अनुयाज-पुनर्गठन-1 विशेष लेखमाला-4 - साधना का उच्चस्तरीय आयाम है- मनन

May 1996

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(गताँक से जारी)

प्रत्येक व्यक्ति जाग्रत अवस्था में कुछ न कुछ सोचता, कल्पनाएँ करता रहता है। कभी कोई एक बात मन में आती है, दूसरे ही क्षण कोई दूसरी, फिर कोई और। इधर से उधर निरन्तर उछलकूद करता हुआ यह उच्छृंखल मन थकता नहीं । मन से यदि पूछा जाय कि दिन भर की इस लगातार परिश्रम से तुमने क्या-क्या प्राप्त कर लिया, कौन सी सफलताएँ हाथ लगीं, तो उस तरंगी के पास बताने के लिए सार्थक कुछ भी न होगा। चंचल मनःस्थिति के कारण, अथवा परिस्थिति के दबाव के कारण अथवा विचार करने की कला से अनभिज्ञ होने के कारण अधिकाँश व्यक्तियों का मानस ऐसी ही धमाचौकड़ी से भरा होता है। यह निरुद्देश्य अपरिणामी विचार-तरंग है।

इससे विपरीत प्रकृति की यह व्यवस्था है कि व्यक्ति की स्वीकृति पाकर ही कोई बाहरी वस्तु उसके भीतर प्रवेश कर सकती है। स्वीकृति पाकर भोजन मुँह में जाता है तो चबाने से लेकर पेट में अम्लों की प्रतिक्रियाओं तक से गुजरना पड़ता है है। इन सबके बाद ही वह रक्त बनकर व्यक्ति के शरीर का, अस्तित्व का एक भाग बन पाता है। किसी विचार तरंग को जीवन का, व्यक्तित्व का एक भाग बनाना हो तो उसे भी पाचन क्रिया जैसी प्रक्रियाओं से गुजरना होगा। किसी विचार का विश्लेषण कर उसे अच्छी तरह का विश्लेषण कर उसे अच्छी तरह से सभी दृष्टिकोणों से समझ लिया जाता है। फिर अनुपयोगी अंश को हटाकर उसके सार-भाग पर, सारगर्भित निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है। यह उद्देश्यपूर्ण परिणामी प्रक्रिया ‘मनन’ है।

मनन उच्छृंखल विचारणा नहीं है। स्वाध्याय जैसी अति महत्वपूर्ण क्रिया के पश्चात् सम्पन्न किये जाने वाले मनन में विचार क्रमबद्ध व प्रगतिशील होते हैं, निर्धारित दिशा मेँ दूर तक और गहराई तक जाते हैं और किसी निष्कर्ष अथवा निर्णय अथवा प्रेरणा पर निश्चय ही पहुँचते हैं।

मनन का सामान्य अर्थ गम्भीरतापूर्वक विचार करना है। स्वाध्याय के संदर्भ में मनन का अर्थ है “अपने विगत जीवन तथा वर्तमान जीवन का गम्भीरतापूर्वक अवलोकन करना और अपने व्यक्तित्व के स्तर को ऊपर उठाने की प्रेरणा देना।” अतः मनन उद्देश्यपूर्ण विचार करने की शैली हैं । मनन स्थूल हानि-लाभों को महत्व नहीं देता।

व्यक्ति की मानसिकता तथा गतिविधियाँ उसके जीवन एवं व्यक्तित्व पर बुरा-भला कैसे प्रभाव डाल रही हैं, यह खोजना उसके लिए अधिक महत्वपूर्ण है। वह उन दुष्परिणामोँ का चित्रण करता है जो किसी हीन मनोवृत्ति अथवा भ्रष्ट आचरण के कारण प्राप्त हो सकते हैं। वह उन सत्परिणामों का भी चित्रण करता है जो किसी श्रेष्ठ जीवन-नीति व रीति को अपनाने पर सम्भावित है। अर्थात् मनन निम्रता के विरुद्ध सचेतक तथा श्रेष्ठता के प्रति प्रेरक है। अतः सामान्य विचारधारा की अपेक्षा मनन के उद्देश्य, पद्धति तथा कार्यक्षेत्र अधिक व्यापक हैं- मनन भटके मन का ध्रुवतारा है।

