गायत्री-जयंती (28 मई) के संदर्भ में विशेष लेख - अवतरण-पर्व सार्थक बने

May 1996

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अपने परिवार द्वारा घोषित तीन अनिवार्य पर्वों को भक्ति-पर्व, शक्ति-पर्व तथा ज्ञान-पर्व की संज्ञा दी गयी है। उनमें से गायत्री -जयन्ती भक्तिं-पर्व के रूप में हमारे सामने आ रहा है। इस वर्ष गायत्री-जयन्ती 28 मई 1996 को पड़ रही है। यह पर्व प्रज्ञा-परिवार के उक्त प्रमुख पर्वों में से एक है। यों तो अपने देश और में अनेकानेक पर्व-त्यौहार प्रचलित है। प्रत्येक को मनाने का अपना ढंग है और उन सभी में अति महत्वपूर्ण प्रेरणाएँ तथा शिक्षायें भरी पड़ी है। देश , काल और मात्र के अनुरूप आवश्यक सभी को हो सकती है, परन्तु उन सभी को एक सार्वदेशिक- सार्वभौमिक आन्दोलन के रूप में नहीं लिया जा सकता । सुविधा और आवश्यकता की दृष्टि से प्रज्ञा परिवार ने जिन प्रमुख पर्वों पर विशेष रूप से आयोजन कर मनाने का निश्चय किया है तथा उनमें से जिन तीन महा पर्वों को अनिवार्य मानकर प्राथमिकता दी गयी है, गायत्री -जयन्ती उनमें से एक है।

प्रज्ञा-परिजनों ने उपरोक्त तथ्य को न केवल स्वीकार ही किया वरन् उसे व्यवहार में लाने तथा क्रियान्वित करने में ही कम तत्परता नहीं बरती। पर्वायोजनों का उद्देश्य ही लोकमानस में कुछ विशेष शिक्षाओं और प्रेरणाओं को उभारना है। इस दृष्टि से गायत्री-जयन्ती का अपना अलग विशेष महत्व है- विशिष्ट शिक्षण है- विशिष्ट संदेश है जिसे समझना चाहिए-समझाया जाना चाहिए तथा अंगीकार भी किया जाना चाहिए।

पौराणिक प्रतिपादन के अनुसार सृष्टि के आदि में ब्रह्मा ने जिस शक्ति की साधना की और विश्व-निर्माण तथा उसके संचालन करने में उपयुक्त सक्षमता, ज्ञान, विज्ञान और अनुभव प्राप्त किया, उसी का नाम गायत्री है। इसी शक्ति के बल पर आदि से वर्तमान पर्यन्त सृजन और अभिवर्धन की यही प्रक्रिया चलती चली आ रही है। उस शक्ति को दूसरे शब्दों में आत्मबल भी कहा जाता रहा है। गायत्री-महामंत्र की साधना का सर्वोपरि सत्परिणाम है भी आत्मबल और वह जिसमें जितनी अधिक मात्रा में विद्यमान होगा, वह गायत्री महाशक्ति का श्रेष्ठ उपासक माना जायेगा। गायत्री-महामंत्र से वे संभावनायें कैसे साकार हो सकती है, और क्या प्रक्रिया पद्धति है इसकी साधना की -इसका स्पष्ट और विस्तृत विवेचन तो गायत्री महाविज्ञान में ही पढ़ा जा सकता है। यहाँ कहने का प्रयोजन इतना भर है कि गायत्री का सम्बल पकड़ कर उस शक्ति को सहज ही अर्जित किया जा सकता है।

