तो कोई कारण नहीं कि अपाहिज स्तर के व्यक्ति भी अपनी संपूर्ण क्षमता एवं प्रतिभा का परिचय न दे सकें।

आए दिन ऐसे कितने ही उदाहरण देखे सुने जाते हैं, जिनमें अक्षम जन भी सर्वांगपूर्ण व्यक्ति जैसी क्षमता का प्रदर्शन करते हैं। ऐसा ही एक व्यक्ति कार्ल अंथन था। वह वयाना, आस्ट्रेलिया का रहने वाला था। जब पैदा हुआ तो एकदम स्वस्थ था, किंतु उसके बाँहें नहीं थी। जन्म से ही उसके हाथ कंधों से गायब थे। पिता ने बच्चे की स्थिति देखी, तो पहले तो कुछ निराश हुए, पर अगले ही पल उन्होंने मन को मजबूत बनाया और बालक को स्वावलम्बी बनाने का निश्चय किया। इस दिशा में उनने जो पहला कदम उठाया, वह यह कि सहानुभूति दिखाने वालों को आना बंद करा दिया। जो बालक को देखने का बहुत हठ करते, उनसे पहले ही कह दिया जाता कि उसके सामने कोई भी ऐसी बात न कही जाए, जो उसके बाल-मन को ठेस पहुँचाए। उनका विश्वास था कि बालक के समक्ष उसकी दयनीय स्थिति पर चिन्ता प्रकट करना उसके उत्साह और मनोबल को तोड़ेगा। हीन भावना यदि एक बार उसके मन में घर कर गई, तो पूरी जिन्दगी वह उससे उबर नहीं पायेगा और पराश्रित बनकर जीना पड़ेगा।

बचपन से ही माता-पिता उसे बात का प्रशिक्षण देने लगे कि अपना काम वह स्वयं कैसे करे। उनने सामान्य बच्चों की तरह अंथन को जूते-मोजे पहनने की अनुमति नहीं दी और उसे इस बात के लिए प्रेरित किया कि वह अपने पैरों का इस्तेमाल हाथ की तरह करना सीखे। आरंभ से ही उसकी टाँगों की कसरत कराकर उन्हें इतना लचकदार बना दिया गया था कि वह उन्हें मुँह तक आसानी से ले जा सके। अब जरूरत पड़ने पर वह उनका उपयोग खाने के लिए भी कर सकता था। जब कोई खाद्य वस्तु उसके सामने आती, तो वह उसे टाँग के अँगूठे और बगल वाली अँगुली के सहारे पकड़कर मुँह में डाल लेता। जीवन के एक महत्वपूर्ण मोर्चे पर उसकी यह पहली विजय थी। इसके बाद तो लगन और मेहनत के बल पर कई ऐसे कार्य करना सीख लिया, जिसे हाथ के अभाव में संपन्न कर सकना अत्यन्त दुष्कर समझा जाता था।

जब वह तीन वर्ष का हुआ, तो उस उम्र के अधिकाँश बच्चे चलने-फिरने लगे थे। अंथन उन्हें देखकर बहुत मचलता और उनके जैसा ही खड़ा होने और चलने का प्रयास करता। बार-बार के प्रयत्न के बाद एक दिन वह खड़ा होने तथा एक-दो कदम बढ़ाने में सफल हुआ। इसके बाद धीरे-धीरे वह चलना और दौड़ना सीख गया।

पढ़ने में उसकी रुचि थी। दूसरे बच्चों के साथ वह भी स्कूल जाने लगा। वहाँ साथियों को स्लेट पर लिखता देख वह उनकी नकल करने की कोशिश करता। बाद में उसके पिता कार्ल फ्रांथन ने उसके लिए एक स्लेट ला दी। वह पाँव की अँगुलियों में चॉक फँसाकर उसमें लिखने का प्रयास करता। उसके पिता इसमें उसका सहयोग करते। इस प्रकार उसका अक्षरज्ञान घर पर आरंभ हुआ। बाद में उसे स्कूल में भर्ती करा दिया गया। बड़ा होने पर उसने अपने पैर की अँगुलियों से लिखने का ऐसा अभ्यास कर लिया कि उसकी सुंदर लिखावट को देखकर यह अंदाज लगा सकना मुश्किल था कि इसे हाथ नहीं, पैर द्वारा लिखा गया है।

