वर्षा के बाद मौसम बहुत लुभावना और मनभावन हो गया था। बादल छँट गए थे। पुरवाई हवा समूचे वातावरण में शीतलता प्रवाहित कर रही थीं धूप-छाँव का सुखद संगम था। दोपहर समाप्त होने को थी। श्रीकृष्ण ने अपने सारथी दारुक, अग्रज बलराम एवं मित्र सात्यकि से कहा-आज का मौसम तो वनभ्रमण करने का है। चलो आज वनविहार करेंगे।
चारों तैयार हो गए और सघन वन में घूम-घूमकर मौन मुखर प्रकृति का आनंद लूटने लगे। सबने मिलकर एक वृक्ष के नीचे वनभोज किया। आनंद का समय बीतते देर नहीं लगी। बातों ही बातों में कब संध्या गहरी रात्रि में बदलने लगी, पता नहीं चला। आसमान के खुले प्रांगण में तारों को एक-एक करके आता देख सबने मिलकर विचार किया-
हम लोग नगर से बहुत दूर निकल आए हैं। रात गहरी और अँधेरी है। जंगल भी घना है और बीहड़ है। अतः आज रात यहीं बितायी जाए, प्रातः काल होते ही नगर को लौट चलेंगे।
सभी ने रात्रि में विश्राम वटवृक्ष के नीचे करने का निश्चय किया और आपस में मिलकर तय किया कि तीन साथी सोयेंगे और एक साथी पहरा देगा। इसी क्रम में प्रत्येक साथी एक-एक प्रहर का पहरा देने लगा।
पहले प्रहर में दारुक की बारी थी। श्रीकृष्ण, सात्यकि एवं बलभद्र गहरी नींद में सो रहे थे। दारुक पूरी तरह सतर्क, सावधान और चौकन्ना था। थोड़ी देर बाद अट्टहास करता हुआ एक पिशाच प्रकट हुआ। पिशाच ने दारुक से कहा-आज तो मैं तुम चारों का भोजन करूँगा। बहुत दिनों से भूखा हूँ, बड़ा अच्छा पेट भरेगा।
दारुक ने उपेक्षा से कहा-लेकिन मेरे रहते यह कभी सम्भव नहीं। आज मैं तुम्हें हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त कर दूँगा, ताकि आगे भी राहगीर सुरक्षित एवं निश्चिन्त रह सकें।
पिशाच और दारुक दोनों भिड़ गए। पिशाच और मानव शक्ति में कितना अंतर होता है? मानव को पिशाच से कैसे लड़ना चाहिए, दारुक इस जानकारी से अनभिज्ञ था। दारुक ज्यों-ज्यों क्रुद्ध होता था, क्रोधातुर होकर झपटता था, त्यों-त्यों पिशाच का बल बढ़ता जाता था और दारुक का बल घटता जाता था। क्रोध करते-करते दारुक एकदम निर्बल हो गया और बलशाली पिशाच ने उसे दबोच कर दूर फेंक दिया। मार की चोट से दारुक मूर्च्छित हो गया।
दूसरे प्रहर में सात्यकि उठा। उसने जब अपने साथी को बेहोश पड़ा देखा तो उसके क्रोध का पारावार न रहा। वह और भी क्रुद्ध हो गया। परिणाम वही हुआ। पिशाच के बढ़ते बल के सामने सात्यकि देर तक न टिक सके। वह भूमि पर निर्बल होकर गिर पड़े।
अगली बारी बलदेव की थी। तीसरे प्रहर में वे जागे। उन्होंने अपने दोनों साथियों को धराशायी देखा तो क्रोध के कारण उनका खून खौलने लगा। वह बलशाली तो थे ही, क्रोधावेश में उनका बल दुगुना हो गया। वे पूरी शक्ति के साथ पिशाच से भिड़ गए। ज्यों-ज्यों वे क्रोध करते जाते, उनका बल घटता जाता था और पिशाच का बल बढ़ता जाता था। अन्त में अपने साथियों की भाँति उन्हें भी थक-हारकर परास्त होना पड़ा।
चौथा प्रहर श्रीकृष्ण का आया। उन्होंने चारों ओर नजर दौड़ाई तो साथियों को मूर्च्छित पड़ा पाया और सामने ठहाका लगा रहे पिशाच को भी देखा। वे सब कुछ क्षण भर में समझ गए। पिशाच भयानक अट्टहास करते हुए कहने लगा-
आ अब तेरी ही बारी है। तुझे भी तेरे साथियों की कतार में सुला दूँ, तभी चारों को एक साथ खाकर अपना पेट भरूंगा।
श्रीकृष्ण की भौंहों में एक क्षण के लिए बल पड़ें। फिर होंठों पर हलका-सा स्मित झलका। वे सोच रहे थे-क्रोध पिशाच को जीतने का उपाय उपशम है। उपशम शस्त्र से ही यह पराजित हो सकता है। यह सोचकर शान्तिभाव से श्रीकृष्ण पिशाच से बोले-अरे पिशाच! मुझे तो जीतना तेरे लिए सर्वथा असम्भव है।
पिशाच बोला-अच्छे-अच्छे को भी मैंने मौत के घाट उतार दिया है, तो तू किस खेत की मूली है। पिशाच यह कहकर श्रीकृष्ण पर झपटा और श्रीकृष्ण चुपचाप शान्त खड़े-मुसकराते रहे। पिशाच हाथ-पैर पटकता रहा। खड़े-खड़े श्रीकृष्ण पिशाच को शाबाशी देते हुए बोले-
वाह! तू तो बड़ा बलवान है। तेरी शक्ति का कोई जवाब नहीं। तू सचमुच अपराजेय योद्धा है। शाबाश। वाह वीर, वाह। ज्यों-ज्यों श्रीकृष्ण पिशाच की प्रशंसा करते रहें, उसे शाबाशी देते रहे, त्यों-त्यों पिशाच निर्बल पड़ने लगा। उसकी शक्ति क्षीण होने लगी। शान्तभाव से खड़े श्रीकृष्ण के साथ लड़ते-लड़ते पिशाच को लगा कि जैसे कोई उसका बल छीन रहा है। अन्ततः लड़ता-लड़ता वह धड़ाम से धरती पर गिरकर संज्ञाहीन हो गया। तदनन्तर श्रीकृष्ण ने अपने साथियों को होश में किया। तीनों साथियों ने अपनी आँखें खोलीं और बोले-
क्या! पिशाच भाग गया?
नहीं, वह देखो घायल और बेहोश पड़ा है। श्रीकृष्ण ने बताया तीनों आश्चर्य से देखते हुए पूछने लगे-क्या तुमने उसे घायल किया है? हम तीनों को तो उसने धराशायी कर दिया था।
श्रीकृष्ण उन्हें समझाने लगे-देखो बल के साथ शान्ति और धैर्य भी जरूरी होता है। क्रोध रूपी पिशाच शान्ति के खड्ग से जीता जाता है। क्रोध के बदले क्रोध करने पर शत्रु का बल बढ़ता है और शान्ति से उसका बल क्षीण होता है।