गायत्री -जयन्ती के साथ ही एक और भी महत्वपूर्ण पर्व जुड़ा हुआ है- “गंगा-जयन्ती”। कहते हैं कि इसी दिन भगवती गंगा स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतरित हुई थीं। राजा सगर के साठ हजार पुत्र अपने कुकर्मों के फलस्वरूप अग्नि में जल रहे थे। उनके कष्टों का निवारण गंगा जल से ही किया जा सकता था। उन्हीं सगर के वंशज भागीरथ ने निश्चय किया कि मैं गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाऊँगा और वे इस निश्चय को पूरा करने के लिए कठोर तप साधना में लग गये। अपने लिए नहीं, साठ हजार सगर पुत्रों के लिए। इस तप साधना में तो भागीरथ को किंचित भी स्वार्थ नहीं था, अतः उनके निःस्वार्थ परमार्थ प्रयोजन को देख कर स्वर्ग में रह रही गंगा का हृदय पसीजा। ऐसे निःस्वार्थ और परमार्थ परायण प्रबल संकल्पी का पुरुषार्थ देखकर वह धरती पर आ गयी पर उन्हें धारण कौन करे ? उसके लिए पात्रता चाहिए। इस कठिनाई को भगवान शंकर ने हल कर दिया और उनकी जटाओं में गंगा का अवतरण हुआ। सगर पुत्रों का उद्धार हुआ।

यही नहीं गंगा भूमि को सींचती हुई तृषित प्राणियों की प्यास बुझाती हुई , मलीनों को पवित्र करती हुई और अशाँतों को शान्ति प्रदान करती हुई धरती पर बह चलीं। पर्व भले ही दो मनाये जायँ, परन्तु वे दोनों हैं एक ही । गायत्री महाशक्ति के अवतरण और गंगावतरण में सूक्ष्म तथा स्थूल का ही अंतर है अन्यथा उनमें से एक को सूक्ष्म तथा दूसरे को स्थूल कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी।

आत्म-शक्ति का अवतरण ठीक गंगावतरण के स्तर का है और इसके अवतरण की आवश्यकता सदैव बनी रहती है। आज के युग में तो यह और भी अधिक आवश्यक बन गया है। गंगावतरण से पूर्व तो साठ हजार सगर पुत्र ही अपने पापों की अग्नि में जल रहे थे, परन्तु आज तो स्थिति यह है कि सारा संसार ही अर्थात् 600 करोड़ मनुष्यों में से अधिकाँश ही पाप-तापों में जल रहे हैं। इन पाप-तापों से, विकृतियों और विपत्तियों की दहन-कारक ज्वालाओं में जल रहे मानव पुत्रों को शीतलता कैसे मिले ? उनका शमन कौन करे ? इन पाप-तापों, विकृतियों और विपत्तियों से आत्म-शक्ति की-ऋतम्भरा प्रज्ञा की-उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की ज्ञान-गंगा ही मुक्ति दिला सकती है। समूची मानवता कुबुद्धि और दुर्भावना ग्रस्त पतनोन्मुखी सगर -सुतों की तरह आग में जल रही है। उनका उद्धार सद्बुद्धि और सद्भावना के शीतल गंगाजल से ही संभव हो सकेगा।

परन्तु ऐसी ज्ञान-गंगा के अवतरण के लिए निःस्वार्थ , परमार्थ परायण और कर्मशील तपस्वी भागीरथों की आवश्यकता है। इस भूमिका को निभाने का दायित्व जाग्रत आत्माओं को सौंपा गया है। कहना नहीं होगा कि प्रज्ञा परिवार ऐसी ही जाग्रत आत्माओं और संस्कारवान व्यक्तियों की मणि-मुक्ता है। ज्ञान -गंगा के अवतरण हेतु ज्ञानयज्ञ की-विचार क्रान्ति की-लोकमानस में घुसी विकृतियों और विडम्बनाओं को निकाल बाहर कर उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों तथा सद्गुणों के स्थापन की निष्ठा-साधना को वर्तमान युग की प्रधान तपश्चर्या माना गया है। क्योंकि जब तक ये प्रवृत्तियां सफलतापूर्वक चलेंगी नहीं, ज्ञान -गंगा के अवतरण का प्रयोजन पूरा नहीं होगा। गायत्री जयंती के इस पावन पर्व पर हममें से प्रत्येक को भागीरथ और शंकर भगवान की भूमिका निभाते हुए ज्ञानगंगा के अवतरण के लिए कटिबद्ध होने का व्रत लेना चाहिए।

