24-26 जुलाई, 1998 को न्यूजर्सी यू. एस. ए. में हो रहे आयोजन के संदर्भ में- - आज की ज्वलन्त समस्याओं को सुलझायेगा वाजपेय यज्

July 1998

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वर्तमान के प्रश्न कितने ही ज्वलन्त क्यों न हों? परन्तु इतिहास के पृष्ठ उलटने पर उनके समाधान-सूत्र मिल ही जाते हैं। आज मानवीय जीवन की व्यथा, पीड़ा, पारिवारिक विग्रह, वैमनस्य, जातिभेद, वर्गसंघर्ष, पर्यावरण-संकट युद्धोन्माद जैसे यक्ष प्रश्नों का हल ऋषिवाणी समवेत स्वरों में देती है-वाजपेय यज्ञ।’ यों तो यज्ञ की सामान्य परिभाषा में निहित दान, देवपूजन, संगतिकरण ही प्रायः सभी समस्याओं के निराकरण में समर्थ है। दान की प्रवृत्ति विग्रह, वैमनस्य को स्वतः समाप्त कर देती है। दैवीशक्तियों की आराधना, देवशक्तियों का पूजन व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन में सत्प्रवृत्तियों की ऐसी बाढ़ ला देता है कि भेदभाव एवं संघर्ष का नामोनिशान नहीं रहता। संगतिकरण की व्यापकता में प्राकृतिक तत्वों में ऐसा अनोखा ताल-मेल है कि प्रकृति स्वयं ही पर्यावरण-संकट का हल खोज लेती है। इन सबकी सम्मिलित देन वातावरण का परिशोधन है, जो युद्धोन्माद का कारगर समाधान है।

इतने पर भी यज्ञ की सामान्य प्रक्रिया उसी समय कारगर एवं समर्थ है, जब इन सभी संकटों का स्वरूप अत्यधिक जटिल, तीव्र एवं चरम न हो। यदि परिस्थितियाँ इतनी विकट बन चुकी हों कि सर्वस्व नष्ट होने के कगार पर पहुँच गया हो तो वाजपेय यज्ञ जैसे महानुष्ठान ही प्रयोग में लाने पड़ते हैं। यज्ञ सफलतम एवं अचूक महास्त्र है, जो उल्टे को उलटकर सीधा करने में पूर्ण समर्थ है। मानवीय अनुभवों का इतिहास बताता है कि जब कभी समूचे समाज, विश्व और वातावरण के आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव हुई है, तब सार्वभौम स्तर पर वाजपेय यज्ञों का प्रयोग किया जाता रहा है। इसकी महत्ता विराट एवं विस्तृत है। आज की समस्याओं का यही एकमात्र समाधान है। इसमें विचारक्रान्ति के सारे सूत्र समाहित हैं।

परिस्थितियों की विकरालता किसी से छिपी नहीं है। संकट किसी एक क्षेत्र, वर्ग, जाति अथवा देश तक सीमित नहीं है। समूची दुनिया इसकी लपेट व चपेट में आ चुकी है। समाज विघटित एवं विखण्डित होता जा रहा है। हर कहीं सामंजस्य व सौमनस्यता का अभाव स्पष्ट है। असंयम एवं उच्छृंखलता के कारण असाध्य रोगों ने सुरसा जैसा मुँह खोल दिया है। परिवार भी टूटन-दरकन से त्रस्त है। रिश्तों को मधुरता, स्वार्थभरी कुटिलता में बदल चुकी है। विश्व में परमाणु, जैविक, रासायनिक युद्ध का खतरा मँडरा रहा है। आतंकवाद, युद्ध, प्राकृतिक आपदाओं एवं विपदाओं से लगता है कि अब हमारा सर्वनाश होने ही वाला है। ऐसी विपन्न परिस्थिति में समाधान तभी सम्भव है, जब अन्तरिक्षीय प्रवाह में व्यापक उलट-फेर हो। सूक्ष्मप्रवाह का अवतरण स्थूलजगत की परिस्थितियों में चमत्कारी परिवर्तन प्रस्तुत कर दे।

