एक बार एक देवमन्दिर में कोई उत्सव था। नगरवासी प्लेटो को उसमें सम्मिलित होने के लिए सम्मानपूर्वक ले आये। नगरवासियों के प्रेम और आग्रह को प्लेटो ठुकरा न सके। उत्सव में सम्मिलित हुए।
मन्दिर में जाकर एक नया ही दृश्य देखने को मिला। जो भी आता एक पशु अपने साथ लाता। देवप्रतिमा के सामने खड़ा कर, उस पर तेज अस्त्र से प्रहार किया जाता। दूसरे क्षण वह पशु तड़पता हुआ अपने प्राण त्याग देता और दर्शक यह सब देखते, हँसते, इठलाते और नृत्य करते।
जीव-मात्र की अन्तर्व्यथा की अनुभूति रखने वाले प्लेटो को यह दृश्य देखा न गया। उन्होंने पहली बार धर्म के नाम पर ऐसे नृशंस आचरण के दर्शन किये। वहाँ दया, करुणा, संवेदना और आत्म-परायणता का कोई स्थान नहीं था। वे उठकर चलने लगे। उनका हृदय अन्तर्नाद कर रहा था। तभी एक सज्जन ने उसका हाथ पकड़कर कहा-मान्य अतिथि! आज तो आपको भी बलि चढ़ानी होगी, तभी देवप्रतिमा प्रसन्न होगी। लीजिए यह रही तलवार और यह रहा बलि का पशु। प्लेटो ने शान्तिपूर्वक थोड़ा पानी लिया। मिट्टी गीली की। उसी का छोटा-सा जानवर बनाया। देवप्रतिमा के सामने रखा, तलवार चलाई और उसे काट दिया और फिर चल पड़े घर की ओर।
अंध-श्रद्धालु इस पर प्लेटो से बहस करने लगे-क्या यही आपका बलिदान है?” ‘हाँ’ प्लेटो ने शाँति से उसे कहा-आपका देवता निर्जीव है, उसे निर्जीव भेंट उपयुक्त थी, सो चढ़ा दी, वह खा-पी सकता नहीं, इसलिए उसे मिट्टी चढ़ाना बुरा नहीं।” उन धर्मधारियों ने प्रतिवाद किया-और जिन लोगों ने यह प्रथा चलाई, क्या वे मूर्ख थे, क्या आपका अभिप्राय यह है कि हमारा यह कृत्य मूर्खतापूर्ण है।”
प्लेटो मुस्कराए, पर उनका हृदय कराह रहा था। उन्होंने निर्भीक भाव से कहा-आप हों या पूर्वज, जिन्होंने भी यह प्रथा चलाई पशुओं का नहीं, मानवीय करुणा की हत्या का प्रचलन किया है। कृपया न देवता को कलंकित करें, न धर्म को धर्म, दया और विवेक का पर्याय है, हिंसा और अंध-विश्वास का पोषक नहीं।”
किसी के पास कहने को कुछ नहीं था। नगरवासी सिर झुकाये खड़े रहे। प्लेटो उनके बीच से चले आए, ऐसे ही जैसे धर्म को स्वार्थ साधन बनाने वालों के पास से परमात्मा भाग जाते हैं।