हास्य- मानवजीवन का सत्य-यथार्थ

July 1998

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प्रसन्नता मनुष्य के सौभाग्य का चिह्न है। जो व्यक्ति हर समय प्रसन्नचित्त रहता है, उसके पास लक्ष्मी का निवास रहता है। जिसकी मुस्कान चली जाती है, प्रसन्नता तिरोहित हो जाती है, उससे लक्ष्मी रूठ जाती है। श्री, लक्ष्मी का बहुत लोकप्रिय नाम है। हँसने से, प्रसन्न रहने से मनुष्य के मुख पर एक श्री, एक कान्ति, एक तेज विराजमान् रहता है, जो संसार के समस्त श्रेयों को खींचकर ले आता है।

प्रसन्नचेता व्यक्ति को देखकर लोग प्रसन्न होते हैं, उसकी ओर आकर्षित होते हैं, उसकी मैत्री प्राप्त करना चाहते हैं। प्रसन्नता एक आध्यात्मिक वृत्ति है, एक दैवीचेतना है। इसका आश्रय ग्रहण करने वाले के सारे शोक-संताप भाग जाते हैं। प्रमुदित मन और प्रसन्नचित्त व्यक्ति के पास बैठकर लोग अपना दुःख-दर्द भूल जाते हैं, सुख और संतोष का अनुभव करते हैं। मुदितात्मा व्यक्ति देवदूत होता है, संसार का कलुष दूर करने वाला होता है।

मनुष्य को जब भी हँसने का अवसर मिले खूब हँसना चाहिए। जो हँसना नहीं जानता, वह जीना नहीं जानता। हँसी, मुसकान और प्रसन्नता यौवन की आधारशिला है। जो हँस सकता है, मुस्करा सकता है, प्रसन्न हो सकता है, वह अस्सी वर्ष की अवस्था में भी नौजवान है। इसके विपरीत जो मन-मलीन और उदास रहता है, वह बीस वर्ष की आयु में भी बूढ़ा है। यौवन का गुण है-आकर्षण हँसने वाले की ओर सारा संसार आकर्षित हो उठता है और रोने-झींकने वाले से सबको विकर्षण रहता है। जो हर समय रोता-झींकता और विषाद करता रहता है, वह जीवन के संजीवनी तत्व को नष्ट कर देता है और जो हर समय प्रसन्न और प्रमुदित रहता है वह अमृत को ग्रहण करता है।

आप हँसेंगे तो संसार आपका साथ देगा। आप रोयेंगे तो आप अकेले रह जाएँगे, कोई आपके पास बैठना न चाहेगा। हास में जीवन और रुदन में मृत्यु की छाया उतनी ही अवधि की वृद्धि कर लेता है। हास्य मनुष्य का सच्चा मित्र, सेवक, साथी और सहचर-सब कुछ है। जो इसको अपने साथ लेकर चलता है, वह जीवन में अवश्य सफल होता है। हास्य शत्रुता का शमन करता है, प्रतिकूलताओं को मित्र और क्रोध को शाँत बनाता है। प्रसन्नचेता व्यक्ति की जिंदगी एक महोत्सव के समान बन जाती है, जिससे उसे क्षण-क्षण उत्साह, उल्लास और आनन्द की प्राप्ति होती है।

हँसना स्वास्थ्य का मूल-मंत्र है। हँसने से मनुष्य के मानसिक तनाव दूर हो जाते हैं। उसे एक मधुर विश्राम प्राप्त होता है। हँसना एक मानसिक, शारीरिक एवं बौद्धिक व्यायाम है। हँसने से नाड़ी संस्थान पर एक विशेष प्रभाव पड़ता है, जिससे वे नवीन शक्ति पाकर क्रियाशील हो उठती हैं। ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध आदि उत्तेजनाओं से जो शारीरिक अस्त-व्यस्तता उत्पन्न हो जाती है, मनोविकारों का जो विष अवयवों में संचित हो जाता है वह हँसने, प्रसन्न होने से दूर हो जाता है। हँसने से फेफड़ों को नवीन शक्ति मिलती है, जिससे शरीर का रक्त शुद्ध और सशक्त बनता है। हास्य से उत्पन्न होने वाली पुलकन से पेट के सारे विकार नष्ट हो जाते हैं। इससे मनुष्य की पाचन-क्रिया का सुधार होता है, शुद्ध रक्त की वृद्धि होती है। आरोग्य के लिए हास्य एक अमोघ रसायन है।

जीवन में पग-पग पर आने वाली कठिनाइयों, मुसीबतों और समस्याओं से मनुष्य में जो एक क्लान्ति, कमजोरी और अरुचि उत्पन्न हो जाती है, वह हँसने से दूर हो जाती है और शरीर में एक नवीन चेतना, नव-स्फूर्ति का समावेश होता है।

संसार के किसी भी महापुरुष का जीवन देख लिया जाए, उनके अन्य गुणों के साथ प्रसन्नता का गुण प्रधानरूप से जुड़ा हुआ मिलेगा। हर स्थिति एवं परिस्थिति में एकरस, प्रसन्न रहना, महापुरुषों की सफलता का सबसे बड़ा रहस्य रहा है। प्रसन्नता मनुष्य की कार्यक्षमता को कई गुना बढ़ा देती है।

अप्रसन्न, उदास तथा खिन्न रहने वाले व्यक्ति की सारी शक्तियाँ शिथिल हो जाती हैं। विषादोत्पादक स्थिति में एक ऐसी तपन होती है, जो मानवजीवन के सारे उपयोगी तत्वों को जला डालती है। खिन्नता मानव जीवन का भीषण अभिशाप है। यह जीती-जागती नरक की भयानक ज्वाला की भाँति मनुष्य को दीन-हीन दुःखी और दरिद्र बनाकर रख देती है। जिसके चेहरे पर मुसकान नहीं, हँसी नहीं, प्रसन्नता नहीं, कोई भी उसके पास बैठना, उसे याद करना, उसके संपर्क में रहना पसंद नहीं करता। हर आदमी उससे दूर भागता है, जिससे उसका जीवन एकाकीपन के भार से दबकर दुरूह बन जाता है।

जीवन में जिसने प्रसन्नता का महत्व नहीं समझा उसने मानो सौभाग्यपूर्ण अभ्युदय के द्वार ही बंद कर दिये। मनुष्य का जीवन रोते-बिलखते काटने के लिए नहीं बल्कि हँसते-खेलते और गाते-मुसकराते हुए महोत्सव की भाँति आनन्द लेने के लिए ही है। जीवन में ऐसी घटनाएँ तथा परिस्थितियाँ भी आती हैं जब हँसी-खुशी का प्रदर्शन सभ्यता की दृष्टि से गलत माना जा सकता है, किन्तु इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि उस दुखद परिस्थिति को इतनी गहराई तक अपना लिया जाए कि सारा जीवन ही विषाद पूर्ण बनकर रह जाए। संसार के क्रम के अनुसार अनेक परिस्थितियों को मनुष्य के दो आँसुओं की भी आवश्यकता हो सकती है। किन्तु उनको उतने ही आँसू देने चाहिए, जितने का कि अधिकार उनको है। सम्पूर्ण जीवन को आँसुओं के रूप उड़ेल देना बुद्धिमानी नहीं। आँसू मनुष्य के लिए अपवाद और हास उसके जीवन का सत्य है, यथार्थ है।


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