लेकिन व्रत लेना मात्र ही पर्याप्त नहीं होगा। व्रत तो एक से एक बढ़िया और एक से एक श्रेष्ठतम लिए जा सकते हैं और लिए भी जाते हैं। उनका वास्तविक परिणाम तो तभी मिल सकता है जबकि कर्मठतापूर्वक लिये हुए व्रतों को पूरा करने में भी संलग्न हुआ जाय। गायत्री-जयंती के उपलक्ष में लिये गये व्रतों को पूरा करने के लिए गंगा की तरह निर्मल, निःस्वार्थ और अपने पुण्य-प्रयासों द्वारा दूसरों के कषाय-कल्मष धोना , अपना सुविधा जनक सुरम्य निवास छोड़कर मैदानों, ऊबड-खाबड़ पर्वतीय इलाकों और बीहड़ निर्जन क्षेत्रों में बहने का सत्साहस भी होना चाहिए। यह साहस करने में घाटा कुछ भी नहीं है। निरन्तर लोकमंगल के लिए अनुदान देती रहने वाली गंगा को कहाँ घाटा रहा ? गंगोत्री से तो वह एक छोटी सी धारा के रूप में निकली है और निरन्तर देते रहने के बावजूद भी बंगाल में, जहाँ वह सागर में मिली हैं, उसका हजारों गुना बड़ा स्वरूप विस्तृत हुआ है। इतना ही नहीं, इससे पूर्व जब गंगा स्वर्ग की सुख-सुविधाओं का परित्याग कर पृथ्वी पर आयी तो उसे इतने त्याग का अनुदान भी हजारों गुना मिला। उसके त्याग से हर कोई प्रभावित हुआ, हिमालय ने अपना अक्षय कोष-दे दिया, बादलों ने वारिद का आश्वासन दिया, कितने ही नदी, नद, नाले अपना अस्तित्व छोड़कर गंगा ही सत्ताओं के त्याग-समर्पण से छोटी सी धारा बनकर गोमुख से बही गंगा अंत में गंगा सागर बन गयी। यह स्पष्ट उद्बोधन है जाग्रत आत्माओं को कि लोकमंगल के लिए स्वयं को समर्पित कर देना जरा कष्ट साध्य तो है, परन्तु जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग भी यही है और इसमें हानि कुछ नहीं, लाभ ही लाभ है, पुण्य ही पुण्य है।

युग निर्माण के प्रज्ञा परिजनों को लोकमंगल की भावनायें मुखर करने तथा उसे प्रवृत्ति को अपनाने के लिए सदैव प्रोत्साहित किया जाता रहा है। उन्हें निरन्तर यह प्रेरणा दी जाती रही है और आत्मबोध कराया जाता रहा है कि युग परिवर्तन ईश्वरीय आकाँक्षा है, उसकी पूर्ति के वे माध्यम बनें तो वस्तुतः वे हैं। साधनों और सामर्थ्यों की चिन्ता नहीं करनी है पुरुषार्थ और लगन इन दो हाथों से हम जुट पड़ने का साहस कर सकें तो उसी सत्ता का सहयोग निरन्तर मिलता रहेगा जिसकी आकाँक्षा में हम निमित्त हैं और यदि इतना साहस भी हम न कर सके तो हम जैसा अभागा और कौन होगा ? सहस्राब्दियों बाद ही कभी ऐसा अवसर आता है जब जाग्रत आत्माओं को नव निर्माण का दायित्व सौंपा जाता है। यद्यपि वह ईश्वरीय आकाँक्षा है, परन्तु मानवीय सामर्थ्य का भी उपयोग किया जा सके, इस उद्देश्य से विशिष्ट व्यक्तियों को ही इस प्रयोजन की पूर्ति का माध्यम बनाया जाता है और उसे पूरा करने से कोई भी समझदार व्यक्ति चूकना, अवार गंवाना पसंद नहीं करता।

