क्या अब भी नकारेंगे आप मरणोत्तर जीवनरूपी सत्य को?

May 1996

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शरीर के साथ चेतना का उद्भव और मृत्यु के साथ उसका अंत नहीं होता है, वरन् काय-कलेवर के न रहने पर भी जीवात्मा का अस्तित्व बना रहता है और वह पुनर्जन्म धारण करती है। अध्यात्म, तत्वज्ञान की आधार-शिला समझी जाने वाली इस मान्यता के सम्बन्ध में विश्व के विभिन्न धर्मों में अलग-अलग विचारधारायें प्रचलित है किन्तु चेतना-प्रवाह की अविच्छिन्नता और काया की नश्वरता को सभी ने समान रूप से स्वीकार किया है। अब इस मान्यता को वैज्ञानिक अनुसंधान का विषय स्वीकार कर लिया गया है। इस संदर्भ में जो प्रत्यक्ष प्रमाण जुटाये गये हैं, उनसे पुरातन असमंजस की स्थिति अब धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। इसकी मान्यता जीवनक्रम में आस्तिकता की भावना, नीतिमत्ता एवं उज्ज्वल भविष्य के प्रति आशा बनाये रहने की दृष्टि से नितान्त आवश्यक भी है।

मृत्यु के बाद भी जीवन बना रहता है इस संबंध में पाश्चात्य देशों में पिछले दिनों संदेहास्पद माना जाता था, किन्तु वैज्ञानिकों में मूर्धन्य सर विलियम क्रुक्स तथा सर ओलिवर लाज आदि की मरणोत्तर जीवन संबंधी खोजों को अब संसार भर में प्रमाणिक माना जा रहा है। भारत में पहले से ही जीवन की अमरता और पुनर्जन्म के प्रति गहरी आस्था रही है। वैदिक संस्कृति में विगतात्माओं के अनेक विधि-प्रकारों, उनकी गतियों, विभिन्न लोकों में गमनागमन एवं विश्राम आदि का विस्तार पूर्वक वर्णन है। छान्दोग्य उपनिषद् के पंचम प्रपाठक से आठवें प्रपाठक तक पितृमार्ग एवं पितृलोक की विषद जानकारी दी गयी है। उसके अनुसार मृतात्मायें अपने-अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न मार्गों से सूक्ष्म-शरीर द्वारा प्रयाण करती है। सत्कर्म करने वाले परोपकारी, तपस्वी, योगी आदि के लिए स्वयं प्रकाशवान, ‘अर्चिमार्ग’ निर्दिष्ट हैं। इसी में आगे प्रेतात्मा प्रज्ञानात्मा, विज्ञानात्मा और महानात्मा आदि का उल्लेख किया गया है। श्रीमद्भागवत् गीता के आठवें अध्याय में भी कहा गया है - यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजन्ते कलेवरम् तं तमेवैति कौन्तय।” अर्थात् मृतात्मा के अंतिम भावों के अनुसार उन्हें शुक्ल या कृष्ण-ऊर्ध्व या अधोगति मिलती है। कामनाग्रस्तों को कृष्ण तथा कामना रहित परोपकारी महान आत्माओं को शुक्ल गति मिलना बताया गया है, यह सब कुछ कर्मफल के सुनिश्चित तथ्य पर निर्भर करता है।

पाश्चात्य देशों में पुनर्जन्म एक विवादास्पद विषय बना हुआ है, फिर भी मृत्यु के किनारे को स्पर्श करके लौटने वाले अनेकों व्यक्तियों की घटनाओं पर वैज्ञानिकों ने गहन अनुसंधान-परीक्षण करके जो निष्कर्ष निकाले हैं उसके अनुसार प्रकृति की संरचना में शरीररूपी पदार्थ तो कलेवर मात्र है। कलेवर बदल जाने पर भी प्राणचेतना ऊर्जा रूप में या किसी अन्य रूप में अवश्य बनी रहती है।