वह खोजकर्ता व सचेतक भी है। इस नाते उसे हमारे जीवन की सामान्य गतिविधियों तथा विचारणाओं से लेकर परम गोपनीय तथ्यों तक को देखने व परखने की स्वतंत्रता।

हम उसे अपने भीतर गहराई तक जाने ही इसलिए देते हैं कि वह हमें अन्तस् का असली चेहरा दिखा दे।

प्रत्येक परिस्थिति में सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना उसकी प्रकृति है, हितकारी प्रेरणा देने उसकी पद्धति है, और दिशा बोध कराना उसका उद्देश्य है।

अतः वह हमारा शुभाकाँक्षी है। उसकी परख की हम अपेक्षा नहीं कर सकते।

हम सभी ने अपने भीतर जो मान्यताएँ और विचारधाराएँ बना रखी हैं, उनमें से आधी से अधिक भ्रान्त, अनुपयुक्त और दोषपूर्ण होती हैं। उन्हें पहचानना और उनसे उबरना मनन है।

यह भी भ्रान्त धारणा है कि भीतर दबी कालिखों को उजागर करके मनन अपने ही प्रति हीन भावना उत्पन्न करेगा। स्वाध्याय के समान मनन भी उत्तम वैद्य है। वह न तो हीनता की भावना जगाता है न ही निकृष्टता की। शारीरिक असंयम से दूषित पर्यावरण में रहने से शरीर का रोगी हो जाना स्वाभाविक है। मानसिक असंयम से, चारों ओर संव्याप्त दूषित वातावरण से मन का मैला हो जाना, बुद्धि का भ्रष्ट हो जाना भी स्वाभाविक है। मनन गहरे उतर कर मानस में उन मनोवृत्तियों, दृष्टिकोणों तथा आदतों की खोज करता है जहाँ यह दोष उपजते और पोषण पाते हैं और वैसे ही कर्मों के रूप में दैनिक जीवन में दिखाई देते हैं। दोष यदि और गहरे पैठ गये हों तो भाव-क्षेत्र हृदय का निकृष्ट हो जाना भी उतना ही स्वाभाविक है। अन्तस् के दोषों से मुक्त होने के इच्छुक साधक को मनन करते समय अपने दोष सहज भाव से स्वीकार कर लेना चाहिए। उत्तम वैद्य के समान मनन तब धैर्य बँधाता है। मानसिक एवं भावात्मक स्वास्थ्य को पुनः प्राप्त करने की आकाँक्षा जगाता है, राह बताता है और उस पर चलने की हितकारी प्रेरणा देता है।

विवेक के सामने दोषों को स्वीकार कर लेने से अपने वर्तमान आचरणों व मनोभावनाओं के प्रति ग्लानि होगा स्वाभाविक है, ग्लानि होनी भी चाहिए। दोष स्वीकार करना और ग्लानि का होना दोषों से मुक्त होने की इच्छा का लक्षण है, अतः दोनों आवश्यक हैं। यह ग्लानि हीनता की भावना उत्पन्न नहीं करती। वह तो अपनी ही अनुचित मानसिकता के विरुद्ध उठी प्रबल प्रेरक शक्ति (मोटिवेटिंग फोर्स) है। वह इस निम्न स्थिति में परिवर्तन लाने का संकल्प जगाती है। वह मानो कहती है, “निकृष्ट व्यक्ति वह है जो फिसलता है, कीचड़ में गिरता है, गिरकर वहीं पड़ा रहता है। निकृष्ट वह नहीं है जो कीचड़ से निकल कर तत्काल उठ खड़ा होता है और कीचड़ पोंछता है। उठो ! जागो ! अभी भी समय है अब सचेत रहना।” ऊर्जा भरी यह ग्लानि तब मनन के निष्कर्षों को कार्यान्वित कराने लगती है। तभी सुधार प्रारम्भ हो जाता है।

