क्रोध मिटे तो साधना फले

July 1998

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बड़ी प्रखर आत्मजिज्ञासा थी उसमें। वह जीवन की सार्थकता और सत्य का बोध पाना चाहता था। अपने अन्तरमन की इस अभीप्सा को लिए वह महायोगी श्यामाचरण लाहिड़ी के पास आया। लाहिड़ी महाशय गृहस्थ होते हुए भी उच्चकोटि के संत थे। उनकी यौगिक विभूतियों की सुगंध चारों ओर फैली हुई थीं वह उनके चरणों में सिर नवाते हुए बोला-गुरुदेव मुझे आत्मसाक्षात्कार का कोई उपाय बताइए।

लाहिड़ी महाशय ने उसकी जिज्ञासा को परखते हुए कहा-वत्स तुम एक वर्ष तक अमुक मंत्र का जाप एकांत में पूर्ण मौन रह कर करना तथा जप करते हुए जब वर्ष पूरा हो जाए, उस दिन स्नान करके पवित्र होकर मेरे पास आना। तभी मैं तुम्हें आत्मसाक्षात्कार का उपाय बता सकूँगा।

साधक महायोगी की आज्ञानुसार किसी एकांत स्थान में चला गया और एक वर्ष तक मौन रहकर उनके बताए हुए मंत्र का जप करता रहा। समय पूरा होने पर वह लाहिड़ी महाशय के निवास स्थान की ओर चल दिया।

जब संत को साधक के आने का समाचार मिला, तो उन्होंने उसकी पात्रता परखनी चाही। इस क्रम में उन्होंने पास की सड़क पर झाड़ू लगाने वाली हरिजन महिला से कह दिया कि जब साधक गंगास्नान करके यहाँ आ जाए और घर में प्रवेश करने लगे तो उसके शरीर पर अपनी झाड़ू से थोड़ा-सा कचरा डाल देना।

हरिजन महिला ने उनकी बात मानते हुए वैसा ही किया। अर्थात् जब साधक घर के मुख्यद्वार की ओर जाने लगा, तब उसने झाड़ू से थोड़ा कचरा उसके शरीर पर डाल दिया।

कचरा शरीर पर पड़ते ही वह आग-बबूला हो गया। हरिजन महिला का स्पर्श भी उसे नागवार गुजरा। गुस्से में तिलमिलाता हुआ वह उस महिला को मारने के लिए दौड़ा। महिला किसी तरह अपनी जान बचाकर भाग पायी। साधक उसे पकड़ नहीं पाया। वह क्रोध में तमतमाता हुआ पुनः गंगानदी पर स्नान करके वापस लौटा।

लाहिड़ी महाशय के समक्ष जाकर उसने प्रणाम करते हुए कहा-गुरुदेव मैं एक वर्ष तक आपके बताए हुए मंत्र का जप करता रहा हूँ। अब आप मुझे आत्मसाक्षात्कार का उपाय बताइए।

महायोगी ने मुसकराते हुए कहा-वत्स अभी तो तुम सर्प के समान क्रोधित होते हो। साधना का पहला पाठ भी अभी याद नहीं हुआ। तुम पुनः एकांत में जाकर मौन भाव से उसी मंत्र का जप करो। एक वर्ष बाद पुनः आत्मसाक्षात्कार का उपाय जानने के लिए मेरे पास आना।

साधक को उनकी बात सुनकर बड़ी हताशा हुई, किन्तु उसे लाहिड़ी महाशय की योगशक्ति पर एवं उनके अध्यात्मवेत्ता होने पर यकीन था, साथ ही उसे आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने की तीव्र लगन थी। अतः निराश होते हुए भी उसने उनकी बात मान ली और चुपचाप वापस चल दिया।

एकांत स्थान में मौन रहकर जप करते हुए उसका दूसरा वर्ष भी पूरा हो गया। इस बार बड़ी उत्सुकता एवं आतुरता से वह लाहिड़ी महाशय के घर की ओर चल दिया। किन्तु महायोगी को तो अभी उसकी और भी परीक्षा लेनी थी। अतः उन्होंने उस हरिजन महिला को फिर से कूड़ा-कचरा साधक पर डालने के लिए कह दिया।

महिला ने वैसे ही किया। बल्कि अबकी बार तो उसने अपनी झाड़ू साधक के पैरों से छुला दी। साधक यह देखकर उसको पिछली बार की तरह मारने तो नहीं दौड़ा, किन्तु खीज़ और चिड़चिड़ाहट उसे भारी हुई और कुछ कटुशब्द उसने उस महिला को कह दिये।

इसी के साथ वह पुनः स्नान के लिए चल पड़ा। वापस लौटने पर उसने महायोगी से अपनी प्रार्थना फिर से दुहराई। महायोगी बोले-बेटा अभी तुममें आत्मसाक्षात्कार करने की योग्यता पूरी नहीं हुई है। एक बार और जाकर उसी मंत्र का जप एक वर्ष तक मौन रहकर करो। मुझे आशा है कि इस बार तुम अवश्य सफल होंगे।

साधक को लाहिड़ी महाशय की बात सुनकर थोड़ा अचरज हुआ। पर अबकी बार उसके मन में पहले जैसी निराशा नहीं आयी। उसने कोई उत्तर नहीं दिया और मन में कुछ सोचता हुआ शाँति से अपने स्थान पर लौट आया। पुनः मौन धारण करके मंत्र का जप करने में तल्लीन हो गया। उसने साधनारत रहते हुए यह तीसरा वर्ष भी पूर्ण किया। और गंगास्नान करके उनके पास जाने के लिए चल दिया।

तीन वर्ष लगातार एकांत में रहते, मौनव्रत का पालन करते एवं तपस्या करते हुए उसकी आत्मा निर्मल हो गयी थी। क्रोध और अभिमान पूर्णतया नष्ट हो चुके थे। साधुता उसकी आत्मा में रम चुकी थी।

इस बार भी हरिजन महिला वही थी और उसका कार्य सफाई करने का था। अबकी बार तो उसने कचरे से भरी हुई अपनी टोकरी ही साधक पर उड़ेल दी। किन्तु साधक इस बार पूर्णतया बदल चुका था। उसने तनिक भी क्रोध किए बिना दोनों हाथ जोड़कर उस हरिजन महिला से कहा-माँ तुमने मुझ पर बड़ा उपकार किया है। तुम तीन वर्ष से मेरे अन्तःकरण में छिपे क्रोध रूपी शत्रु का नाश करने के महान प्रयत्न में लगी रही हो। तुम्हारी इस कृपा के कारण ही मैं उससे मुक्त हो सका हूँ।

इस बार जब वह गुरुदेव के समीप पहुँचकर उनके चरणों में नत हुआ, तो उन्होंने उसे उठाकर हृदय से लगा लिया और बोले-बेटा अब तुम आत्मसाक्षात्कार का उपाय जानने योग्य हो गए हो। तीन वर्ष के मौन जप ने ही तुम्हारे क्रोध का नाश किया है तथा तुम्हारी आत्मा को पवित्र बनाया है। अब तुम मुझसे जो भी ज्ञान लोगे, उसे सार्थक करोगे। सचमुच इस साधक प्रवर भुवनचन्द्र सान्याल ने आत्महित के साथ व्यापक लोकहित भी किया।


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