उद्धरेत् आत्मनात्मानं

May 1996

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यह एक तथ्य है कि रोगों का कारण शरीर नहीं, वरन् अपना मन है। रोग की जड़ें सर्वप्रथम मन में पनपती हैं पीछे शरीर पर उसके लक्षण उभरते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। चिकित्सा-विज्ञानियों की आधुनिकतम खोजों ने भी यह स्पष्ट कर दिया है कि शरीर में उपजने वाले रोगों का जनक अपना यह मन-मस्तिष्क ही है जिसे स्वच्छ-निर्मल बनाये बिना शरीर को स्वस्थ नहीं रखा जा सकता। अतः उत्तम स्वास्थ के लिए विचार परिशोधन एवं विधेयात्मक चिन्तन की प्रतिष्ठान ही एक मात्र वह सार्वभौम उपाय-उपचार है जिसके आधार पर मानव समुदाय को स्वस्थ तथा समुन्नत जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। शरीर चिकित्सा-विज्ञानियों का भी मनः चिकित्सकों की भाँति ध्यान अब इस ओर आकृष्ट हुआ है और वे रोगों के निर्धारण करने से पूर्व, मात्र शारीरिक स्थिति को ही नहीं निरखते-परखते, वरन् मानसिक स्थितियों व मस्तिष्कीय स्तर का भी अध्ययन करते हैं। इस तथ्य से भली भाँति परिचित चिकित्सक ही बहुधा सफल होते हैं।

इस संदर्भ में कुछ समय पूर्व न्यूयार्क में रोगों के मूल कारणों को जानने एवं निदान-उपचार के लिए अमेरिकन मनोचिकित्सक संघ एवं एसोसिएशन आफ मेडिकल कॉलेज के मूर्धन्य वैज्ञानिकों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया था। इस विचार मंथन, में जो महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले गये उसके अनुसार वर्तमान चिकित्सा-शास्त्री रोगों के संबंध में तो गहरी जानकारी रखते हैं, किन्तु लोगों की मनःस्थिति एवं भावना-विक्षोभों से सर्वथा अनभिज्ञ रहते हैं और यही तत्व रोगी को और भी अधिक रोगग्रस्त बनाता जाता है। यही कारण है कि डाक्टर रोगियों की भावनात्मक आवश्यकता को पूर्ण करने में असफल रहते हैं। होना यह चाहिए कि अभी वे रोगियों को जिस हिसाब से व्यवहार व उपचार करते हैं उसके स्थान पर उन्हें सर्वप्रथम मनुष्य माना जाना चाहिए और उनके भावनात्मक स्तर को टटोलना चाहिए। इसी रिपोर्ट में आगे यह कहा गया है कि विश्व भर में भौतिकवादी दृष्टिकोण छा जाने के कारण लोगों के रहन-सहन एवं चिन्तन-चेतना में तेजी से परिवर्तन आया है। आपा-धापी एवं मारा-मारी भरे इस युग में अधिकाँश नर-नारी भावनात्मक उथल-पुथल के कारण तनावग्रस्त बनते और अपने स्वास्थ्य को गँवाते चले जाते हैं। अतः समग्र निदान के लिए चिकित्सकों को चाहिए कि वे लोगों का अध्ययन करें कि वे किस तरह रहते हैं, किस तरह सोचते हैं तनाव एवं अप्रसन्नता का मूल कारण क्या है ? यही वे आधार हैं जिनमें समग्र चिकित्सा के सूत्र सन्निहित हैं।

‘नो योर ओन माइण्ड’ नामक अपनी कृति में हैराल्ड शेरमन ने लिखा है कि मैं कोई डाक्टर नहीं हूँ ; किन्तु मैंने जीवन भर लोगों का अध्ययन किया है कि वे किस तरह रहते हैं, किस तरह सोचते और अनुभव करते हैं। उनके प्रत्येक दिन के क्रियाकलाप एवं व्यवहार में क्या-क्या उतार-चढ़ाव आते हैं ? अतः हम अपने अध्ययन के लिए किसी चिकित्सक की प्रतीक्षा क्यों करें ? क्यों न हम स्वयं ही अपना विश्लेषण करना आरंभ कर दें और खोजें कि कौन सा गलत चिन्तन या बुरा विचार अथवा भावनात्मक प्रतिक्रिया रोगों के रूप में प्रस्फुटित हुई है। इन क्रिया-कलापों को कैसे ठीक किया जाय ? इस तरह की आत्म विश्लेषण क्रिया को अपनाकर हम खुद अपने रोगों के मूल कारणों को जान कर उन्हें रोक सकते हैं। जिस बुरी आदत, संकीर्ण चिन्तन एवं दूषित भावना की प्रतिक्रियाओं ने हमें रोगग्रस्त बनाया है तथा कष्टमय जीवन जीने को मजबूर किया है, उससे हम सहज ही छुटकारा पा सकते हैं।