कठिन मेहनत द्वारा अपनी अपंगता को उसने किसी भी क्षेत्र में आड़े नहीं आने दिया। तैरना भी अपने बूते सीखा। बाजूरहित व्यक्ति के लिए यह अत्यंत कठिन कार्य था। किन्तु यहाँ भी मनोबल, लगन और अभ्यास को सफलता मिली। अंथन के घर के निकट एक तालाब था। गर्मियों में लड़के अक्सर उसमें नहाया करते। उन्हें नहाता देख वह भी उसमें अभ्यास करने लगा। पहले छिछले पानी में इसकी शुरुआत की। जब कठिन अभ्यास के बाद यह भरोसा हो गया कि वह किसी भी प्रकार डूबेगा नहीं, तो थोड़े गहरे जल में तैरना प्रारंभ किया। इस प्रकार धीरे-धीरे उसने इसमें भी निपुणता प्राप्त कर ली।

भुजाओं के बिना वाद्ययंत्र बजा पाना लगभग असंभव है, लेकिन अंथन का उदाहरण इस बात को सिद्ध करता है कि लगन यदि सच्ची हो और संकल्प प्रबल, तो असंभव को संभव कर दिखाना कुछ भी कठिन नहीं कार्ल अंथन का संगीत से गहरा लगाव था। वह स्वयं इसमें पारंगत बनना चाहता था। उसे वायलिन बहुत प्रिय था, अतः उसने संगीत-शिक्षा इसी से प्रारंभ की। वह घंटों वायलिन को स्टूल पर रखकर पैर की अँगुलियों द्वारा उसके तारों को छेड़ा करता। धीरे-धीरे वह इसमें प्रवीण बन गया और तरह-तरह की सुरीली धुनें निकालने लगा। 16 वर्ष की अल्पायु में उसकी ख्याति कुशल वादक के रूप में फैल गयी। उसकी इस उपलब्धि से लोग आश्चर्यचकित थे।

देश-विदेश में अंथन ने संगीत के अनेक कार्यक्रम प्रस्तुत किये। सभी ने उसकी प्रबल इच्छाशक्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा की। प्रसिद्ध जर्मन उपन्यासकार जैराट हाॅपर्ट ने उस पर एक उपन्यास लिखा। इसके अतिरिक्त ‘दि आर्मलेस मैन’ नामक वहाँ उस पर एक फिल्म भी बनी, जिसमें उसकी खूबियों को भली प्रकार प्रदर्शित किया गया था। वह एक जुझारू इनसान था।

दुनिया में कितने ही ऐसे व्यक्ति हुए हैं, जिन्हें अपंग तो नहीं कहा जा सकता, पर उनको सामान्य कहना भी अनुचित होगा। ऐसे लोग सर्व-साधारण की तरह जीते रहे, यह बात और है, लेकिन शरीर से वे अद्भुत और असाधारण थे।

फ्रैंक लैंटिनी ऐसा ही एक व्यक्ति था। वह सिसली के रोजोलिनी कस्बे में पैदा हुआ। यों तो वह एक साधारण इनसान की ही तरह था, पर पीठ से जुड़ी अतिरिक्त टाँग उसे असाधारण के दर्जे में पहुँचा देती थी। उसके जन्म के पश्चात् उसके पिता अमेरिका आ गए। तब वह किशोरवय था। इस उम्र में उसने ‘बर्नम एण्ड बेली’ तथा ‘रिंगलिंग ब्रदर्स’ जैसी कई प्रसिद्ध सर्कस कंपनियों में काम किया। वहाँ वह इस तीसरे पैर का इस्तेमाल कई प्रकार के करतब दिखाने में करता था। वह तीन टाँगों का स्टूल बनाकर आसानी से बैठ सकता था। तीसरे पैर से फुटबाल में किक लगा सकता था। उसे साइकिल चलाने में भी कोई परेशानी नहीं होती। साधारण मनुष्य की तरह वह चल-दौड़ भी सकता था, किन्तु इसमें उसे पीछे के अतिरिक्त पैर की सहायता नहीं मिलती, कारण कि वह कुछ छोटा था।