इस तथ्य की पुष्टि अध्यात्मवेत्ता एडगर केसी ने अपनी कृति ‘देअर इज ए रिवर आप लाइफ’ में की है। स्व सम्मोहित-अवस्था में केसी की पहुँच अन्तरात्मा ‘यूनिवर्सल माइन्ड’ तक हो जाती इसी आधार पर उन्होंने पुनर्जन्म की वास्तविकता को कसौटी पर कसने हेतु आर्थर लेमर्स नामक एक व्यक्ति को चुना जिसकी पुनर्जन्म में गहन आस्था थी और उसने पूर्वात्य ग्रंथों का गहराई से अध्ययन भी किया था साथ ही वह इसकी पुष्टि भी चाहता था। स्वसम्मोहित अवस्था में उसने एडगर से अपनी जन्मकुण्डली के फलादेश के बारे में प्रश्न किया। उत्तर में उसे बताया गया कि ज्योतिष के सम्बन्ध में उसकी जो धारणा है, और वह है। पुनर्जन्म के संबंध में शंका। केसी ने उसे बताया कि वास्तव में पूर्वजन्म में तुम एक बौद्ध भिक्षु थे। इसके बाद यह तुम्हारा तीसरा जन्म है। पूर्व जन्मों में अर्जित ज्ञान संपदा एवं संचित सुसंस्कारों के कारण ही तुम्हें इस जीवन में भी तत्वज्ञान, अतिभौतिकी, अध्यात्म ज्योतिष एसोटेरिक एस्ट्रालॉजी अतीन्द्रिय क्षमता आदि में गहन रुचि है। एडगर केसी के साथ एक विडम्बना यह जुड़ी हुई थी कि सम्मोहित अवस्था-अचेतनावस्था में वह जो कुछ बोलता था, बाद में उसे उसका कोई स्मरण नहीं रहता था। अतः सचेत होने पर उसने जो कुछ कहा था- उसकी नोट कर लिया जाता था। इस बार भी पुनर्जन्म सम्बन्धी अपनी व्याख्या पर आश्चर्यचकित हुए बिना वह नहीं रहा।

विद्वान लेमर्स ने उक्त घटना को पढ़ते हुए पुनर्जन्म के रहस्य की व्याख्या करते हुए बताया कि कर्म के सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति की मृत्यु के समय उस के सचेतन मन का साराँश अचेतन मन के साथ मिल जाता है। दोनों के बीच जीवनकाल में जो पर्दा रहता है, उठा लिया जाता है। अतः अचेतन या अवचेतन मन में अनेकों जन्म के संस्कार संग्रहित होते रहते हैं। इसे ही व्यष्टि-चेतना कहा जाता है। पूर्व या गत जन्मों के संस्कारों की प्रबलता के अनुसार ही हम इस जन्म में आने वाली परिस्थितियों के साथ ताल-मेल बिठाने में सक्षम होते हैं। यह सचेतन मन ही है जो जीवन भर अच्छे या बुरे संस्कार एकत्रित करता रहता है। मृत्यु के समय अच्छे संस्कार अवचेतन से मिलकर जीवात्मा का अवरोध कम कर देते हैं जबकि दुष्कर्मों के संस्कार अवचेतन के साथ मिलकर जीवात्मा के लिए अवरोध खड़ा करते हैं जिसे ही अनुक्रम में सद्गति या दुर्गति कहा जाता है। स्रष्टा ने मनुष्य जीवन में अच्छे या बुरे कर्म करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी है, किन्तु साथ में उसे लेखा-जोखा रखने वाला एक जीवंत यंत्र भी जोड़ रखा है जो चित्रगुप्त का काम करता है और कर्मानुसार सद्गति या अधोगति प्रदान करता है।

‘ए सांइटिफिक इनवेस्टीगेशन आफ नियर डैथ एक्पीरियेन्स’ नामक पुस्तक में वैज्ञानिक मनीषी केनेथरींग ने लिखा है कि हमारे जैसे विज्ञानवेत्ता भी अब यह स्वीकार करने लगे हैं कि शारीरिक मृत्यु के बाद भी मानवी चेतना का अस्तित्व बना रहता है। मनोवैज्ञानिक अध्ययन-अनुसंधानों एवं निजी अनुभवों के आधार पर भी अब यह सिद्ध हो गया है कि मृत्यु के निकट जाने से हम उच्चतर अस्तित्व से परिचित होते हैं। जिसे हम मृत्यु कहते हैं, उसके बाद हम इस उच्चतर अस्तित्व का यथेष्ट उपयोग कर सकते हैं। इन तथ्यों का अध्ययन करने के लिए अमेरिका में ‘नियर डेथ एक्पीरियेन्स नामक एक संस्था बनी हुई है जिसमें 250 वैज्ञानिक मनोवैज्ञानिक, परामनोविज्ञानी मनः चिकित्सक एवं विशेषज्ञ सम्मिलित हैं। ये प्रतिवर्ष उन 100 से अधिक लोगों पर अध्ययन करते हैं जो मृत्यु के मुँह से वापस लौट आते हैं। उन्होंने जो निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं उसके अनुसार ऐसे अवसरों पर व्यक्ति अपने आपको शरीर से पृथक अनुभव करता है। दृष्टा की तरह अपने शरीर को देखता है। नया शरीर, दीवार, खिड़की आदि बाधक नहीं रहते ; अतः वह अपने को और अधिक शक्तिशाली महसूस करता है। दिवंगत मित्र, सम्बन्धियों की आत्मायें भी मिलती हैं और सहायता करती हैं।

