स्वाध्यायः आज के परिप्रेक्ष्य में विवेचना

May 1996

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(गताँक से जारी)

हाथी और मन में बहुत से मिलते-जुलते गुण पाये जाते हैं। बल और मद में स्वेच्छाचारिता और उत्पात-वृत्ति में उपयोगिता और सेवा में उनमें समानता है। नियन्त्रण में रहे तो हितकारी व बड़े-बड़े कार्य सरलता से सम्पन्न कर देते हैं। अहं या अज्ञान से कभी सन्तुलन खो दे तो जिस व्यक्ति, वस्तु, व्यवस्था या झपट पड़ें उसी को रौंद कर चकनाचूर भी कर देते हैं। आधुनिक विज्ञान भी अपने प्रयोगों के आधार पर अब इस ऋषि प्रणीत सत्य से सहमत है कि ‘मन ही शरीर पर शासन करता है।’ असीम शक्ति सम्पन्न यह मन यदि चाहे तो पतन, पीड़ा व बनघन की खन्दकों में मनुष्य को ढकेल मोक्ष की ऊँचाइयों पर उसे पहुँचा दें। अतः हाथी और मन दोनों को महावत और तीन फलकों वाले अंकुश के नियंत्रण में रखने में ही भलाई है।

इस शक्तिशाली मन को महावत ‘सद्विवेक’ ईश्वर ने सभी मनुष्यों को दे रखा है। शान्ति और प्रगति के इच्छुक व्यक्ति को केवल यह व्यवस्था बनानी पड़ती है कि सद् विवेक जगाता रहे, मन पर सवार रहे और तन फलकों वाले अंकुश को हाथ में लिये रहे। उचित-अनुचित की परख और निर्णय करने वाला महावत तो सद्विवेक है। तीन फलकों वाला यह अंकुश कौन है ?

स्वाध्याय, मनन, चिन्तन ये तीन शब्द ही तीन फलकों वाला अंकुश है जिसे युग निर्माण योजना-गायत्री परिवार अश्वमेध महायज्ञों के प्रथम अनुयाज कार्यक्रम के रूप में अपनाने और जन-जन में प्रचार-प्रसार की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाने जा रहे है। शब्द कोष में इनके जो भी अर्थ दिए गए हों, पर पूज्य गुरुदेव ने अपने प्रवचनों लेखों तथा पंचकोशी साधना विवरण में जिन विशिष्ट अर्थों में इनका प्रयोग किया है वही हमारे लिए ग्रहण करने योग्य है। उनके बताये अर्थ ही हमें जानना चाहिए, उन अर्थों में ही इन तीन शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।

अधिकाँश व्यक्ति यह मान लेते हैं कि पढ़ने या अध्ययन करने का दूसरा नाम ‘स्वाध्याय’ है। यह सही नहीं है। इस भ्रम को दूर कर लेना चाहिए। पढ़ना, अध्ययन करना, स्वाध्याय करना तीन बिल्कुल ही भिन्न-भिन्न क्रियाएँ हैं। उनके उद्देश्यों में, क्रिया पद्धतियों में तथा परिणामों में कोई एकरूपता या समानता नहीं है।

समय काटने के लिए व्यक्ति कहानी, कविता, उपन्यास जो भी मिल जाए पढ़ लेता है। क्या घटनाएँ हुईं, किस प्रकार हुई, क्या परिणाम हुए यह जान लेता है। पर इन सबसे वह अपना कोई संबंध नहीं मानता। वह तो मात्र पाठक है। बस समय काट लिया। यह पढ़ना है। परीक्षा के लिए छात्र इस प्रकार नहीं पढ़ता। पाठ्यक्रम से संबंधित पुस्तकें ही पढ़ता है। रुचि-अरुचि भूलकर ध्यानपूर्वक पढ़ता है। पढ़ी गई बातों को याद रखता है। पूछे जाने पर दुहरा भी देता है। परन्तु ध्यानपूर्वक पढ़ी गई और याद रखी गई बातों से उसकी दिनचर्या को जीवन शैली या स्वभाव को कुछ लेना देना नहीं है। वह तो मात्र छात्र है, बस परीक्षा की तैयारी कर ली। यह ‘अध्ययन’ है।