विचार विज्ञान का एक नियम है- ‘लाइक अट्रैक्ट्स लाइक’ अर्थात् हम जैसा सोचते हैं, जैसा करते हैं और जैसा सोचते हैं, जैसा करते हैं और जैसा स्वयं होते हैं वैसे ही समान धर्मी विचारों एवं परिस्थितियों को आकर्षित करते हैं। यही कारण है कि हम अपने जीवन में उन्हीं तस्वीरों एवं घटनाओं को गढ़ते चले जाते हैं जैसाकि हमारी विचारणाओं का स्तर होता है। जो भी हम गहराई से सोचते, अनुभव करते एवं इच्छा करते हैं, वही हमारे सामने घटित होता चला जाता है।

इस संदर्भ में न्यूयार्क मेडिकल सोसायटी के वरिष्ठ सदस्य डॉ0 लौरेन टी0 गे ने गहन अध्ययन एवं अनुसंधान किया है। उनका कहना है कि रोग और कुछ नहीं, मात्र हमारी वैचारिक एवं भावनात्मक विकृति का ही परिणाम है। अंधे व्यक्तियों जिनमें से कुछ आँशिक तथा कुछ पूर्ण अंधता से ग्रस्त थे, पर किये गये परीक्षणों से उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि चिन्ता जैसी चिन्तन-चेतना की विकृति एवं मानसिक तनाव की इस तरह के रोगों का प्रमुख कारण है। यदि रोगी स्वयं ही अपनी समस्याओं का विश्लेषण करे तो चिन्ता एवं इस तरह की शारीरिक अपंगता से बच सकता है और यही हृदय , मस्तिष्क एवं प्रभावित अंग- प्रत्यंगों का सार्वभौमिक उपचार है। यह मात्र कोरी कल्पना नहीं है, वरन् ऐसी घटनायें लोगों के जीवन में घट चुकी हैं तथा लोगों ने स्वयं ही अपने प्रयासों से अपने को रोगमुक्त किया है।

अपनी उक्त पुस्तक में उन्होंने न्यूयार्क की एक महिला का उदाहरण देते हुए लिखा है कि गठिया रोग के कारण वह चल फिर नहीं सकती थी। चलने के लिए उसे अपने हाथ एवं पैरों का सहारा लेना पड़ता था। पहिए वाली कुर्सी ही एक मात्र उसका सहारा थी। जब उसे बताया गया कि समस्त रोगों का मूल अचिन्त्य-चिन्तन अथवा प्रभावित किये कोई भावनात्मक व्यवधान है जो शरीर के रासायनिक तत्वों में परिवर्तन कर देते हैं तो उसने स्वीकार किया कि अपने शरीर की यह हालत मैंने ही बनायी है। उसने बताया कि अपने जिस बेटे को वह सर्वाधिक चाहती और स्नेह करती थी, उसने उसे अपमानित किया। उसका व्यवहार ऐसा हो गया था जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। बेटे ने माता-पिता की समूची आशाओं पर पानी फेर दिया था। माँ जहाँ अपने बेटे को एक आदर्श व्यक्तित्व के रूप में देखना चाहती थी, वहीं वह उतना दुष्ट एवं क्रूर निकला जिसे चाह कर भी वह क्षमा नहीं कर सकी। उसने स्वीकार किया कि उसकी रोगग्रस्तता का प्रमुख कारण यही भावनात्मक क्षोभ है।

समस्या के निदान के लिए जब उसे विधेयात्मक चिन्तन करने एवं ईश्वर के प्रति दृढ़ विश्वास रखने की विधा बतायी गयी तो वह उससे पूर्णतः सहमत ही नहीं हुई, वरन् उसे अपनी जीवनचर्या का अंग भी बना लिया । धीरे-धीरे उसका मानसिक स्तर परिवर्तित होने लगा और घृणा के स्थान पर प्रेम के भाव पुनः प्रस्फुटित होने लगे। फलतः सुधार प्रक्रिया भी स्वयमेव आरम्भ हो गयी और कुछ ही महीनों में वह गठिया रोग से पूर्णतः मुक्त हो गयी। आज वह दूसरों को रोगों का मानसिक उपचार सिखाती हैं।