गायत्री जयन्ती के इस पुण्य अवसर पर अब जबकि अपनी भावनाओं को-भक्ति को-समर्पण को उत्कृष्टता प्रदान करने का स्वर्णिम सुयोग आ ही खड़ा हुआ तो हममें से प्रत्येक को अपनी भावनात्मक कारीगरी की गलती का परीक्षण अथवा उपयोग करना ही चाहिए। भक्ति-पर्व पर आदर्श भक्ति-भावना को जगाकर अपने शुष्क अंतःकरण को स्नेहधारा से सिंचित करने से चूकना नहीं चाहिए। यही नहीं गायत्री महाशक्ति के ज्ञान-गंगा के अवतरण को जन-साधारण के लिए भी चर्चागम्य ही नहीं अनुभूतिगम्य बनाने के लिए प्राण पण से प्रयास करना चाहिए।

कहने की आवश्यकता नहीं कि आज के समाज में विकृतियाँ कितनी गहराई तक प्रविष्ट हो गई हैं। शरीर की सामान्य चोटें ऊपरी मलहम-पट्टी से ठीक हो सकती हैं, किन्तु रक्तविकार जन्य भाव तो रक्त शोधन से ही ठीक हो सकते हैं, ऊपरी मलहम-पट्टी उसके लिए पर्याप्त नहीं। सगर पुत्रों का दाह-कष्ट गंगा के संसर्ग से ही दूर हो सकता था और इस दुर्भाग्यग्रस्त मानव समाज को भीषण दाह से मुक्ति दिलाने की सामर्थ्य गायत्री-महाविद्या में निश्चित रूप से है।

इस पर्व पर हर परिजन, हर शाखा संगठन एवं हर शक्तिपीठ-प्रज्ञापीठ को यह प्रयास करना चाहिए कि जन-जन के मानस क्षेत्र में गायत्री महाविद्या का अवतरण कराया जा सके। समझना चाहिए कि अपनी भावनाओं में प्रभावशाली ढंग से उभार लाने तथा उनके गौरवशाली उपयोग की कारीगरी में उतने ही अंशों में सफलता मिल सकी है।

स्मरण रहे कि पर्वायोजनों का प्रमुख उद्देश्य जन चेतना को जाग्रत करना तथा सही दिशा प्रदान करना है। उसके लिए धार्मिक वातावरण तथा प्रभावशाली शिक्षण आवश्यक है। अतः प्रयास यही किया जाता चाहिए कि आयोजनों में जितने भी कार्यक्रम रखे जायँ उन्हें प्राणवान बनाने का ध्यान रखा जाय, साथ ही इस संदर्भ में जो कुछ कहा जाय व्यवस्थित ढंग से कहा जाय। सब कुछ बता देने के उत्साह में सारी बात उलझ कर न रह जाये। बोलने वाले व्यक्ति और कहे जाने वाले विषयों का अभी से निर्धारण कर लिया जाये तो कार्य सुन्दर और प्रभावशाली ढंग से सुगमता पूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है।

गायत्री जयन्ती की तैयारियाँ यह अंक हाथ में पहुँचने तक तीव्र हो चुकेंगी। विभिन्न कार्यक्रमों के साथ पर्व का उद्देश्य और संदेश जन-जन तक पहुँचाने का लक्ष्य सभी शाखायें स्वभावतः रखेंगी ही। इसके लिए पूर्व तैयारी ठीक ढंग से कर लेनी आवश्यक है। वक्ता तथा विषय दोनों ही उपयुक्त तथा पूर्व-निर्धारित रहने से उद्देश्य भली प्रकार पूरा होगा।

गायत्री पर्व पर कहने के लिए बहुत कुछ है । गायत्री के नौ शब्द, तीन व्याहृतियां और तीन चरण कुल मिलाकर चौबीस अक्षर होते हैं। इनमें से प्रत्येक का अर्थ गायत्री महाविज्ञान तथा गायत्री सम्बन्धी वाङ्मय के सात खण्डों में दिया हुआ है। इनमें से एक-दो की व्याख्या को जानने से उससे आज के मनुष्य तथा समाज को क्या प्रेरणा मिलती है ? इसका तारतम्य बिठाया जा सके तो इस युग की किसी भी समस्या पर प्रकाश डालने की गुँजाइश निकल सकती है। इसी प्रकार गायत्री के प्रत्येक अक्षर की व्याख्या विवेचना से नवनिर्माण अभियान के प्रत्येक पहलू पर प्रकाश डाला जा सकता है।