मरणोपरान्त चेतना के अस्तित्व संबंधी जो तर्क एवं तथ्य संगत कानूनी प्रमाण उपलब्ध हैं, वे भी चेतना की निरन्तरता और अमरता की पुष्टि करते हैं। ‘मिस्टरीज आफ आफ्टर लाइफ’ नामक अपनी पुस्तक में सुप्रसिद्ध परामनोविज्ञानी फ्रेंक स्मिथ ने इस तरह के कितने ही प्रसंगों का वर्णन किया है जिनमें से दो प्रमुख हैं। पहली में 1738 में लन्दन के एक कोर्ट में घटित हुई घटना का उल्लेख किया है। उसके अनुसार एक हत्या के मामले में ज्यूरी के सामने पर्याप्त प्रमाण नहीं थे कि अभियुक्त ने जार्ज कीथ नामक व्यक्ति की हत्या की है। हत्या तो हुई थी, पर किस अस्त्र से की गयी थी, उसे पुलिस बरामद नहीं कर पायी थी। ऐसी कोई गवाह भी नहीं था जिसने हत्या होते देखी हो। हत्या से पूर्व आरोपी और मृतक के बीच काफी समय से संपत्ति सम्बन्धी वाद-विवाद और अनबन चल रही थी। उसी आधार पर अभियोग लगाया गया था। प्रमाण न मिलने पर पर्याप्त प्रमाणों के अभाव में न्यायविद् अभियुक्त जिसे जेल से कोर्ट में लाया गया था अचानक डर के मारे काँपने लगा और किसी को सम्बोधित करते हुए चीखने लगा- “हाँ मैं स्वीकार करता हूँ कि कुल्हाड़ी से मैंने तेरी हत्या की थी। हाँ उस कुल्हाड़ी को टेम्स नदी के पूर्व में ओक वृक्ष के नीचे मैंने छिपा दिया था और उस कुल्हाड़ी में तुम्हारे कमीज का कालर फँसा हुआ है। “ जज ने जब उस अपराधी से पूछा कि तुम यह सब किसे बता रहे हो ? तो उसने कहा “क्या आप नहीं देख रहे हैं कि जार्ज कीथ की प्रेतात्मा मेरा गला दबोच रही है। अतः लाजवाब होकर मुझे सच-सच बताना पड़ रहा है कि मैंने उसकी हत्या कैसे और किससे की है। जब पुलिस ने उसे उस स्थान को दिखाने को कहा तो उसे दिखाने के लिए वह राजी हो गया। उक्त स्थान से मृतक के कमीज के कालर में फँसी रक्त से सनी कुल्हाड़ी पायी गयी जिसके हत्थे पर अभियुक्त के हाथ और अंगुलियों के स्पष्ट निशान थे। इस प्रमाण के आधार पर अभियुक्त द्वारा हत्या स्वीकार करने को मान्यता प्रदान कर सजा दी गयी थी।

