‘हरि नारायण गोविन्द! माधव मोहन मुकुंद। देवर्षि की वीणा की झंकार आयी और गन्धर्वों के वाद्य मूक हो गए। अप्सराओं के नृत्यचपल पग रुक गए। देवराज इन्द्र अपने आसन से शीघ्रतापूर्वक उठे और उन्होंने पारिजात के सुमनों की अंजलि ली। अब देवर्षि ऐसे तो नहीं हैं कि किसी को अर्चना का पूरा अवसर दें। उन्हें इसकी अपेक्षा तो क्या रहेगी, दृष्टि भी इधर नहीं देते कि किसने कब उनके पदों में प्रणिपात किया। सुरपति एक सुमनाँजलि उनके श्रीचरणों में अर्पित कर लें, इतना ही सौभाग्य कम नहीं है।
देखता हूँ! शतक्रतु अब भी सावधान नहीं है, जबकि अमरावती का ऐश्वर्य किसी क्षण उनसे छीन लिया जा सकता है। पुष्प-पराग के मृदुल आस्तरण पर प्रणति के पश्चात् सुर एवं सभासद बैठें, इसके पूर्व ही देवर्षि की वाणी ने सबको आतंकित कर दिया। इतना प्रमाद देवधानी के अधीश्वर को शोभा नहीं देता।
क्या हुआ? कोई असुर आ रहा है? दैत्येन्द्र बलि तो रसातल में हैं और अभी तो यह केवल अट्ठाइसवीं चतुर्युगी है। उनके इन्द्रासन पर आने का समय तो इस मन्वन्तर के पश्चात् होगा। उनका कोई आश्रित! कोई अन्य दानव, राक्षस! मय ने तो कोई नवीन त्रिपुर नहीं बना डाला? उसके लिए कुछ असम्भव नहीं है। कोई तपस्वी? धरा पर तो कलियुग चल रहा है। निष्प्राण से हैं आजकल मर्त्यलोक के निवासी। वहाँ न आज दीर्घकालीन तप सम्भव है और न अश्वमेध महायज्ञों की अविच्छिन्न परम्परा ही संभव है।
देवता, गन्धर्व, किन्नर, अप्सराएँ कोई बोल नहीं रहा था, किंतु देवता संकल्प की भाषा में बोलते हैं। वाणी के मूक रहते हुए भी वहाँ एक व्याकुल कोलाहल उनके अंदर व्याप्त हो रहा था।
भारत की पुण्यधरा के प्रति सुरपति सावधान नहीं रहेंगे, तो किसी क्षण अमरावती से निष्कासित कर दिए जा सकते हैं। आसन पर बैठते-बैठते देवर्षि ने चेतावनी दी। जहाँ नारायण को बार-बार आने को विवश कर दिया जाता है, वहाँ सुरपति का सेव्य कब, कौन, कहाँ है? इस सम्बन्ध में सावधानी रखनी चाहिए। अधिकारी की उचित सेवा नहीं होगी तो क्या सर्वेश्वर इन्द्र को लोकपालधिप बने रहने देंगे?
कौन हैं वे महाभाग? सहस्राक्ष तो प्रयत्न करके भी धरा पर-भारतीय धरा पर भी ऐसा कोई नवीन तपस्वी, कोई त्यागी अथवा सिद्ध नहीं देख पाते। कलाप ग्राम के महायोगियों अथवा भगवान दत्तात्रेय के आश्रितों से उन्हें कोई भय नहीं है। जो थोड़े-से अमरपुरुष-ऋषि आदि हैं, उनसे वे परिचित हैं। उनका आशीर्वाद प्राप्त है उन्हें। अब यह नवीन स्थिति किधर से आयी है, वे कुछ समझ नहीं पाते।
देवेन्द्र केवल योग, तप, यज्ञ और त्याग ही देख पाते हैं-देवर्षि ने आक्षेप किया। परात्पर ब्रह्म भावाधीन है, यह वे प्रायः भूल जाते हैं। आद्याशक्ति की भक्ति करने वालों पर देवराज की दृष्टि जाती ही नहीं।
वे तो स्रष्टा के भी वंदनीय हैं, इन्द्र ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाया। किन्तु वे नित्य, निष्काम एवं अहैतुक कृपालु-उनकी सेवा भला इन्द्र क्या करेगा? और उनसे किसी को क्या भय हो सकता है।
वे कब क्या करेंगे, यह भी कैसे कहा जा सकता है। देवर्षि ने कहा-अब इस आदिशक्ति गायत्री के साधक विद्यारण्य को ही ले लो। कब उसके मन में क्या इच्छा होगी, किस कामना को वह झिड़क देगा और किसे पकड़ लेगा-देवी वीणापाणि भी बता सकती हैं क्या?
