संगठित जनशक्ति का बल

May 1996

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रेजीडेण्ट ठहाका मार कर हँसा - “आप हमें बेवकूफ नहीं बना सकते महाराजा साहब। बिना सेना के कभी शासन नहीं चला सकते। आपको हमें अपनी सेना देनी ही पड़ेगी।”

उन दिनों प्रथम विश्व - युद्ध चल रहा था। भारत में अँग्रेजों को लड़ाने के लिए लाखों सैनिकों की जरूरत थी। उन्होंने भारतीय राजाओं से सेना लेने का निश्चय किया। इसी सिलसिले में उनका प्रतिनिधि जिसे रेजीडेण्ट कहा जाता था, जैसलमेर राज्य में आया हुआ था। वह वहाँ के तत्कालीन महाराज जवाहरसिंह जी के नाम वायसराय का पत्र भी लाया था। जिसमें जैसलमेर की सेना को ब्रिटिश सेना में शामिल किये जाने का अनुरोध था। ऐसे पत्र बिनतीनुमा आदेश हुआ करते थे।

जैसलमेर में रेजीडेण्ट का भव्य स्वागत किया गया। इसके ठहरने का प्रबन्ध विशेष रूप से बने मेहमान-खाने में हुआ। रेजीडेण्ट ने जब वायसराय का पत्र महाराज को दिखाया और अपने आने का कारण बताया, तो वह चिन्तित हो उठे। उन्होंने उसको बताया कि जैसलमेर राज्य में कोई नियमित सेना नहीं है। ऐसी स्थिति में वह किसी तरह की सैनिक सहायता भेजने में असमर्थ हैं।

लेकिन रेजीडेण्ट को उनकी बात पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। उसने पूछा - “बिना सेना के भला देश की रक्षा कैसे हो सकती है। आप पर कोई हमला कर देगा तो क्या करेंगे, कैसे मुकाबला करेंगे ?”

हमारी सेना हमारी जनता है। उसी के आत्मबल के भरोसे हम हर तरह के खतरे का मुकाबला कर सकते हैं। हम पाँच छः घण्टे में ही अपनी सारी जन-सेना संगठित कर लेते हैं।

पर अँग्रेज प्रतिनिधि जरा भी आश्वस्त नहीं हुआ। उसने फिर से सवाल किया - “राज्य में होने वाले चोरों - डाकुओं के उपद्रवों से कैसे निबटा जाता है।”

बाहरी चोर - डाकुओं से गाँव के लोग स्वतः निबट लेते हैं। और आपस में चोरियाँ होती नहीं। राज-काज चलाने के लिए थोड़े से सिपाही जरूर हैं पर जब जनता में अमन चैन है, तो क्यों हम बड़ी सेना रखकर अपनी जनता पर बेकार का आर्थिक बोझ लादें। राजा ने उसे समझाते हुए कहा।

लेकिन रेजीडेण्ट को ये बातें समझ में न आयीं, उसने कहा ये सब कोरी बातें हैं। मैं सेना लिए बिना वापस नहीं जा सकता। आप मुझे अपनी सेना दें, चाहे वह आपकी नियमित सेना हो अथवा नहीं। उसे आपके खजाने से वेतन मिलती मिलता है या नहीं, हमें इससे कोई मतलब नहीं है। मुझे अपने साथ यहाँ की आबादी के अनुपात से कम से कम पाँच हजार सैनिक तो चाहिए ही।

महाराज जवाहर सिंह को लगा कि अब बातों से काम नहीं चलेगा इसे सच्चाई समझानी ही पड़ेगी। उन्होंने कहा, “ठीक है। कल सुबह आप मेरी सेना देख लीजिएगा। तभी आप मेरी बात समझ सकेंगे।”

उसी दिन उन्होंने अपने ऊँट सवार, घुड़सवार, राज्य के हर गाँव भेज दिए। पन्द्रह से पचास साल तक के सारे आदमी सूरज उगने से पहले-पहले जैसलमेर पहुँच जाय। राज्य को आज सबकी जरूरत पड़ गयी हैं। आदेश हवा की तरंगों के साथ हर घर, हर गाँव में फैल गया। राज्य को हमारी जरूरत है सुनते ही खेत में, खलिहान में, चरागाह में, पत्थर ढोता, घास काटता, गड्ढे खोदता जो जहाँ था, वही रण का बाना पहन कर जैसलमेर की ओर बढ़ चला। ऊँट, घोड़े, बैल-गाड़ियों के रेले के रेले राजधानी में इकट्ठे होने लगें।

अँग्रेज रेजीडेण्ट अपने शयन कक्ष में अभी तक सोया हुआ था। उसे अपने कानों में ऊँट, घोड़े और बैलों की आवाजें, घंटियों की रुनझुन सुनायी पड़ी। उसे लगा जैसे वह कोई स्वप्न देख रहा है। लेकिन धीरे-धीरे ये आवाजें तेज होती गयीं। शोर बहुत बढ़ जाने से उसकी नींद खुल गयी। वह उठकर छत पर आ गया।

छत पर महाराजा पहले से ही बैठे हुए थे। उन्होंने उसकी ओर देखते हुए कहा - आइए रेजीडेण्ट साहब। रेजीडेण्ट आँखें फाड़-फाड़ कर देखे जा रहा था। दूर-दूर तक चारों दिशाओं में ऊँट, घोड़े, बैलगाड़ियों के हुजूम खड़े दिखाई दे रहे थे। धूल की परतें आसमान में छाई हुई थी। हजारों लोग पाँचों हथियार बाँधें सैनिक अभ्यास के लिए बढ़े चले आ रहे थे।

केसरिया वस्त्रों की अद्भुत छटा को दिखाते हुए महाराजा बोले, देखिए ये है मेरी सेना। ये सभी एक ही रात में यहाँ आ पहुँचे हैं। हम सबको अपनी मिट्टी से बेहद प्यार है। हमारी स्वतन्त्रता पर जब भी आँच आती है, सारी जनता बलिदान के लिए तुरन्त तैयार हो जाती है। जहाँ जनता उत्सर्ग के लिए तैयार हो तो कौन सा खतरा टिक सकता है। राजा ने सगर्व कहा।

रेजीडेण्ट आश्चर्यचकित हो देखता रहा। अपने देश के लिए बलिदान होने वाले ऐसे वीरों को देखकर वह बोला - “राजा साहब, जिस दिन जैसलमेर जैसे बहादुरों की भावनाएँ सारे हिन्दुस्तान में तरंगित होने लगेंगी, हम अंग्रेजों को बरबस हिन्दुस्तान छोड़ना पड़ेगा। आज मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, अभी नहीं तो थोड़े दिनों बाद ही सही, हिन्दुस्तान का भविष्य सुनिश्चित रूप से उज्ज्वल है।” वह सेना ले जाने के अपने विचार को त्याग कर वापस चला गया।


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