प्राण दे नहीं सकते तो लेने का अधिकार भी नहीं

May 1996

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शिप्रा के तट पर उन दिनों घनघोर वन था, जो दूर दूर तक फैला हुआ था। इस वन में प्रवेश करते ही उसकी नजर एक बारहसिंघे पर पड़ी, जो कई हिरणियों के झुण्ड में सम्राट की भांति विचर रहा था। वह मृगमण्डली तथा मृग छौनों को निर्भय होकर चरने का अवसर देने के लिए लम्बे सींग ताने बल और विकट अकड़ में तना हुआ था। अश्वारोही ने उस अनमोल पशु को सींगों पर आकाश सा उठाते देखा जैसे वह क्षण क्षण धरती खोदता इधर उधर ताकता उसे चुनौती दे रहा हो।

अश्वारोही के चेहरे पर एक विद्युत रेखा सी कौंधी और उसने अपना अश्व इस बारहसिंघे के पीछे डाल दिया। मृग यूथप उसे अपनी ओर आता देखकर प्राण रक्षा के लिए घने वन की तरफ भागा। घोड़ा स्पर्धावश उस पर वज्र सा टूटा, किन्तु वन निरन्तर घना होता जा रहा था। अश्व की गति मन्द पड़ने लगी। घुड़सवार ने लगाम ढीली कर अश्व को धीरे-धीरे आगे बढ़ाया। लगातार पीछा होते देखकर मृग सघन झुण्ड में साँस साधकर खड़ा हो गया। इस बीच हिरणियाँ और मृग शावक न जाने कब के पीछे छुट चुके थे। अश्व उसकी गंध सूँघता हुआ उसके निकट आ पहुँचा।

तब घबराकर बारहसिंघा जिधर से आया था, उधर लौटा और वन के बाहर मैदान की ओर दौड़ा। कदाचित् उसे मैदान में अपने साथियों की चिन्ता हो आयी थी। अब अश्वारोही को सहूलियत थी। वन विरल होते ही अश्व बाज की तरह उसे पछियाने लगा। बेबस होकर मृग मैदान में चौकड़ी भरने लगा। अश्वारोही को लक्ष्य संधान की सुविधा हुई। उसने कान तक प्रत्यंचा खींच कर मृग के पृष्ठ भाग में बाण मारा। बाण लक्ष्य पर लगा। थोड़ी देर तक तो मृग भागता रहा- किन्तु लगातार खून बहने से उसकी गति शिथिल होने लगी थी। इस बीच एक सधा हुआ बाण उसके पेट में प्रवेश कर गया। मृग करुण नाद कर गिर गया।और छटपटाने लगा अश्वारोही निकट पहुँच कर अश्व से कूद पड़ा और मृग की मरणासन्नता देखने लगा। उसके चेहरे पर हर्ष-विषाद के सम्मिलित भाव उभरे। शायद मृग की दशा ने उसे दुःखी कर दिया था और आखेट में इतना अनमोल पशु पाकर उसे प्रसन्नता हो रही थी ।

अभी वह विश्राम के लिए कुछ दूर पर एक वृक्ष की छाया में खड़ा ही हुआ था, कि उसने एक अद्भुत दृश्य देखा। हिरणियों का एक झुण्ड अपने शावकों समेत मरणासन्न मृग के निकट आ खड़ा हुआ। हिरणियां करुण चीत्कार करती हुई धरती पर गिरने लगीं। वे जमीन पर लोटती-पोटती माथा मारती और अचेत हो होकर पसर जातीं। उसने ऐसा तो कभी सोचा भी न था। वन पशुओं में ऐसा प्रेम। वह आँखें फाड़े यह दृश्य देख रहा था। उसे अब अपनी करनी पर पछतावा हो रहा था। अचेत हिरणियों से घिरा मृत मृग दुर्घटना और दुर्भाग्य का प्रतीक सा लग रहा था, तभी एक चमत्कार घटित हो गया। दोपहरी की तेज धूप में पसीने पसीने हो रहे उसने देखा कि निकट के वन कुँज से एक योगी प्रकट हुआ।

उसने अपने माथे से टपकते पसीने को पोंछकर हरिण की ओर आते तपस्वी का दर्शन किया। हवा संयोगवश उसी दिशा से बह रही थी। अतएव उसे एक अनजान किन्तु मोहक सुगंध का अनुभव हुआ। जैसे उस बीहड़ वन में कमल वन प्रकट हो गया हो। हवा के झोंकों में यही पह्नगंध बह रही थी। राजमहलों के तेल और गंध इसके सामने दुर्गन्धित प्रतीत हो रहे थे। उसकी नासिका उस गंध पीयूष को सूँघती हुई तृप्ति का अनुभव करने लगी और उसकी थकान जाती रही।