गायत्री सद्ज्ञान की, ऋतम्भरा प्रज्ञा की, विवेकशीलता और दूरदर्शिता की देवी है। उसके तीन चरणों में यही तथ्य ओत-प्रोत है। उन्हें विचार-क्रान्ति, नैतिक- क्रान्ति और सामाजिक-क्रान्ति की त्रिवेणी के रूप में जनमानस में बिठाया जा सकता है। शास्त्रों में सूत्र ही तो होते हैं। व्याख्या करना प्रवचनकर्ता का काम है। सूत्रों पर वृत्ति किस प्रकार विस्तृत की जाय और सुनने वालों के लिए उसे प्रेरणाप्रद कैसे बनाया जाय, इसका कोई निर्धारित क्रम नहीं है। यह वक्ता की सूझ-बुझ और मनोभूमि पर निर्भर है। ग्रामोफोन के रिकार्ड की तरह एक ही तरह की तोता रटंत यह व्याख्या लोग करने लगें तो उन्हें शिक्षक भले ही कहा जाय, पर युग निर्माता नहीं कहा जा सकता। गायत्री पर्व पर बोलने वालों में इतनी समझ होनी चाहिए कि इस महामंत्र के अक्षरों और शब्दों की, उसके तीन चरणों की तथा मूल भावना की इस ढंग से व्याख्या करें कि उसमें युग-निर्माण मिशन के क्रिया-कलाप की संगति ठीक तरह बैठ जाय।

उपयोगी बात कहना कोई कठिन काम नहीं। परमपूज्य गुरुदेव की कृपा से युग निर्माण साहित्य एवं पत्रिकाओं के पृष्ठों पर इस दृष्टि से श्रेष्ठतम सामग्री जगह-जगह बिखरी पड़ी है और अब तो उन्हें वाङ्मय के रूप में संकलित भी किया जा रहा है, उन्हें पढ़कर हृदयंगम कर लेने और तात्कालिक वातावरण तथा स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप थोड़ा पुट सिद्धान्त के साथ बोल देने में रोचकता भी बढ़ती है, साथ ही वह अधिक व्यावहारिक भी लगने लगता है। अंतः अपने मिशन के सिद्धान्तों को इसी ढंग से जनता को हृदयंगम कराने का प्रयास किया जाना चाहिए।

गायत्री महामंत्र पूजा पाठ भर का मंत्र नहीं है। उसमें मानवी-प्रकृति का हर पक्ष भली प्रकार समाविष्ट है। नारी को भगवान के रूप में मानने का प्रत्यक्ष प्रतिवादन की इतना बड़ा है कि उससे नारी को पर्दाप्रथा से-पददलित स्थिति से ऊँचा उठाकर युग नेतृत्व की क्षमता विकसित करने की योजना प्रस्तुत की जा सकती है। दहेज जैसे नारी के गले में पड़े हुए नागपाश के विरुद्ध आक्रोश उत्पन्न किया जा सकता है और भी कुछ ढूँढ़ना हो तो इन्हीं अक्षरों में सब कुछ ढूँढ़ा जा सकता है। उनमें सब कुछ मौजूद है। भावनात्मक नव निर्माण के सांस्कृतिक पुनरुत्थान के सभी सूत्र इस महामंत्र में विद्यमान है। भावनात्मक , नवनिर्माण का उद्देश्य लेकर ही अपना महान अभियान चल रहा है।