प्रश्न उठता है कि क्या हमारे मन में भी किसी व्यक्ति विशेष के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, घृणा अथवा क्रोध के भाव हैं ? क्या कोई व्यक्ति, वस्तु या क्रियाकलाप हमारे मन में विक्षुब्धता उत्पन्न कर देता है। यदि हाँ, तो निश्चित ही उसकी परिणति शरीर में दिखाई पड़ेगी और वह आज नहीं तो कल उन भावों को रोगों के रूप में व्यक्त करेगा जिनका निदान तब किसी औषधि उपचार से न होगा। यह केवल एक तथ्य ही नहीं वरन् सत्य घटना है। इस संबंध में हैराल्ड शेरमन उदाहरण देते हुए एक सच्ची घटना का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि मेरे साथ पढ़ने वाले एक विद्यार्थी को अंधेपन ने घेर लिया उसके पास मात्र तीस प्रतिशत दृष्टि बची। इस अंधत्व के कारणों को ढूँढ़ने-ढूँढ़ते डाक्टर परेशान थे। उसका कोई स्थूल कारण उनकी समझ में नहीं आ रहा था। इस संबंध में जब मुझसे पूछा गया तो मैंने बताया कि उन नर-नारियों को इस तरह का अंधापन एवं बहरापन होता है जो किसी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति से सामना नहीं करना चाहते। ऐसे लोग, व्यक्ति-विशेष अथवा वस्तु-विशेष को देखना या उनके शब्दों को श्रवण करना नहीं चाहते।

गहराई से जाँच पड़ताल करने पर पाया गया कि उक्त व्यक्ति को सुबह सोकर उठने के बाद प्रायः पाँच-दस मिनट तक स्पष्ट दिखाई देता था, पर पीछे आँखों के आगे अंधेरा छाने लगता और न के बराबर दिखाई देता था। जब उससे मानसिक एवं भावनात्मक परेशानियों के बारे में पूछा गया और कहा गया कि आप वस्तुतः अंधे नहीं हैं, किन्तु आपका अचेतन मन विशेष परिस्थितियों में अंधा बना रहता है। यदि इन बातों का खुलासा हो जाय तो न केवल आप देख सकेंगे, वरन् आपकी चेतना भी लौट आयेगी। अन्यथा यह दृष्टि तब तक मस्तिष्क में बैठे उस भावनात्मक धब्बे को-क्षुब्धता को धो नहीं दिया जाता। इस भारी पत्थर के हटते ही आपको दृष्टि सहज रूप में मिल जायेगी।

काफी कुरेदने पर उस व्यक्ति ने अपनी माँ के निरंकुश शासन की हृदय विदारक घटना

सुनाई कि किस तरह उसके क्रिया-कलाप ने उसके हँसते-खेलते, खाते-पीते खुशहाल परिवार को न केवल बर्बाद ही किया वरन् सभी बच्चों के मन में जहर घोल कर उनके कोमल मस्तिष्क में काले धब्बे छोड़ दिये। वे यह नहीं जानते थे कि माँ के इस क्रूरतापूर्ण व्यवहार के लिए किसे उत्तरदायी ठहरायें और उसका उत्तर कैसे दें। वे चाहते थे कि न तो माँ को देखें और न ही उसके शब्दों को सुनें। इसीलिए वे अंधेपन के शिकार हुए।

जब उन्हें फिर से मातृवत् स्नेह एवं ममत्व का आश्वासन दिया गया ओर इस ओर वे पूर्णतः आश्वस्त हो गये तो उनकी दृष्टि उन्हें वापस मिल गयी। इस बीच जब भी उनके मन में पुराना विद्वेष उभरता था तो उसका सीधा प्रभाव आँखों पर पड़ता था। पीछे वह प्रभाव आँखों पर पड़ता था। पीछे वह प्रभाव समाप्त हो गया और वे पूर्णतः स्वस्थ हो गये।

अपनी स्वास्थ्य समस्या का निदान स्वयं हमारे पास है और इसमें हम समर्थ भी है। स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि ईश्वर की चेतना हमारे मन-मस्तिष्क एवं अंतःकरण के माध्यम से कार्य कर रही है। यदि मानसिक एवं भावनात्मक क्षेत्र की पवित्रता के प्रति विशेष जागरुक रहा जाय और उसे भय, क्रोध , आवेश, ईर्ष्या, द्वेष जैसे विकारों से बचाये रखा जाय तो ऐसा कोई कारण नहीं कि रुग्णता का शिकार होना पड़े और असमय ही काल का ग्रास बनना पड़े ।


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