वाजपेय यज्ञ के समस्त क्रिया–कलापों का गम्भीर पर्यवेक्षण करने पर इसे सूक्ष्मजगत के परिशोधन और जनमानस के परिष्कार का बहुमूल्य प्रयोग माना जा सकता है। यज्ञ के भौतिक विज्ञान की ही तरह इसका सूक्ष्मविज्ञान भी है। उसके तत्त्वज्ञान और विधि-विधान में ऐसे तत्व विद्यमान हैं, जो सूक्ष्मजगत के अदृश्य वातावरण में देवत्व की मात्रा बढ़ाते हैं। उससे सर्वजनीन सुख-शान्ति में अदृश्य सहायता मिलती है। इनसे वायुशोधन की उपयोगिता अपने स्थान पर है, पर वास्तविकता दूसरी ही है। वायुशोधन की अपेक्षा वातावरण का निर्माण इसका प्रमुख प्रयोजन है। पवित्र वेदमंत्रों का सस्वर उच्चारण विश्वचेतना में पवित्रता के तत्व भरने वाले दिव्यकम्पन उत्पन्न करता है। सामान्य आग को यज्ञाग्नि-देवाग्नि बनाने का कार्य अध्वर्यु-उद्गाता जैसे विशिष्ट याजकों की श्रद्धा और संकल्प शक्ति करती है। पवित्र हवन द्रव्यों के जलने से उत्पन्न हुई ऊर्जा से सूक्ष्मजगत में उपयोगी परिवर्तन होते हैं। वाजपेय प्रयोग में ऐसे-ऐसे अनेक आधारों का समन्वय है, जिनका सम्मिलित प्रभाव वातावरण में ऐसे उपयोगी तत्वों का समावेश करता है, जो अविज्ञात रूप से विश्वकल्याण की भूमिका सम्पन्न कर सके।

आज तो वायुप्रदूषण की ही विभीषिका पर चर्चा होती है। अणु-विकिरण में विषाक्तता कोलाहल की प्रतिक्रिया पर ही चिन्ता व्यक्त की जाती है। तत्त्वदर्शी मनीषियों को सूक्ष्म वातावरण की चिन्ता इससे भी अधिक रहती है। वे जानते हैं कि वातावरण का प्रवाह मानवी तूफानों से भी अधिक सशक्त होता है। वातावरण के साँचे में व्यक्तियों का समूह खिलौनों की तरह ढलता चला जाता है। अनेक देशों की, क्षेत्रों की परिस्थितियाँ प्रथाएँ और मान्यताएँ, रुचियाँ और संस्कृतियाँ भिन्न-भिन्न हैं। उनमें जो बालक उत्पन्न होते हैं, वे वातावरण के प्रभाव से उसी प्रकार की मनोवृत्ति, प्रकृति अपनाते चले जाते हैं। उनके चिंतन, स्वभाव और क्रिया−कलाप लगभग वैसे ही होते हैं, जैसे कि उस प्रदेश में रहने वाले लोगों के। समय का प्रवाह, युग का प्रभाव इसी को कहते हैं। सर्दी, गर्मी का मौसम बदलने पर प्राणियों के, वनस्पतियों के तथा पदार्थ के रंग-ढंग ही बदल जाते हैं। गतिविधियों में ऋतु के अनुकूल बहुत कुछ परिवर्तन होते हैं।