गायत्री मंत्र की आध्यात्मिकता का प्रयोगात्मक रूप क्या है, इसकी व्याख्या के रूप में इस युग के विश्वामित्र परमपूज्य गुरुदेव एवं परम वन्दनीया माताजी के जीवन क्रम को एक सर्वांगपूर्ण शास्त्र के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। गायत्री उपासना का समय स्वरूप क्या है और उसकी सिद्धियाँ क्या अभी भी संभव है ? और वह लाभ मिले तो मिले कैसे ? इसके लिए उनके समान साधनात्मक जीवन को प्रस्तुत करते हुए अध्यात्म प्रेमियों को उस पथ का अनुकरण करने की प्रेरणा दी जा सकती है। वहाँ एक बात ध्यान रखने योग्य है कि चमत्कार से किसी को कोई मार्गदर्शन नहीं मिलता। प्रायः परमपूज्य गुरुदेव की चर्चा आते ही परिजन उनके चमत्कारी पक्ष की उभारने-कहने के जोश में आ जाते हैं और समझते हैं कि इन चमत्कारी बातों से जनता जल्दी प्रभावित होगी। यद्यपि परमपूज्य गुरुदेव-परम वंदनीया माताजी के प्रति उनका अपना श्रद्धा-विश्वास एक अलग पक्ष है, पर जनता के सामने इसे कैसे प्रस्तुत किया जाय, यह अलग ही बात है। इसलिए उनके चमत्कारी पक्ष का कहीं थोड़ा बहुत संकेत मात्र आवश्यक है। अन्यथा उनके साधना पक्ष को ही उभार देना आवश्यक है। अलौकिक पक्ष उभारने से लोग उसके प्रति श्रद्धा तो व्यक्त करते हैं, पर उनका अनुसरण करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। व्यावहारिक पक्ष उभारने से लोग वैसा ही बनने और वैसा ही करने की बात सोचते हैं तथा सही अर्थों में लाभ होने लगता है। अतः जन-साधारण में प्रेरणा भरते समय इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

मूर्तिमान पवित्रता की देवी गंगा और भावना क्षेत्र में इन्हीं सत्प्रवृत्तियों का संचार ज्ञानगंगा-गायत्री करती है। दोनों का परस्पर सम्बन्ध-समन्वय है। गायत्री को भावना कह सकते हैं तो गंगा को क्रिया । गायत्री जब व्यावहारिक जीवन में ओत-प्रोत होती है तो व्यक्ति के क्रिया -कलाप गंगा के स्तर के ही पवित्र एवं उदात्त होते हैं। यह तथ्य यदि इस अवतरण पर्व पर समझ लिया जाय और समझने तक ही सीमित न रहकर उसे कर्मरूप में परिणत किया जाय तो व्यक्ति और समाज दोनों ही धन्य हो सकते हैं और धरती पर स्वर्ग के अवतरण तथा व्यक्ति में देवत्व के उदय का स्वप्न साकार हो सकता है।

प्रज्ञा परिजनों के लिए गायत्री जयन्ती का अधिक महत्व इसलिए भी है कि अपनी आराध्य-सत्ता की यह पुण्य जयन्ती भी है। इसी पावन पर्व पर परमपूज्य गुरुदेव ने सूक्ष्म एवं कारण रूप से व्यापक होने के लिए विश्व-कल्याण हेतु स्वेच्छा से स्थूल काया का त्याग किया था। इस पावन-पर्व पर की गयी गायत्री महाशक्ति की उपासना-साधन अनन्त गुना फलदायी होती है फिर इस बार की गायत्री-जयंती तो हस्त-नक्षत्र पर पड़ रही है जो सर्वार्थ-सिद्धि प्रदान करने वाला योग है। इस वर्ष यह शुभ संयोग उपलब्ध होने से प्रत्येक प्रज्ञा परिजन इसका अधिकाधिक लाभ उठावेंगे और परम-पूज्य गुरुदेव-परम वन्दनीया माताजी द्वारा निर्देशित कार्यों को अधिक मुस्तैदी से पूरा करने में जुट पड़ने का संकल्प लेंगे और महाकाल के साथी-सहचर होने का पुण्य-गौरव अर्जित करेंगे, ऐसी आशा-उपेक्षा है।


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