नारी-शक्ति ने की मन्दिर की रक्षा

July 1998

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वह ‘नारी’ थी। जब-जब वह अपने पिता की क्रूरता की कहानियों को सुनती उसका हृदय वेदना से भर उठता। वह अपने पिता के हठ एवं धर्मान्धता से परिचित थी। उसे उनका स्वभाव मालूम था। वे अपने जुनून में कितना ही बड़ा नरसंहार कर सकते थे। चाहते हुए भी वह उनको रोक नहीं पाती थी। उन जैसे हठी को रोके भी तो कौन?

आज जब उसने सुना कि बादशाह आलमगीर के सेनापति रणदूलहखाँ अपनी विशाल फौज के साथ ओरछा जाने वाले हैं। तो वह सिहर उठी। उसके आँखों के सामने अगणित ध्वस्त देवमन्दिर, भग्न देवमूर्तियाँ प्रत्यक्ष हो उठीं। उसका नारी हृदय भीतर ही भीतर तड़प उठा। नहीं, अबकी बार वह ऐसा नहीं होने देगी। ‘मजहब संवेदना है, बर्बरता नहीं।’ न जाने क्यों उसके अब्बाहुजूर ये सच्चाई समझ नहीं पाते हैं। अबकी बार वह चुप नहीं बैठेगी। अपने इस दृढ़ निश्चय के साथ ही वह ओरछा की ओर रवाना हो गयी।

ओरछा पहुँचकर उसने देखा, नगर में रणदूलहखाँ के आने की खबर से बेचैनी थी। उसके आने के पहले से ही शायद उसका फरमान आ चुका था कि आज तीसरे पहर चतुर्भुज जी का मन्दिर तोड़कर उसके स्थान पर मस्जिद बना दी जाए। इस खबर से लोग दुःख और क्रोध से भरे हुए थे, परन्तु शाही सेना का प्रतिवाद करने की शक्ति उनमें न थी। जब यह खबर लोगों ने सुनी तो उन पर वज्रपात हुआ। मन्दिर की रक्षा का कुछ उपाय न था। सारे नगर में दुःख का रोना, शोक की ध्वनि और आत्मनिन्दा के वाक्य सुनायी दे रहे थे। उस दिन नगरवासियों ने अन्न-जल त्याग दिया था।

लोगों में चोरी-छिपे यह चर्चा भी चल रही थी कि प्राणनाथ प्रभु आ गए हैं। इस खबर से लोगों में आशा का संचार हो रहा था, परन्तु मन्दिर के पट बन्द थे। सभी लोग आशंकित थे, पर उनको यह गुमान न था कि प्राणनाथ प्रभु भीतर बैठे परामर्श कर रहे हैं। झुण्ड के झुण्ड लोग मन्दिर के चारों ओर खड़े थे।

भीतर जो लोग एकत्रित थे, उनमें से एक ने कहा-देखिए अब मामला यहाँ तक पहुँच गया कि हमें कुछ न कुछ कर ही डालना चाहिए।

अन्य जो लोग वहाँ बैठे थे, उन पर दृष्टि डालकर उसने सबको घूरते हुए कहा-

सरदारो! क्या बुन्देलखण्ड हम बुन्देलों का नहीं है? और यह मन्दिर क्या स्वर्गीय महाराज चम्पतराय की विजय कामनाओं का केन्द्र नहीं रहा? क्या आज भूल गए कि उस वीर ने विजयों पर विजय करके किस प्रकार इसकी देहली पर मस्तक टेका था। वे भाग्यवान तो वीरगति को प्राप्त हुए और हम उनके दरबारी और सरदार हैं, सो क्या केवल इसलिए कि चुपचाप उनकी दी हुई जागीर को खाते रहें?

श्रोतागण सिर नीचा किये हुए चुप बैठे थे। उन्होंने फिर कहा और आपको मालूम है कि आपके, हमारे, ओरछे के और समस्त बुंदेलखंड के सिर पर लात मारकर जो अधिपति बनकर आए हैं, वह कौन हैं? मुझे कहते हुए लज्जा आती है। वह न उच्चकुलीन है और न कोई सज्जन या वीर पुरुष है। वह एक पतित और दुष्ट प्रकृति का व्यक्ति है। उसकी एक ही विशेषता है कि उसकी पुत्री को शाही खिदमत बजा लाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है बस। उसकी यही योग्यता है। वह सारंगी बजाने का काम किया करता था। क्या आप लोग उस अधम व्यक्ति की प्रजा बनकर रहेंगे?

सरदारो! इस नीच व्यक्ति के अधीन जो न तो प्रतिष्ठित है और न योग्य, किन्तु बादशाह की कृपा से वह हमें अपनी स्वेच्छाचारिता से बर्बाद करना चाहता है। हमारे आराध्य की मूर्ति नष्ट करना चाहता है। क्या हम सब यों ही सहते रहेंगे? क्या यह उचित है? इस गन्दे घास-फूस को क्यों न हम उखाड़ कर फेंक दें और अपना मार्ग साफ कर लें? सज्जनों! मैं आप सबसे पूछता हूँ, आप का क्या उत्तर है?