वह योगी दूर से आग से बवण्डर की भाँति दीखा था। वह चलता नहीं उड़ता हुआ लग रहा था। आश्चर्य क्या कोई हवा में उड़ भी सकता है। अभी वह कुछ और अधिक सोच पाता कि एक ज्वालापुँज नजरों के सामने था। उसका आकार अब तक साफ हो चुका था। वह गुदड़ी पहले था, जो इतनी ढीली-ढाली थी कि शरीर के ऊपरी भाग को ढकती हुई घुटनों तक नीचे आ गयी थी। पिंडलियाँ खुली हुई थीं। इन्हें देखते ही लगता था कि नित्य व्यायाम और दूर की यात्राओं से उसके हरिण जैसे चपल-पुष्ट पैरों में अष्ट धातु को ऐंठ कर नसों पर माँस चढ़ाया गया हो। उसकी भुजाएँ भी वज्र की सी बनी प्रतीत हो रही थीं।

नजदीक से देखने पर योगी का चेहरा किसी दैत्य लोक के प्राणी सा लगता था। खरे सोने की तरह तपे गौरवर्ण में उसका कंठ शंखाकार था और भव्य मुख्य पर बड़े-बड़े कटोरे जैसे नेत्रों में करुणा का जल भरा था। इन क्षणों में उन नेत्रों में क्रोध मिश्रित चिन्ता भी झलक रही थी। शुक सी नासिका वाले योगी के होठों का कटाव कलात्मक था। नासिका छिद्र न तो छोटे थे, न बड़े लेकिन इस समय रुद्रभाव के कारण क्रोधित नाग की तरह तप्त श्वाँस छोड़ रहे थे।

योगी के मुख पर श्मश्रुयों, मस्तक पर शिव तिलक और शीश पर केशों का जटा-जुट था, जो हवा में उड़ते तो नाग की तरह तहराते प्रतीत होते। केशों में लालिमा और चमक ऐसी थी जैसे नागों ने अभी हाल में ही केंचुल छोड़ी हो। वे कभी चंवर से डुलते, कभी हवा में उड़कर फणाकार हो जाते, जैसे शिव के शीश पर कराल व्याल भ्रमण कर रहे हों। योगी की भुजाओं तथा मणिबन्ध स्थल पर रुद्राक्ष की मालाएँ लिपटी थीं और बांये हाथ में कमण्डलु तथा दाहिने हाथ में त्रिशूल था जो धूप में काल सर्प सा दमक रहा था। मृग की करुण पुकार सुनकर योगी खड़ाऊ छोड़कर नंगे पाँव ही लपकता चला आ रहा था। किन्तु कुश-काँटों और पत्थरों ने उन्हें घायल नहीं किया था शायद पावों की कोमलता देखकर काँटे भी संकुचित हो उठे हों।

स्वास्थ्य, शक्ति, तेज, मेधा, ज्ञान, अलौकिकता और फिर इन बसेस परे होने की किरणें छिटकाता हुआ योगी मृग के निकट पहुँचा, किन्तु इसके पूर्व ही अश्वारोही ने भाग कर योगी को प्रणाम किया और दण्डवत् करता हुआ उसके चरणों पर जा गिरा। योगी की प्रज्वलित दृष्टि राजा पर पड़ी। उस बेधड़क दृष्टि के पड़ते ही अश्वारोही के शरीर में आग सी लग गयी। उसने योगी के पाँव पकड़ लिए और लेटे-लेटे ही कहा।

“योगिराज ! क्षमा करें, मैं उज्जयिनी का भर्तृहरि हूँ, मृगया के व्यसन में यह अपराध मुझसे हुआ है।”

योगी न उसके प्रमाण का उत्तर नहीं दिया और कुछ उपेक्षा से उसकी ओर देखते हुए कहा - “तो तू हैं भर्तृहरि।”

“हाँ, महाराज! मैं ही हूँ वह अज्ञानी अपराधी और व्यसनी।

“क्रूर क्षत्रिय। तूने इस बेबस, हरिण परिवार को अनाथ कर दिया। ये हिरणियां इससे कितना प्रेम करती थीं। तेरे सामने ही सिर पटक-पटक कर प्राण त्यागने को तत्पर हो गयीं। बर्बर मनुष्य। इस दारुण पाप को कोई प्रायश्चित नहीं। अब बता-तू तो राजा है मालव सम्राट। इस निरीह प्राणी को जीवित कर....क्या तू इसके प्राणों को वापस कर सकता है?”