विज्ञानवेत्ता जानते हैं कि पृथ्वी पर जो कुछ विद्यमान है और उत्पन्न-उपलब्ध होता है, वह सब अनायास नहीं है और न उन सबको मानवी उपार्जन कह सकते हैं। यहाँ ऐसा बहुत कुछ होता है, जिनमें मनुष्य का नहीं सूक्ष्म शक्तियों का हाथ होता है। सूर्य पर दिखने वाले धब्बे उसकी स्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। उस परिवर्तन का पृथ्वी पर भारी असर होता है। उनसे पदार्थों की स्थिति और प्राणियों की परिस्थिति में आश्चर्यजनक हेर-फेर होते हैं। विकिरण, चुम्बकीय तूफान, अंधड़, चक्रवात किस प्रकार सामान्य परिस्थितियों को असामान्य बनाते हैं, सभी जानते हैं। अन्तरिक्षीय अदृश्य वर्षा से कई बार धरती पर हिमयुग आए हैं। जलप्लावन, समुद्री-परिवर्तन और खण्ड-प्रलय के दृश्य उपस्थित हुए हैं। भविष्य में भी जो पृथ्वी के पदार्थों अथवा प्राणियों, मनुष्यों की स्थिति में असाधारण परिवर्तन होने वाले हैं, उसका निमित्त कारण सामान्य घटनाक्रमों में नहीं वरन् अन्तरिक्षीय अदृश्य हलचलों में ही पाया जा सकता है।

यों व्यक्ति अपने निजी जीवन में सर्वथा स्वतंत्र और सशक्त है। इतना होते हुए भी विशाल ब्रह्माण्ड में गतिशील हलचलों और परिस्थितियों में उसका स्थान नगण्य है। सिर पर खड़े पानी से लदे बादल को वह बरसा नहीं सकता। मौत, बुढ़ापे तक को रोकने में वह असमर्थ है। परिस्थितियों पर उसका अधिकार नगण्य है। प्रवाहों में वह अपना यत्किंचित् बचाव ही कर पाता है। सर्दी उसके बूते रुकती नहीं, कपड़े लादकर आग तापकर आत्मरक्षा भर में आँशिक सफलता पा लेता है।

यहाँ एक सवाल यह उत्पन्न होता है कि क्या मनुष्य वातावरण के सामने सर्वथा असहाय, असमर्थ है। इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि सूक्ष्म प्रवाहों को प्रभावित करने, बदलने और अनुकूल न करने की समर्थता मानवी-चेतना में विद्यमान है। मानवीचेतना, ब्रह्माण्ड-व्यापी चेतना का एक भाग है। अंश में अंशी की सारी विशेषताएँ मूल रूप में विद्यमान रहती हैं और प्रयत्नपूर्वक वे मूलसत्ता के समान स्तर तक विकसित हो सकती हैं। बीज तुच्छ है, किन्तु वह जिस पेड़ का अंश है, उसी स्तर तक विकसित होने की संभावनाएँ उसमें पूरी तरह विद्यमान हैं। बीज को अवसर मिले तो वह अपनी मूलसत्ता वृक्ष के समान फिर विकसित हो सकता है। जीवात्मा की प्रखरता बढ़ती रहे, तो उसकी विकास प्रक्रिया उसे महात्मा, देवात्मा एवं परमात्मा बनने की स्थिति तक पहुँचा सकती है। विकसित जीवात्मा ब्रह्मजगत से अपने को सम्बद्ध ही नहीं करती वरन् उसके साथ एकाकार होकर इतनी सूक्ष्म भी बन जाती है कि प्रकृति-प्रवाह में आवश्यक हेर-फेर कर सके। वातावरण की प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदल सके।

चेतना के संघात से वातावरण में वाँछित परिवर्तन किए जाने सम्भव हैं। अदृश्यजगत में कई बार ऐसी प्रेरणाएँ उभरती हैं, जिनके आँधी-तूफानों में मनुष्यों के मस्तिष्क पत्तों और तिनकों की तरह उड़ने लगते हैं। आज की परिस्थितियाँ यदि वातावरण में फैली विषाक्तता की देन हैं, तो यदि उसका परिशोधन कर दिया जाए, तो सत्प्रवृत्तियों एवं सुसंस्कारों का तूफान उमड़ते देर नहीं। वाजपेय यज्ञ का एक पक्ष व्यक्तित्व-परिष्कार समाजनिष्ठा के प्रशिक्षण का है। चरित्रनिष्ठा और समाजनिष्ठा की गरिमा और उपयोगिता को इस महायज्ञ के साथ जुड़े हुए विशिष्ट कर्मकाण्डों की व्याख्या और विवेचना में ढूँढ़ा-खोजा सीखा समझाया जा सकता है। इस कसौटी पर कसने पर इसे ऐसा श्रद्धासिक्त उपचार कह सकते हैं, जिसके माध्यम से उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व का धर्म शिक्षण सर्वसुलभ बनता है। वाजपेय यज्ञ के इस ज्ञान पक्ष की उपयोगिता का जितना माहात्म्य कहा जाए उतना ही कम है।