जिज्ञासु भी ध्यानपूर्वक पढ़ता है। अधिक जानने की उत्सुकता के कारण रुचिपूर्वक पढ़ता है। गई बातों को याद रखता है, अन्य व्यक्तियों को सुनाता भी रहता है। परन्तु जिस प्रकार सामान्य परिचय वाले आगन्तुक को घर के बाहरी कमरे तक ही सीमित रखा जा है, घर के भीतरी भाग में प्रवेश नहीं दिया जाता, वैसे ही जिज्ञासु, भी प्राप्त जानकारियों को बुद्धि तक ही सीमित रखता है। अपने ‘भीतर’ प्रवेश करने की अपनी रुचियों - मान्यताओं से मिलने की अपने स्वभाव व व्यक्तित्व को नापने की उन्हें अनुमति नहीं देता। वह तो मात्र जिज्ञासु है। बस, उत्सुकता तृप्त कर ली। यह भी ‘अध्ययन’ है।

पिता दशरथ की कीर्ति पर कलंक न लगने पाये, भाल न झुकने पाए, इस हेतु श्रीराम ने भरत के लिए राज्य छोड़कर सहर्ष वनवास स्वीकार कर लिया। भरत उन्हें वापिस लाने व राज्य सौंपने वन में गए, किन्तु श्रीराम पिता के वचन की प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए दृढ़ बने रहे। चक्रवर्ती राजा का पद व ऐश्वर्य उन दो भाइयों के पैरों के बीच गेंद के समान ठोकर खाता रहा। लाखों व्यक्ति रामचरित मानस की इस कथा को जानते हैं, नित्य पाठ परायण भी करते हैं। इनमें से कुछ कथा का अध्ययन भी करते हैं और अपनी तर्कशक्ति बढ़ाते हैं, इन पर विद्वतापूर्वक लेख भी लिखते और भाषण देते हैं। बस यहीं तक इस कथा की उनके लिए उपयोगिता है। मस्तिष्क तक ही इस कथा को प्रवेश करने की अनुमति है। अपने जीवन व्यवहार को, मानसिकता को वे ज्योँ का त्यों अछूता बनाये रखते हैं। वे निश्चिंत हैं कि इस पढ़ने - अध्ययन करने का उनके निजी जीवन से न तो कोई सीधा संबंध है, न ही उसमें झाँकने का अधिकार है। उनकी जीवन शैली मन का रुझान हृदय के भाव-कथा की पहुँच के बाहर है। अर्थात् उनकी मान्यता है कि ज्ञान और जीवन एक दूसरे में न घुल सकने वाले दो असम्बद्ध तत्व हैं। एक दूसरे को न छू सकने वाले नदी के दो किनारे हैं।

पढ़ने या अध्ययन करने से बिल्कुल ही भिन्न ‘स्वाध्याय’ है। वह न तो समय काटने के लिए किया जाता है, न ही मात्र बौद्धिक ज्ञान बढ़ाने के लिए ।स्वाध्याय के लिए भी पढ़ा जाता है किन्तु ध्यानपूर्वक। इसलिए सरसरी दृष्टि से देखने पर तो यह अध्ययन करने जैसा लगता है। पर इसकी पैठ बाहरी कमरे पर, बुद्धि पर समाप्त नहीं हो जाती। बुद्धि के बहुत आगे तक, बहुत ‘भीतर’ तक स्वाध्याय की पहुँच है। राम-भरत मिलन की कथा के पाठ्यकर्ताओं में निश्चय ही कुछ व्यक्ति ऐसे होंगे जो इस कथा को विवेक के संग अन्तस् में भी ले जाते हैं कथा में से झर रही राम और भरत की मानसिकता एवं भावात्मकता के सामने वे अपनी मानसिकता एवं भावात्मकता को खड़ा करते और तुलना करते हैं। अपने पिता व भाई के प्रति स्वयं उनकी कैसी मनोवृत्ति, कैसी भावना, कैसा व्यवहार है ? इसे परखते हैं। राम-भरत की निर्लोभ वृत्ति वे प्रेम भाव तथा राम-दशरथ के कर्तव्य भाव के दर्पण में अपनी सूरत देखने का वे साहस करते हैं। यह ‘स्वाध्याय’ है।

स्वाध्याय की इस लम्बी व गहरी पैठ के कारण उसके उद्देश्य व परिधि, पद्धति व व्यूह रचना पढ़ने - अध्ययन करने की अपेक्षा नहीं अधिक व्यापक, विशिष्ट व उच्चस्तरीय है - स्वाध्याय हमें अपनी पकड़ में समेट लेता है।