एक अन्य घटना 1937 की भारत में ब्रिटिश शासन काल की है जिसे अंग्रेज डिप्टी कलेक्टर मि0 किंग ने भारत में रहते समय अपने एक संस्मरण में प्रकाशित किया था। शिमला में एक डाक बंगला भुतहा बंगला के नाम से विख्यात था। दो-तीन सरकारी अफसरों की शिकायत पर एक पुलिस इन्सपेक्टर को इसकी जाँच करने के लिए भेजा गया था। रात्रि को ठीक बारह बजे उसे सफेद परिधान पहने एक महिला दिखी भयभीत इन्सपेक्टर ने रिवाल्वर से लगातार पाँच छः गोलियाँ दाग दीं, किन्तु ठहाका मारकर हँसने की आवाज सुनते ही उसके होश उड़ गये और वह भाग खड़ा हुआ। अतः दिल्ली से एक अनुभवी एवं साहसी आगा नामक पुलिस अफसर के साथ एक पुलिस दस्ता भेजा गया। विस्तार भय से संक्षेप में सभी सतर्कता बरतने पर भी आगा के सामने भी वह प्रेत प्रकट हुआ और कहने लगा कि यदि आप वास्तव में साहसी हैं तो मुझ अबला की सहायता कीजिए। आपका रिवाल्वर यहाँ कोई काम नहीं आयेगा। सहायता का आश्वासन मिलने पर प्रेतात्मा ने बताया कि यह बंगला पादरी आइजक का है जिसका नाम म्युनिस्पल रिकार्ड में अब भी दर्ज है। मैं यहाँ ‘मेयो स्कूल फॉर गर्ल्स’ में सीनियर कैंब्रिज में पढ़ती थी। पादरी से मेरी घनिष्ठता बढ़ती गयी और एक दिन हम दोनों ने सिविल मैरिज कर लिया। जब मैं गर्भवती हो गयी तो एक दिन अचानक से लन्दन से आया हुआ एक तार दिखाया और बोला वहाँ जाना मेरे लिए अनिवार्य है अन्यथा संपत्ति से हाथ धो बैठूँगा। दो माह बाद वह शिमला लौटा और प्रेम प्रदर्शित करने के बहाने गले में रुमाल फँसाकर मेरी हत्या कर दी।

आगा ने जब उससे प्रमाण माँगा तो छाया ने कहा- मेरी लाश पीछे वाले कमरे के बीचों बीच पलस्तर के एक पत्थर के नीचे दबी है जिसके साथ वह रुमाल तथा पादरी आइजक के कुछ और सामान दफन है। आगा ने पूछा , तुम क्या चाहती हो ? उत्तर मिला आइजक पर मुकदमा चलाकर आप उसे प्राणदण्ड दिलायें। इसके लिए मैं सब प्रकार के प्रमाण दूँगी। आगा ने अपने अधिकारियों से बात करके एक मजिस्ट्रेट के समक्ष उक्त स्थान की खुदाई करवायी तो एक युवा महिला के शव के कुछ अवशेष के साथ एक रुमाल तथा पादरी का कुछ अन्य सामान भी मिला जिसमें उसके कुछ अन्य पते भी थे। इतना प्रमाण मिलने पर आइजक के विरुद्ध हत्या का मुकदमा दायर किया गया। इसके बाद आगा ने जब उस लड़की के बारे में तथा पादरी के बारे में सारी विस्तृत जानकारी प्रेतात्मा से माँगी तो उन्हें बताया गया कि बंगले के हाल की एक अलमारी में ये सब प्रमाण सुरक्षित हैं। आगा को सभी प्रमाण यथास्थान मिल गये। इन कागजातों के आधार पर पता लगा कि पादरी के पिता की मृत्यु तो इस घटना से एक वर्ष पूर्व ही हो गयी थी, अतः वह तार टेलीग्राम फर्जी था। आगा ने वह सभी प्रमाण कोर्ट में प्रस्तुत किये जिसके आधार पर पादरी को यह स्वीकार करना पड़ा कि आवेरी नामक उस लड़की की, जिससे उसने सिविल मैरिज की थी, हत्या की थी। वह शव उसी का था। इस स्वीकारोक्ति के बाद पादरी आइजक को प्राणदण्ड की सजा सुनाई गयी। इससे खुश होकर आवेरी की प्रेतात्मा ने अपने गढ़े हुए जेवरात बताकर आगा को भेंट किये थे जिसे उन्होंने सरकारी खजाने में जमा कर दिया था। डि0 कलेक्टर मि0 किंग अपने संस्मरणों में लिखते हैं कि यदि यह मुकदमा मेरे समक्ष न चला होता तो मैं इस घटना पर और न ही मरने के बाद चेतना के अस्तित्व बने रहने का विश्वास करता।


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