लेकिन इस पक्ष से कहीं अधिक महत्वपूर्ण और समर्थ इसका दूसरा पक्ष है, जिसके द्वारा सूक्ष्म वातावरण में आवश्यक गर्मी और तेजी पैदा की जाती है। साथ ही दृश्यजगत में वह आधार-भूमि तैयार होती है, जिस पर अदृश्य शक्तियाँ क्रियाशील हो सकें। सूक्ष्मप्रवाह के सहयोगी बनने से अभीष्ट प्रयोजन में सफलता प्राप्त करने की सम्भावना सुनिश्चित हो जाती है। हवा का रुख पीठ पीछे से हो तो जलयानों से लेकर पैदल चलने वालों तक को बहुत सुविधा हो जाती है और मार्ग जल्दी-जल्दी सरलता से पूरा हो जाता है। वर्तमान की सर्वनाशी समस्याओं से निपटने के लिए हमें वातावरण के अनुकूलन के लिए कुछ ऐसे ही प्रचण्ड प्रयास करने होंगे। वाजपेय यज्ञ का आयोजन इसी प्रयोजन के लिए किया जा रहा दिव्य प्रयोग है।

इसके विशिष्ट आध्यात्मिक उपचारों से प्रचण्ड ऊर्जा उत्पन्न करके वातावरण में प्रचण्ड ऊर्जा उत्पन्न करके वातावरण में व्यापक फेर-बदल की जानी है। प्रखर प्रतिभाएँ अपनी प्राणशक्ति से युग को बदलती हैं। अवतारी महामानव समय के प्रवाह को उलटते हैं। ठीक इसी प्रकार वाजपेय प्रयोग से पैदा हुई चेतनात्मक प्रचण्ड ऊर्जा सूक्ष्मजगत को परिष्कृत करके उसे इस योग्य बना देगी कि सुख-शान्ति की परिस्थितियाँ उत्पन्न होने लगें और उज्ज्वल भविष्य की संभावनाएँ दैवी-अनुग्रह की तरह उमड़ती-उभरती चली आएँ?

इस महायज्ञ के दृश्य एवं अदृश्य प्रभावों का आकलन करके प्राचीन शास्त्रकारों ने निष्कर्ष निकाला कि वाजपेय यज्ञ जिस किसी स्थान पर होता है, वह स्थान तीर्थ बन जाता है। एक स्थान पर कहा गया है।

असीम कृष्णे विक्रान्ते राजन्येऽनुयमत्विषी। प्रशासतीया धर्मेण भूमिं भूमिसत्तमे॥ ऋषयः संशितात्मानः सत्यव्रत परायणाः॥

ऋजवो नष्ट रजसः शान्ता दाता जितेन्द्रियाः। धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे दीर्घसत्रंतु वाजपेयेन। नद्यास्तीरे द्वषद्वत्या पुण्याद्या शुचि रोधासः।

अर्थात्-जिस समय अनुपम क्रान्तिवान, विक्रमशाली नरपति श्रेष्ठ राजा असीम कृष्ण धर्मपूर्वक इस पृथ्वी पर शासन करते थे। उस समय पवित्र पुण्यदाता दृषद्वती नदी के तीर पर धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में सरल, शान्त, दान्त, जितेन्द्रिय, रजोगुणविहीन, सत्यपरायण ऋषियों ने दीर्घसत्र वाले वाजपेय यज्ञ को सम्पन्न किया था।