वह हमारा सचेतन है। हमारे अंतःकरण से लेकर अन्तरात्मा तक पहुंचने - छूने-जगाने का उस अबाधित अधिकार है।

पढ़ी गई बातों से हम अपनी मानसिकता - भाव संवेदना को अछूता नहीं रख सकते । वे हमारे लिए ही लिखी गई हैं।

प्राप्त हुए ज्ञान व अनुभव से हम अपने व्यक्तित्व को अप्रभावित नहीं रख सकते। वे हमारे लिए ही रचे गये हैं।

हम भी उन्हें अपने “भीतर” तक इसलिए ले गए हैं कि यदि कदम कीं भटक गए हों, तो भटकाव का एहसास हो जाए। कदम यदि सही दिशा में जा रहे हों तो चाल तेज करने का उत्साह जाग जाए।

स्वाध्याय हमें अपना निरीक्षण स्वयं करने के लिए बाध्य कर देता है। इसलिए स्वाध्याय मात्र पुस्तक का अध्ययन नहीं है।

‘स्व’ का अपने आपका अध्ययन स्वाध्याय है। खोजी प्रकाश को भीतर की ओर मोड़ना स्वाध्याय है।

वृक्ष से अलग हो गए और फिर सूख कर जर्जर हो गए पत्ते की दुर्दशा सबने देखी है। अपने स्वयं के हल्केपन तथा आसपास बह रही वायु के प्रवाह के कारण बेचारा इधर से उधर भटकता और टूटता रहता है। जीवन जीने की कला से मुँह मोड़ लेने वाले व्यक्ति की भी यहीं दुर्गति होती है। दुर्बल व अस्थिर मन किये लोभ-मोह अहं की आँधियों में वह भी भटकता टकराता, तनावग्रस्त व जर्जर हुआ फिरता है। पोषक रस देने वाली जड़ों से सम्बन्ध तोड़ लेने वाले पत्ते व मानव की यही भवितव्यता है।

वृक्ष की टहनी से जुड़े पत्ते को भी सबने देखा है। वृक्ष की जड़ों से रस आता है और टहनी उसे पत्ते तक पहुँचाती रहती है। रसवन्त पत्ता हरा−भरा होकर उल्लासपूर्वक झूमता है। अन्धड़ उसे गिरा नहीं पाता, ताप उसे सुखा नहीं पाता। नैतिकता व आध्यात्मिकता की जड़ें से श्रेष्ठ विचारों का रस ऐसे ही निरन्तर प्रवाहित होता रहता है। टहनी के समान जो इस अमृत रस को व्यक्ति तक पहुँचा कर उसे जीवन्त बनाएँ रखता है - वह स्वाध्याय है। कुविचारों के विष की काट भी इस अमृत रस से ही हो सकती है। अतः मनोमय कोश की शुद्धि का सबसे प्रधान एवं सबसे महत्वपूर्ण साधन यह है कि मस्तिष्क में अधिक से अधिक समय तक श्रेष्ठ विचारधारा प्रवाहित होती रहे। शुद्धता, शान्ति व प्रगति के इच्छुक व्यक्ति इसी लिए नित्य-नियमित स्वाध्याय करते हैं।

इस विवेचना से हम यह न सोचें कि दोषों की ओर इंगित करने वाला स्वाध्याय अपनी ही नजरों में अपने को गिरा लेने की प्रक्रिया है। उत्तम वैद्य रोगी की नाड़ी देखता है, रोगों को खोजता है, रोगी भी अपने दोष स्वीकार करता है। परन्तु इस पूरी प्रक्रिया में वैद्य रोगी को हीन दृष्टि से नहीं देखने लगता, उस निकृष्ट व्यक्ति नहीं मानने लगता। वह रोगी को उसके रोग बताया है और धैर्य भी बाँधता है। उत्तम वैद्य के समान स्वाध्याय भी भीतर व बाहर के स्वभाव एवं आचरण दोषों को खोजता है। मानव जीवन का लक्ष्य क्या है और अभी कहाँ भटक गए हैं, कहाँ अटक गए हैं, इसका अनुसन्धान स्वाध्याय करता है। अपने दोषों को दुर्बलताओं को जानना और जानकारी स्वीकार कर लेना स्वयं ही प्रमाण है कि दोषों से मुक्त होने की राह भटके व्यक्ति में आकाँक्षा है। यह हीनता का नहीं वीरता का लक्षण है। दोष को जानकारी उसे सहज भाव से स्वीकार करते ही स्वच्छ जीवन जीने का भाव जागता है। स्वाध्याय-वैद्य अपनी ही नजरों में अपने को कभी नहीं गिराता, कभी निराश नहीं करता। वह सदैव आश्वासन देता है, विश्वास जगाता है कि सुबह का भूला शाम को घर वापिस आ जाय तो भटका हुआ नहीं कहलाता है। वह तो अंतःकरण के दोषों से जूझने का संकल्प उठाता है। अतः नैतिक आध्यात्मिक प्रगति के इच्छुक साधक को बिना हिचके स्वाध्याय-वैद्य के सम्मुख नित्य अपने मानस को प्रस्तुत करते रहना चाहिए।

