भाग्य विधाता है मनुष्य अपने आपका

May 1996

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“मनुष्य अपने भाग्य का विधाता आप है।” यह उक्ति एक ही तथ्य को इंगित करती है कि मनुष्य चाहे तो कोई भी असंभव से असंभव कार्य इस दुनिया में किसी के भी द्वारा किया जा सकता है। वह उसके जीवट के बलबूते संभव है। प्रारब्ध, संचित, क्रियमाण के सिद्धान्त अपनी जगह सही होते हुए भी एक तथ्य अपनी जगह सुनिश्चित एवं अटल है कि मनुष्य अपनी संकल्प-शक्ति के सहारे अपने भाग्य को बदल पाने में समर्थ है। ऐसा बहुतों ने किया है, वर्तमान में भी अनेकानेक उसी दिशा में संलग्न है और भविष्य में भी ऐसा होता रहेगा।

मनुष्य को ईश्वर का श्रेष्ठतम एवं वरिष्ठ पुत्र युवराज कहकर संबोधित किया गया है। उससे यह भी अपेक्षा रखी गई है कि वह अपने कर्मों के सहारे इस सृष्टि रूपी बगिया को सुरम्य, सुरुचिपूर्ण और अनुशासित बनाये रखे। यह मनुष्य का सौभाग्य है कि वह इस सुरम्य, सुरुचिपूर्ण और अनुशासित बनाये रखे। यह मनुष्य का सौभाग्य है कि वह इस सुरदुर्लभ मानव तन को पाकर इस धरती पर आया है। उसे एक अवसर दिया गया है कि वह वह श्रेष्ठ कर्म करता हुआ भव-बन्धनों से मुक्त होता चले। जो अवसर किसी को भी प्राप्त नहीं है वह देवताओं को व अन्यान्य योनियों में रहने वाले प्राणियों को उस परम पिता परमात्मा ने मनुष्य को अपना युवराज होने के नाते प्रदान किया है। अब यह उस पर निर्भर है कि वह दिये गये दायित्व का निर्वाह कर रहा है अथवा अपने दुष्कर्मों द्वारा इस विश्व-वसुधा रूपी अपने कार्य-क्षेत्र में अव्यवस्था पैदा कर रहा है।

स्वर्ग-नरक जो कुछ भी है सब इसी धरती पर मौजूद हैं। परिष्कृत उदात्त मनःस्थिति का नाम ही स्वर्ग है। यही ऐसा वातावरण विनिर्मित करती है कि चारों ओर स्वर्गोपम परिस्थितियाँ स्वतः बनने लगती है। मनुष्य यदि चाहे तो निषेधात्मक चिंतन, ईर्ष्या-द्वेष भाव रखते हुए अथवा नरपशु, नर-पिशाच का जीवन जीते हुए नारकीय मनःस्थिति में भी रह सकता है। इस धरती को स्वर्ग जैसा सुन्दर ऐश्वर्ययुक्त बनाये रखना ही ईश्वर को मनुष्य से अभीष्ट है। इसीलिए उसे पूरी छूट दी गई है कि वह अपने मानव शरीर वाली इस योनि में जितना भी कुछ श्रेष्ठतम संभव हो सकता है वह दी हुई अवधि में कर दिखाये। इसी को कहते हैं।- “अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करना ।”


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