एक स्वर से सब चिल्ला उठे-अवश्य! भले ही हमें प्राणों की बाजी लगानी पड़े। प्रत्येक व्यक्ति क्रोध और आवेश में बोल रहा था और गुम्बज में उसकी ध्वनि प्रतिध्वनित हो रही थी। एकमात्र प्राणनाथ प्रभु शान्त बैठे थे।

अब वे बोले। उन्हें बोलने का उपक्रम करते देख सभी चुप हो गए। प्राणनाथ प्रभु ने हँसकर कहा-यह सब तो ठीक है, पर पहल कौन करेगा? मुगलवाहिनी से टकराने का साहस किसमें है?

इस प्रश्न के उत्तर में सर्वत्र सन्नाटा छा गया। इस मण्डली में एक कोने में एक अल्पवयस्क बालक बैठा था। वह अपरिचित और विदेशी था। न जाने कब और कैसे वह इन लोगों के बीच आकर बैठ गया था। शायद इसे प्राणनाथ प्रभु की सिफारिश पर इस गुप्त सभा में सम्मिलित कर लिया गया था।

उसने धीरे से खड़े होकर मुस्करा कर कहा-यदि प्रभु का हुक्म हो तो यह सेवा आपका यह तुच्छ सेवक करेगा।

प्राणनाथ प्रभु हँस दिए। सभा ने विस्मित होकर कहा-देखो वह आ रहा है।

सब लोगों ने झरोखों में से देखा-एक दल सवारों का हथियारों से सुसज्जित आ रहा है। उनमें से एक व्यक्ति बहुमूल्य और भड़कीले वस्त्र पहने एक अरबी घोड़े पर सवार आगे चला आ रहा है। उसके पीछे सौ सवार हथियारों से लैस आ रहे हैं।

इस गर्वीले दल को देख यह छोटी-सी मण्डली दाँत पीसने लगी।

बाहर कोलाहल होने लगा। सहस्राधिक मनुष्य चीत्कार उठे। मन्दिर के सिंहद्वार पर भारी-भारी चोटें पड़ने लगीं। सभी लोग द्वार पर आकर एकत्र हो गए। प्राणनाथ प्रभु ने कहा-देखो सभी लोग संयम से रहना। जल्दबाजी मत करना। मैं और यह सुन्दर युवक मिलकर सब ठीक कर लेंगे। अभी तुम सब लोग भीतर ही रहो।

यह कहकर प्राणनाथ प्रभु सिंहद्वार पर आकर बोले-तुम कौन हो?

मैं सिपहसालार रणदूलहखाँ हूँ, द्वार खोल दो।

द्वार खुलवाने का उद्देश्य क्या है?

मैं बुतशिकन हूँ। मैं मन्दिर को ढहा दूँगा, मूर्ति को तोड़ूँगा।

और यदि द्वार न खोले जाएँ?

तो जबरदस्ती दरवाजा तोड़ दिया जाएगा।

बलप्रयोग का यहाँ कोई प्रयोजन नहीं। मैं द्वार खोलता हूँ।

इसके बाद प्राणनाथ प्रभु ने फाटक की भारी साँकल पर हाथ डाला-एक भयानक चीत्कार करके द्वार खुल गया। प्राणनाथ प्रभु अपना भगवा परिधान पहने बाहर निकल आए। तत्क्षण एक प्रचण्ड जयघोष हुआ। हजारों नर-नारी चिल्ला उठे-प्राणनाथ प्रभु की जय!

रणदूलहखाँ उस सतेज मूर्ति को अपने सामने आते देख पीछे हट गया। प्रचण्ड जयघोष ने उसे घबरा दिया था। परन्तु तुरन्त उसने साहस संचय करके कहा-बागी तू कौन है और क्यों यहाँ इतनी भीड़ लगा रखी है।

उत्तर में प्राणनाथ प्रभु एक शब्द भी न बोले। वे चुपचाप खड़े रहे। रणदूलहखाँ ने क्रोध में पागल होकर कहा, अरे गुस्ताख़ मैं पूछ रहा हूँ और तू जवाब नहीं देता। ठहर अभी तेरा सिर भुट्टे-सा उड़ाता हूँ। यह कहकर तलवार खींचते हुए वह आगे बढ़ा।

प्राणनाथ ने वज्रगर्जन करके कहा, वहीं खड़ा रह। दूसरे ही क्षण मन्दिर में से अनेक वीर निकल कर प्राणनाथ प्रभु के पीछे आ खड़े हुए। उन्होंने तलवार खींच लीं।

रणदूलहखाँ ने फिर साहस संग्रह किया, उसने कहा-समझ गया। तू प्राणनाथ गोसाई है, जो तमाम मुल्क में बगावत फैलाता फिरता है।