इसी प्रकार अयोध्या के सम्बन्ध में उल्लेख है कि अयोध्यापुरी में सूर्यवंशी राजा वैवस्वत मनु चक्रवर्ती नरेश के पद पर प्रतिष्ठित थे। वे सदा वाजपेय यज्ञ के अनुष्ठान में संलग्न रहते थे। इससे उनके शासनकाल में अयोध्यापुरी के भीतर अकाल मृत्यु, रोग आदि कष्ट किसी को नहीं होते थे। सूर्यवंश में ही राजर्षि सांकलायन हुए, जिनके राज्य में समूची पृथ्वी शस्य-श्यामला एवं धन-धान्य से सम्पन्न थी। यह सब उनके द्वारा किये जाने वाले वाजपेय यज्ञों का ही प्रभाव था।

यही कारण है कि वाजपेय यज्ञ की महानता एवं फलश्रुतियों के बारे में पुराणों-शास्त्रों एवं अन्यान्य ग्रन्थों के पन्ने भरे पड़े हैं-

वाजपेयाप्यायिता देवाँ वृष्टयुत्यर्गैण मानवः। आप्यायन वैकुर्वन्ति यज्ञाः कल्याण हेतवः॥

अर्थात्-वाजपेय में प्रसन्न हुए देवता मनुष्यों पर कल्याण की वर्षा करते हैं।

सर्वा वै देवताः वाजपेये अन्वायन तस्मात्। वाजपेय याजी सर्वदिशो अभिजयति॥

अर्थात्-समस्त देवगण वाजपेय यज्ञ में सम्मिलित होते हैं। वाजपेय का संयोजक सर्वजयी होता है।

योऽवाजपेयेन यजते सर्वएव भवति सर्वस्व। वाऽएवा प्रायश्चिन्तः सर्वस्य भेषजम्॥

जो वाजपेय का यजन करता है वह पूर्णांग (इन्द्रियों सहित स्वस्थ) हो जाता है। यह यज्ञ सबका प्रायश्चित, भूलों को विरत करने वाला एवं भूलों के कारण जो रोग हो गए हैं, उन्हें ठीक करने वाला है।

सर्व पाप्मानं तरति यो वाजपेयेनयजते

वाजपेय यजन करने वाला सभी प्रकार के पापों से पार हो जाता है। पापों को दुर्धर्ष कहा गया है। किन्तु इस यज्ञानुष्ठान के प्रभाव से साधक पापों से अप्रभावित होकर लक्ष्य की ओर बढ़ने की क्षमता प्राप्त करता है।

इन्हीं गुणों के कारण शास्त्रकारों ने वाजपेय यज्ञ को परम पुरुषार्थ कहा है। सामान्य पुरुषार्थ का दायरा भौतिक स्तर तक सीमित है। इसे नियंत्रित करने वाली दैवीशक्तियाँ, प्रारब्ध विधान यदि अनुकूल न हो तो सारे प्रयास मिट्टी में मिल जाते हैं। परिणाम में निराशा, असफलता व उद्विग्नता ही पल्ले पड़ती है। यही कारण है सूक्ष्मदर्शी ऋषियों ने पुरुषार्थ जैसी अमोघ प्रक्रिया को आधिभौतिक पिंजड़े में नहीं बाँधा। उन्होंने दैवी शक्तियों को अनुकूल बनाने में समर्थ तपसाधनाओं, नया भाग्य विधान गढ़ने में सक्षम वाजपेय यज्ञ जैसी आध्यात्मिक प्रक्रियाओं की रचना की और उन्हें उच्चतर पुरुषार्थ-परम पुरुषार्थ कहा।

वाजपेय की प्रक्रिया कुछ ऐसी ही अलौकिक और अनुपम है। इसमें अगणित प्रकार के आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक पुण्यफल भरे हैं, जिनकी प्रभाव-सामर्थ्य जहाँ सामूहिक स्तर पर अशुभ प्रभावों का निवारण करती है, वहीं भागीदारी लेने वाले याजकों के व्यक्तिगत जीवन में ढेर के ढेर अनुदान वरदान उड़ेलने वाली सिद्ध होती है। अत्रि स्मृति में इसी कारण वाजपेय यज्ञ को सर्वकामधुक अर्थात् सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला कहा गया है। शास्त्रकार का कथन है-वाजपेयेन हविषा तृप्ति मायान्ति देवताः तस्तृप्ता र्स्पशयत्येन नरस्तृप्तः समृद्धिभिः।