भगवती सरस्वती कुछ क्षण पूर्व ही सुरसभा में पधारी थीं और देवराज ने उनकी अर्चा की थी। देवर्षि ने इस बार उनकी ओर संकेत किया।
वह पराशक्ति का स्नेहलालित शिशु। वाणी की अधीश्वरी का स्वर भी वात्सल्यविभोर हो उठा-उसे तो प्यास लगे तो भी मचलकर पुकार सकता है-निखिलेश्वरी-को उसका रोष-उसका मचलना-वह कहाँ निष्काम है। किन्तु उसकी कामना ने जो आश्रय लिया है। किसकी शक्ति है, जो उस हृदय की छाया का स्पर्श कर सके।
वह सकाम है तो सुरों के लिए आतंक नहीं बन सकता। महेन्द्र की दृष्टि कामदेव की ओर उठी।
मुझे आशा करनी चाहिए कि इन कुसुम कलेवर देवता को उधर भेजने की अज्ञता देवाधीश नहीं करेंगे। उठते-उठते देवर्षि ने चेतावनी दी। वह कोई योगी-तपस्वी नहीं है कि कामना के जागरण से उसकी अर्जित साधना क्षीण होगी। कहीं उसके मन में स्वर्ग को भोग लेने की इच्छा आ गयी-तो कल छिनती अमरावती आज और अभी छिन जाएगी। वह माँ! कहकर मचलेगा तो महेश्वरी सौ अश्वमेधों की मर्यादा भूल जाएँगी। उसमें कामना न जगे, देवधानी वहीं तक निश्चिन्त रह सकती है।
देवर्षि तो परिव्राजक हैं। वे कहीं जमकर बैठना जानते नहीं। वे चले गए, किन्तु बड़ी आशंका दे गए। सृष्टि में एक ऐसा साधक हो गया है, जो इच्छा करते ही इन्द्र पद पर आ धमकेगा और उसे अवरुद्ध करने का कोई उपाय सुरों के समीप नहीं है। केवल उसकी सद्भावना पर निर्भर रहना है। कितनी असहाय स्थिति है यह।
मैं कोई सहायता सुरपति की नहीं कर सकती। देवराज कुछ कहें, इससे पूर्व ही भगवती सरस्वती ने उन्हें निराश कर दिया। कोई माता अपने शिशु का किंचित् अहित सोच भी नहीं सकती। देवराज जानते हैं कि महाशक्ति गायत्री की ही ज्योति रमा, उमा और मुझमें प्रतिफलित हैं और जहाँ उनका सहज वात्सल्य सक्रिय होता है, हमारा स्नेह वहाँ सहज प्रवाहित होता है।
देवेन्द्र सोचने लगे-देवर्षि के वचनों के बारे में, वे सुरपति के सेव्य हैं। उन्होंने निश्चय किया, जहाँ दण्ड और भेद की नीति न चल सकती हो, साम और दान वहाँ दुर्बल के आश्रय हैं। उन्हें यह उचित लगा कि उन महाभाग से परिचय कर लिया जाए। उन्हें यदि किसी प्रकार कृतज्ञ बनाया जा सके, अमरावती निःशंक हो जाएगी उनकी ओर से।
“वरं ब्रूहि। सुप्रस्नोऽस्मि।” विद्यारण्य अपनी प्रातः कालीन साधना समाप्त करके आसन से उठने ही वाले थे कि उनका उपासना-कक्ष प्रकाश से पूर्ण हो गया। उनके सम्मुख दिव्याम्बर धारी, रत्नकिरीटी, वज्रधर इन्द्र प्रकट हो गए थे।
आपके आयुध के कारण मैं समझता हूँ कि आप देवराज हैं। इस मानव का अभिवादन स्वीकार करें। विद्यारण्य ने दण्डवत प्रणाम तो नहीं किया-किन्तु हाथ जोड़कर मस्तक झुका लिया। आप आ ही गए हैं, तो अतिथि के समान मेरी अर्चा स्वीकार करें।
“वरं ब्रूहि।” देवराज ने अर्चा के उपरान्त पुनः आग्रह किया।
आप जानते हैं कि मैंने आवाहन नहीं किया था। मैं आपका आराधक नहीं हूँ। विद्यारण्य के स्वर में अतिशय नम्रता के साथ अद्भुत दृढ़ता थी-मैं कंगाल नहीं हूँ कि याचना करूँगा। भिक्षाजीवी मैं हूँ नहीं। आप स्वतः पधारे, आपने मुझ मानव पर कृपा करके दर्शन दिया-आपके औदार्य से, आपकी कृपा से मैं अनुग्रहीत हुआ। विद्यारण्य ने देवराज को बोलने का अवसर ही नहीं दिया। वे कह रहे थे-मैं उन आदिशक्ति माँ गायत्री का पुत्र हूँ, जिनके भ्रूभंग से कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड बनते और मिटते रहते हैं। महाकाल भी जिनके भय से कम्पित होता रहता है लक्ष्मी जिनकी कृपा की कामना दूर करबद्ध खड़ी होकर करती है, उनके शिशु को आप वरदान देंगे?
देवराज की अंगकान्ति मलीन हो उठी। उन्हें लगा कहीं यह अद्भुत व्यक्ति मेरे इस प्रयत्न को अपना अपमान मानकर रुष्ट न हो जाए, कोई भिक्षुक यदि सम्राट से कहे कि मुझसे कुछ माँग ले तो भिक्षुक का अहंकार क्या सम्राट का अपमान नहीं है। सम्राट असन्तुष्ट हो उठे-उन्हें दोष कैसे दिया जा सकेगा?