भर्तृहरि हतप्रभ थे। उन्हें अपनी असहायता और असमर्थता साफ-साफ अनुभव हो रही थी। वह घबराते हुए बोले-”प्रभो ! यह सामर्थ्य तो आप में ही है। आप इसे प्राण दान दें। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि कभी किसी निरीह प्राणी का आखेटि नहीं करूंगा। किन्तु स्वामिन्। अपनी शक्ति से इस मरणासन्न मृग को बचा लें।”

योगी के तेजस्वी मुख पर हल्की सी स्मित रेखा चपल विद्युत सी कौंधी गयी। वह कह रहे थे - “मालव सम्राट ! तू तो प्रतापी हैं, तेरा वैभव है, तू एक मृत जीव को प्राण नहीं दे सकता तो शासन और सत्ता का गर्व कैसा ? किस बल पर तू सर्व समर्थ होने का दंभ करता है ?”

“गर्व ? कैसा गर्व प्रभु। मैं तो इस समय लज्जित हूँ। प्रभु, आप इस मृग को जीवित कर दें।”

“तथास्तु! जा मुझे क्षमा किया। अब उठ और इस मृग के शरीर से बाण निकाल। जल्दी कर।”

भर्तृहरि ने धरती पर बैठ कर धीरे-धीरे दोनों बाण निकाले। रक्त का फव्वारा छूटा। लेकिन अपनी पगड़ी को फाड़ कर उसे रोका। योगी ने झोली से कोई औषधि निकाली, उसे कमण्डलु के जल से अभिमंत्रित किया और मृग के घावों में भर दिया। यह सब करने के बाद योगी ने अचेत पड़ी हिरणियों पर हाथ फेरा। निर्भय हरिण शावकों ने योगी के निकट आकर उसे चारों ओर से घेर लिया और वे उसे प्यार से देखने लगे, उसे चाटने लगे। राजा ने अंगरखे से मेवा मिष्ठान निकाल मृग शावकों को दिया, पर उन्होंने मुँह फेर लिया। वे भयभीत होकर राजा की अपेक्षा कर, योगी के पैर चाटते हुए कुछ ने की आशा में खड़े हो गए।

योगी ने झोली से कुछ अन्न निकाला, वे उसके हाथ से उसे खाने लगे। मालव सम्राट उस करुण और ममता भरे दृश्य को देखकर आँसू बहाने लगा। एक क्षण पश्चात् हिरणियां उठीं, शकी लुटी बैठी रहीं। पुनः पैर रोप - रोप कर जिस किसी तरह खड़ी हुई। फिर प्राण दाता योगी की ओर कुछ इस प्रकार बढ़ी कैसे कन्यायें अपने पिता की ओर बढ़ती है। उनकी आँखों में याचना के भाव थे कि हमारे मृग को बचा लो। फिर वे अपने मृग के पास गयीं, और उसे सूँघने लगीं।

योगी पुनः मृग के निकट गया। वरद मुद्रा में वह झुका-उसके पास बैठकर उसका मुख पकड़कर अपनी गोद में रखा, प्यार किया। पुनः नेत्र बन्द कर मंत्र पढ़ता रहा। पुनः घावों को स्नेह से छुआ। मृग के शरीर में कंपन हुआ। दो क्षण बाद मृग फड़का और उठने के प्रयत्न में लगा। उठ बैठा और खड़ा हो गया। योगी अभी भी रजा की ओर न देख कर अनवरत संजीवनी मंत्र बुदबुदा रहा था और मृग में अपनी दया दृष्टि से बल का संचार कर रहा था। कुछ समय पश्चात् बारहसिंघा लड़खड़ाता हुआ चला, चलता रहा - अचानक उसने उछाल भरी और भागने लगा। मृग टोली और मृग शावक प्रसन्न होते हुए उसके पीछे दौड़ें।

मृगदल के वन में लुप्त होते ही योगी ने मालव सम्राट की ओर देखा, जो जारी घटना पर आश्चर्य से अभिभूत था। वह सोच रहा था - धिक्कार हैं, भौतिक शक्तियों पर, धिक्कार है राजदर्प पर, जिसमें प्राण लेने की शक्ति तो हैं पर देने की नहीं। आह! योग-बल, आध्यात्मिक - बल, क्षात्र -बल से अधिक महत्तर है। उसने श्रद्धासिक्त होकर पुनः एक बार योगी के पाँव पकड़ते हुए कहा - “प्रभु ! आप तो साक्षात् महाकाल के अवतार हैं।”

“नहीं, भर्तृहरि !” योगी ने मुसकराते हुए कहा- “मैं तो महाकाल का छोटा सेवक गोरखनाथ हूँ।”

महायोगी गोरखनाथ! भर्तृहरि मन ही मन बुदबुदाए। उनके प्राणों में एक संकल्प उभरा-आध्यात्मिक मार्ग पर आरुढ़ होने का। संकल्प। शिष्य की पुकार गुरु ने सुनी। गुरु की शक्ति शिष्य धारण करले लगा।


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