अर्थात्-वाजपेय में हवि का हवन करने से देवताओं की तृप्ति होती है। तृप्त होकर देवता मनुष्य को इच्छित समृद्धि प्रदान कर सन्तुष्ट करते हैं। विष्णु धर्मोत्तर पुराण के अनुसार वाजपेय यज्ञ में अग्नि को संस्कारित कर उसमें श्रद्धा, भावना के साथ जो भी आहुति दी जाती है, उसे देवता ग्रहण करते हैं। देवताओं का मुख अग्नि है, इसलिए देवता यज्ञ से प्रसन्न होकर यज्ञकर्ता की कामनाओं की पूर्ति करते हैं।

शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है, वाजपेय नेष्ट्वा सम्राट् भवति। (5.1.1.14) अर्थात् इसे करने वाला सम्राट जैसी विभूतियाँ एवं वैभव अर्जित करता है। आपस्तम्ब स्मृति के अनुसार जिस स्थान पर वाजपेय यज्ञ सम्पन्न होता है, वहाँ समस्त देवता एवं सारे तीर्थों की चेतना पुंजीभूत होती है। इसलिए वहाँ जाने मात्र से गंगा, यमुना, कावेरी, कृष्णा, गोदावरी आदि नदियों के समान का पुण्य और गया, काशी, द्वारका आदि तीर्थों में जाने का प्रतिफल प्राप्त होता है।

आश्वलायन के अनुसार सभी पदार्थों के इच्छुकों, सभी विषयों के अभिलाषियों तथा अतुल समृद्धि के आकांक्षियों को वाजपेय का यजन करना चाहिए। ऋषि गोमिल ने इसे ऐश्वर्यप्रदाता कहा है। नारदीय पुराण के अनुसार वाजपेय यज्ञ में हवन की जाने वाली दिव्य औषधियों, दिव्य मंत्रों के सम्मिलित प्रभाव से याजकों में मेधा-प्रतिभा का जागरण होता है। रोगों का नाश होकर आयु बढ़ती है।

अपरिमित महिमा एवं असीम महत्ता वाला यह महायज्ञ वर्तमान समय में विश्व-गतिविधियों का केन्द्र बने अमेरिका के न्यूजर्सी नगर में किया जा रहा है। वहाँ के प्रवासी परिजन केन्द्रीय तंत्र के तत्वाधान में 24,25 एवं 26 जुलाई को समारोहपूर्वक वाजपेय यज्ञ का दिव्य प्रयोग सम्पन्न करेंगे। इस विराट प्रयोग से मिलने वाले पुण्यफलों के बारे में दो ही शब्द कहना पर्याप्त होगा। शास्त्रकार तत्त्वदर्शी ऋषि इसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते। जिस क्षेत्र में वाजपेय यज्ञ सम्पन्न हो रहा है, वहाँ के निवासियों को यही समझना चाहिए कि उनके जन्म-जन्मान्तर के पुण्य, देवताओं का अनुग्रह इस रूप में प्राप्त हो रहा है। इस यज्ञ में भाग लेना, यज्ञ स्थान की परिक्रमा करना, किसी भी तरह यज्ञायोजन में अपने श्रम एवं समय को नियोजित करना इन महापुण्य-फलों का प्रदाता सिद्ध होगा-ऐसा दृढ़ विश्वास रखना चाहिए। इसी विश्वास एवं लोककल्याण की भावना के साथ अमेरिकावासी परिजनों के अतिरिक्त अन्य देशों के परिजन भी वहाँ पहुँच रहे हैं। यह महानुष्ठान इक्कीसवीं सदी में होने वाली विविध गतिविधियों का शुभारम्भ है। शीघ्र ही इसके प्रत्यक्ष प्रभाव अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर देखे जा सकेंगे, जो वर्तमान की ज्वलन्त समस्याओं का समाधान का साकार रूप होंगे।


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