प्राणनाथ प्रभु बोले नहीं, वज्रदृष्टि से उसे देखते भर रहे।

रणदूलहखाँ ने फिदाईखाँ फौजदार को हुक्म दिया, क्या देखते हो, इस बागी की गर्दन एक ही हाथ से उड़ा दो। परन्तु फिदाईखाँ की हिम्मत न हुई। उसने अपने एक हवलदार से कहा-हैदरखाँ तलवार के एक ही वार से गोसाई का सिर धड़ से अलग कर। रणदूलहखाँ ने जो काम फिदाईखाँ को सौंपा था, फिदाईखाँ ने वह हैदरखाँ को सौंप दिया। यह देखकर प्राणनाथ प्रभु मुस्करा दिए। उन्हें मुसकराता देख हैदरखां ने एक सिपाही से कहा-मुहम्मदखाँ खाँ साहेब का हुक्म बजा लाओ, और एक ही हाथ में इसका सिर भुट्टे की भाँति उड़ा दो।

मुहम्मदखां ने तपाक से कहा, वल्लाह हुजूर की मौजूदगी में एक काफिर को कत्ल करूँ? मुझसे हरगिज यह गुस्ताख़ी न होगी। जनाब के एक ही हाथ से इस बदनसीब का सिर कलामुण्डी खा जाएगा। रणदूलहखाँ यह देखकर कुड़ गया। पर वह समझ गया कि इस गुसाई पर हाथ डालना साधारण आदमी का काम नहीं है। उसने होंठों को दाँतों से दबाकर तलवार खींच ली और आगे को बढ़ा।

हजारों की संख्या में खड़े नर-नारी विचलित और उत्तेजित हो उठे। प्राणनाथ प्रभु ने फिर गम्भीर गर्जन से कहा, खबरदार, सब लोग शान्त खड़े रहें। रणदूलहखाँ थर-थर काँपने लगा। पर उसने आगे बढ़कर कहा, गुसाई मरने को तैयार हो जा। मूर्ख मैं अभी नहीं मरूँगा। प्राणनाथ प्रभु बोले। उनके इस कथन पर रणदूलहखाँ ने तलवार ऊपर को उठाई। प्राणनाथ

प्रभु वज्र की भाँति खड़े थे।

अब वह युवक तेजी से मन्दिर के कक्ष से निकला और प्राणनाथ प्रभु के सामने खड़े होकर महीन, किन्तु तीव्र स्वर में बोला, खामोश रणदूलहखाँ, तलवार जमीन पर रख दो और इस बुजुर्ग से दस्तबस्ता माफी माँगो।

तू कौन है? तेरी हिम्मत पर आफरीन है, हट जा बच्चे। वरना यह तलवार तेरे खून से ही पहले सुर्ख होगी। क्या तू सिपहसालार रणदूलहखाँ के गुस्से को नहीं जानता?

युवक जोर से खिलखिला कर हँस पड़ा। इसके बाद उसने अपने सिर की पगड़ी उतार कर फेंक दी। पिंडली तक लटकने वाली सघन काली घूँघर वाली केशराशि बिखर गई। उसने दर्प से कहा, पीछे हट जा, शहजादी बदरुन्निसा तुझे हुक्म देती है कि अपनी तलवार जमीन पर रखकर झटपट इस बुजुर्ग से माफी माँग।

रणदूलहखाँ का चेहरा पीला पड़ गया। वह थर-थर काँपने लगा। उसने तलवार शाहजादी के चरणों पर रख दी और कहा, हुजूर गुलाम की गुस्ताख़ी माफ फरमाई जाए, हुजूर को मैं पहचान...........।

पहले उस बुजुर्ग से माफी माँग। रणदूलहखाँ घुटनों के बल प्राणनाथ प्रभु के चरणों में गिर गया। प्राणनाथ हँस पड़े और हाथ उठाकर उसे अभय दिया।

सभी उपस्थित लोग शहजादी की प्रशंसा करने लगे। प्राणनाथ प्रभु ने उसके सिर पर हाथ रख आशीर्वाद दिया। अपनी प्रशंसा के उत्तर में वह कहने लगी-मैं एक नारी हूँ। नारी का परिचय उसके हृदय की संवेदनाएँ होती हैं। वह सृजन तो कर सकती है, ध्वंस नहीं। बस मुझसे यह विनाशलीला देखी नहीं गई। और मैं इसे बचाने चली आयी।

इस बीच रणदूलहखाँ जल्दी-जल्दी शहजादी और प्राणनाथ प्रभु को बार-बार सलाम कर अपनी फौज सहित चला गया और इस आतंकित रीति से मन्दिर की रक्षा होती देख लोग बारम्बार हर्षनाद करने लगे। नारी हृदय की संवेदनाओं ने इस तरह भारतीय इतिहास में एक अनूठे अध्याय की रचना कर दी। अब ओरछा के वृद्ध नर-नारी भगवान चतुर्भुज के मन्दिर के रक्षा की इस कहानी को बार-बार चाव से कहा करते हैं।


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