यों तो उसकी टाँग पैसा कमाने का अच्छा स्रोत साबित हुई, पर इस प्रकार के प्रदर्शन को फ्रैंक पसंद नहीं करता था। वह किसी और स्रोत के माध्यम से साधारण आदमी की तरह धन कमाना चाहता था। उसकी तीसरी टाँग इसमें बाधक थी, इसीलिए उसने उसे कटवाने का निश्चय किया। इस सिलसिले में जब वह अपने पिता के साथ डॉक्टरों से मिला, तो उन्होंने जान जोखिम की बात कहते हुए ऐसा करने से इंकार कर दिया। फ्रैंक बहुत निराश हुआ। इसी बीच एक दिन उसे अपाहिजों के एक अस्पताल में जाने का मौका मिला। वहाँ उसने जो कुछ देखा, उससे उसका दृष्टिकोण ही बदल गया। वहाँ उसने देखा कि अंधे, लूले लँगड़े सब मस्तीपूर्वक अपने काम में व्यस्त हैं। किसी को भी अपनी अपंगता की शिकायत नहीं। सभी के चेहरों पर प्रसन्नता थी। इस दृश्य से फ्रैंक को एक नई दृष्टि मिली। उसने अब भाग्य का रोना बंद कर दिया। बाद में उसने विवाह किया और उसके दो बच्चे भी हुए।

लेजारस जोनस बैपटिस्टा काॅलोरेडो-यह दो शरीरों वाले एक स्विस व्यक्ति का नाम था, जिसका जन्म जिनेवा में हुआ था। समस्त यूरोप में उसका प्रदर्शन किया गया। इस क्रम में अनेक चिकित्सकों ने उसका परीक्षण किया। इस विचित्र इनसान के दो सिर थे। एक अविकसित देह पूर्ण विकसित शरीर के साथ जुड़ी हुई थी, इसलिए माता-पिता ने दोनों के पृथक्-पृथक् नाम रखे। पूर्ण विकसित शरीरधारी बेटे का नाम लेजारस रखा गया, जबकि साथ जुड़े अपूर्ण अंगों वाले पुत्र को जोनस बैपटिस्टा के नाम से पुकारा जाता। बैपटिस्टा के केवल एक टाँग थी। भुजाएँ दो थीं, पर उनमें मात्र तीन-तीन अँगुलियों थीं। जब कोई उसकी छाती को धीरे-धीरे थपथपाता, तो प्रत्युत्तर में वह अपने हाथ और होंठों को हिला देता। वह बोल नहीं पाता था, किंतु सब कुछ सुन और समझ सकता था। उसे भोजन की आवश्यकता नहीं पड़ती। लेजारस द्वारा लिये गये आहार से ही उसका काम चल जाता। बैपटिस्टा का सिर तो पूर्ण विकसित था, किंतु आँखें बंद थीं। उसका सिर बालयुक्त था और ठुड्डी में दाढ़ी भी थी, जननेन्द्रिय अल्प विकसित थीं।

जबकि लेजारस हर प्रकार से स्वस्थ-सामान्य था। उसकी विनोदप्रियता के कारण हर समय उसके निकट भीड़ जमा रहती, सामान्य इनसान की तरह उसने जिंदगी गुजारी।

कलकत्ते में सन् 1783 में एक दो सिर वाले बच्चे का जन्म हुआ। उसके दोनों सिर अगल-बगल न होकर एक-दूसरे के ऊपर थे। उस समय के प्रसिद्ध अंग्रेज शरीरविज्ञानी जॉनहण्टर ने उसका विस्तृत अध्ययन किया था और उसे एकदम सामान्य बताया था। उसके दोनों सिरों में आँखें थीं, पर आँसू केवल ऊपर वाले सिर की आँखों से बहते थे। दो वर्ष की उम्र में साँप काट लेने से उसकी मृत्यु हो गई। आज भी उसकी दोनों खोपड़ियाँ लंदन के ‘रॉयल कॉलेज ऑफ सर्जरी’ में सुरक्षित हैं।

अपंगता का अभिशाप कष्टदायक है-यह सच है, पर हमारी निजी सोच उसे और कष्टदायक बना देती है-यह भी गलत नहीं है। अपाहिज व्यक्ति यह मान बैठता है कि वह किसी काम का नहीं, उसका जीवन निरर्थक है। इसमें उसकी शारीरिक अक्षमता की तुलना में मानसिक हताशा ही अधिक झलकती है। मन यदि कमजोर हुआ, तो शरीरबल से समर्थ व्यक्ति भी किसी कार्य को कर पाने में असफल साबित होता है। इसके विपरीत देह दुबली हो, त्रुटिपूर्ण अथवा अपूर्ण हो, लेकिन मनोबल और उत्साह अपने चरम पर हो, तो कायिक कमी भी कार्य की सफलता में बाधा उत्पन्न नहीं कर पाती और कठिन-से-कठिन काम सरल प्रतीत होने लगते हैं, इसलिए शारीरिक पूर्णता की तुलना में हमें मानसिक समर्थता पर अधिक भरोसा करना चाहिए।


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