आप मुझे वरदान देने पधारे, इस आपके भोलेपन से मुझे प्रसन्नता हुई है। विद्यारण्य की वाणी ने इन्द्र को आश्वस्त किया। आप ‘पधारें।’ जिनके पुत्र को आपने प्रसन्न करने का प्रयत्न किया, वे कृपामयी आपको पुरस्कृत करेंगी।
पुरस्कार तो उन्हें मिल चुका था। वे यह आश्वासन लेकर अमरावती लौट रहे थे कि इस महामानव से उन्हें कोई भय नहीं है। इन्द्र जैसे देवता के तुच्छ पद की कामना उनके अन्तर में कभी उठेगी, इसकी कोई सम्भावना नहीं है।
परन्तु उनके मन में एक अद्भुत जिज्ञासा बनी रही, जिसे उन्होंने देवगुरु बृहस्पति के सामने प्रकट करते हुए कहा-वे नितान्त निष्काम भी नहीं लगे मुझे और उनकी सकामता भी मेरी प्रज्ञा ग्रहण नहीं करती।’
मनुष्य के पुरुषार्थ चार ही हैं-अर्थ धर्म काम और मोक्ष। अर्थ और काम की उपलब्धि संसार में जिस सीमा तक सम्भव है, देवराज इन्द्र की कृपा उसे सहज दे सकती है और धर्म से, यज्ञ-योगादि से, तप-त्याग से जिस स्वर्ग की उपलब्धि होती है, उसके वे स्वामी हैं। वे स्वयं वरदान देने पहुँचे और उपेक्षित कर दिए गए। त्रिवर्ग ही तो ठुकराया उन महाभाग ने।
अपवर्ग की बात भी इन्द्र नहीं समझ पाते। अपवर्ग के लिए चित्त में कामना का लेश भी नहीं होना चाहिए। विद्यारण्य का चित्त निष्काम नहीं है, यह देवराज देख सकते हैं। कामनाएँ मिटें, घटें-निष्काम उपासना ही महाशक्ति की, की जाए, ऐसा भी कोई प्रयत्न उस साधक में नहीं है। कैसा है यह साधक? क्या होना है उसका?
उनकी कामनाएँ, कामनाएँ नहीं हैं इन्द्र! देवगुरु ने सुझाया। भुने हुए बीज उगा नहीं करते। परात्पर-तत्व से युक्त होकर कामना, कामना नहीं रह जाती।
किन्तु लौकिक कामनाएँ चित्त में उठती हैं। इन्द्र अपनी बात को स्पष्ट नहीं कर पाते, यह वे अनुभव कर रहे हैं।
शिशु अपनी माँ से कुछ न चाहे, ऐसा तो कोई नियम नहीं है। देवगुरु कह रहे थे। वह अपना परमकल्याण भी माँ से चाहता है और भोजन-वस्त्र भी। उसकी लौकिक कामना भी उपासना है। उसकी लौकिक इच्छा भी अपनी माँ को सन्तुष्ट करने, उन्हें प्रसन्न करने के लिए है। उसकी इच्छापूर्ति करके उसकी माँ को प्रसन्नता होती है। कामना ही हो उसकी-वह उस कामना को लेकर भटकता कहाँ है। वह कामना भी तो उसे जगतमाता के समीप ही ले जाती है।
जब कोई परात्पर-तत्व को अपना मान लेता है। वह माता-पिता भाई-स्वामी कुछ भी उसे स्वीकार करके सर्वथा उसी पर निर्भर हो जाता है, तो वह पूर्णतत्व उसका हो जाता है। देवगुरु ने अत्यन्त स्नेहपूर्वक समझाया। पूर्णतत्व से युक्त होकर तो द्वेष, काम, भय आदि की वृत्तियाँ भी मुक्तिदायिनी हुई हैं। चित्त आनन्दघन में लगा हो, बस यही तो अपेक्षित है।
इन्द्र ने मस्तक झुका लिया। उनका यही क्या कम सौभाग्य है कि वे ऐसे महापुरुष के साथ प्रत्यक्ष कुछ क्षण व्यतीत कर आए हैं। असुर भी मुक्त होते हैं जिनसे द्वेष करके, उनसे प्रेम करने वाले की सकामता का परीक्षण करने की आवश्यकता भला इन्द्र को क्या हो सकती है। तुम चतुर्वर्ग की सीमा में सोच रहे थे, यही भ्रम का कारण था। देवगुरु ने स्नेहपूर्वक दृष्टि उठाई। वेदमाता गायत्री की भक्ति मानव का पंचम पुरुषार्थ है-ऐसा सार्वभौम पुरुषार्थ कि उसके अंक में केवल शेष पुरुषार्थ ही नहीं, पुरुषोत्तम स्वयं समा जाता है।
परम पूज्य गुरुदेव का विशेष लेख (पुनर्प्रकाशित)