स्वाध्याय का दूसरा पक्ष भी उतना भी सशक्त एवं प्रेरक है। मानवी अन्तःकरण में दोष ही दोष नहीं होते, गुण भी होते हैं। स्वाध्याय श्रेष्ठताओं की ओर भी संकेत करता है, पीठ भी थपथपाता है, बढ़ - चलने का उत्साह भी बढ़ाता है। स्वाध्याय मानसिक दृढ़ता, भाव शक्ति व आत्मबल को विकसित करने का प्राणवान प्रेरणा स्रोत है। अपने उजलेपन को जानना और उसे परमात्मा का अनुग्रह मानना उतना ही आवश्यक है जितना कि अपने मैलेपन की जानकारी। इस प्रकार ‘कृतज्ञता’ जैसी दैवी सम्पदा को स्वाध्याय सहज की उपलब्ध करा देता है।

उपरोक्त विवेचना से यह न सोचा जाय कि स्वाध्याय के लिए मात्र पढ़ना-अध्ययन करना, सत्साहित्य को माध्यम बनाना अनिवार्य है, तो उसे हटा दें। यदि ऐसा होता तो अनपढ़ कबीर अंतर्मन की स्थितियों को गहन सूक्तियों में कैसे बता पाते ? अन्धे सूरदास कन्हैया के प्रति अपनी आन्तरिक प्रीति को मन मोह लेने वाले पदों में कैसे गा पाते ? आत्म साक्षात्कार जैसे अत्यन्त क्लिष्ट विषय को रामकृष्ण सीधे-सादे उदाहरणों से कैसे स्पष्ट कर पाते ? तुलसीकृत ‘रामचरित मानस’ अपने अन्दर सृष्टि विज्ञान, वेदान्त, उपनिषद् ज्ञान जैसे गूढ़ विषय को इतने सरल ढंग से कैसे समझा पाते? ‘स्व’ का अध्ययन करने के लिए, अपने अन्तस् की स्थिति को पहचानने और उसका मूल्यांकन करने के लिए सत्साहित्य एक मात्र माध्यम नहीं है, मात्र एक माध्यम है। ‘प्रेरणाप्रद वचन’ दूसरा माध्यम है। विवेक’ तीसरा माध्यम है। अपने या दूसरों के कर्म देखें, उद्देश्य पहचानें, परिणाम भी समझें, यह ‘अनुभव’ चौथा माध्यम है। अनेकानेक माध्यम हैं जिनकी सहायता से अन्तस् में झाँका जा सकता है। हाँ, यह अवश्य है कि इन अनेकानेक माध्यमों में से सत्साहित्य को माध्यम बनाकर स्वाध्याय करना अधिक सरल है। सत्साहित्य सरलता से उपलब्ध भी हो जाता है। इसलिए स्वाध्याय के लिए इसे प्रायः चुन लिया जाता है। पर जिसे जो माध्यम सरल व उपयुक्त समझ पड़े वह वही अपना ले। महत्व माध्यम का नहीं है। महत्व उस उमंग, महत्वाकाँक्षा का है जो अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए उमड़ती रहती है। महत्व उस ग्लानि का पतन के प्रति उस असन्तोष का है, उस प्रत्येक प्रेरणा का है जो ऊपर, और ऊपर उठने के लिए अन्तःकरण को कचोटती रहती है। भगवान करे यह उमंग और यह कचोट किसी को चैन न लेने दे।


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