मनन का दूसरा पक्ष भी ऐसा ही प्रेरक व उत्साहवर्धक है। स्वाध्याय दोषों की ही नहीं, श्रेष्ठताओं की भी जानकारी देता है। तो उत्साहित हुआ मनन इन श्रेष्ठताओं के मूल को भी इन्हीं मनःक्षेत्र तथा भाव-क्षेत्र में खोजता है। जैसे बाह्य जगत में आदि कोई व्यक्ति मानव सेवा का कार्य कर रहा है तो इसका कारण उसके मन की परहित वृत्ति है। यह श्रेष्ठ-वृत्ति यदि उसके मन में गहरे समा गई है, यदि उसे बार-बार उसके मन को परहित चिन्तन की ओर खींच ले जाती है, तो इसका कारण यह है कि वह परमार्थ वृत्ति भाव क्षेत्र हृदय में स्थित ‘उदारता’ से निरन्तर पोषण पा रही है। मनन इस परिहित वृत्ति और उदारता की भावना का अवलोकन और मूल्याँकन करता है, उन पर यदि स्वार्थ अथवा यश की कामना की धूल जमने लगी हो तो सचेत करता है निखार आ रहा हो तो प्रसन्नता और सन्तोष व्यक्त करता है मनन व्यक्ति की अपनी क्षमता के अनुसार इन श्रेष्ठताओं की ओर बढ़ाने की सम्भावना ढूंढ़ता है। महामानवों के जाज्वल्यमान उदाहरण प्रस्तुत कर और आगे बढ़ने का प्रोत्साहन देता है और इस अनुग्रह के लिए सर्वोच्च सत्ता तथा गुरुसत्ता के प्रति कृतज्ञतापूर्वक नमन अर्पित करता है। मनन सदैव सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाता है, अतः वह श्रेष्ठता के साधक का विश्वसनीय साथी है।

मनन का तीसरा पक्ष उन श्रेष्ठताओं से संबंधित है जो यद्यपि अभी साधक में नहीं है किन्तु जिन्हें अपने व्यक्तित्व में अधिक निखार लाने के लिए विकसित किया जाना चाहिए। ऐसी श्रेष्ठताओं के विकास में क्रियापरक मनन बहुत सहायक होता है। क्रियापरक मनन यह खोज करता है कि अमुक श्रेष्ठता के विकास के लिए हृदय में किस भाव का जाग्रत होना आवश्यक है। इस भाव को जाग्रत करने के लिए मानस में किस वृत्ति का सुदृढ़ निर्माण करना अनिवार्य है, तथा ऐसी मनोवृत्ति निर्मित करने के लिए दिनचर्या में कौन से कार्य तथा व्यवहार अधिक से अधिक अभ्यास में लाने होंगे ? इस प्रकार के क्रियापरक मनन नवीन श्रेष्ठ कार्यों को आरम्भ करने का उत्साह जगाते हैं, व्यक्तित्व को विकसित करने का अवसर बढ़ाते हैं तथा अन्ततः जीवात्मा की उच्चतर स्थिति प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। अतः क्रियापरक मनन को बल और पोषण देने के लिए सत्साहित्य अध्ययन को अपने नित्य कर्म में सम्मिलित करना प्रगति के प्रत्येक इच्छुक व्यक्ति के लिए बहुत हितकारी सिद्ध होगा।

‘हमारा युग निर्माण सत्संकल्प’ जीवन योग की साधना की श्रेष्ठतम सामग्री है। इसका स्वाध्याय व मनन परिजन नित्य किया करें। चाहें तो उसका एक ही पद चुन लें। उसके संदर्भ में गम्भीरतापूर्वक विचार किया करें कि इस पद में लक्ष्य क्या है और हम कैसा जीवन जी रहे हैं, यह हमारे ही विकास का प्रश्न है। अतः अपनी जीवन शैली में कौन सा परिवर्तन किस प्रकार से करना हमारे लिए सम्भव है। यह मनन प्रतिदिन हम करें। निश्चय ही यह अभ्यास स्वभाव एवं व्यक्तित्व के विकास में अति हितकारी सिद्ध होगा।

स्वाध्याय - मनन की जोड़ी हीनताओं को हटाने, न्यूनताओं को पूरा करने तथा श्रेष्ठताओं को बढ़ाने में सक्रिय योगदान दे सकती है। हमारी नियमितता और निष्ठा उसके साथ जुड़ी हो तो वह अत्यन्त सन्तोषप्रद प्रगति की अनुभूति अनिश्चय ही करा सकती है।

मनन मनोमय कोश की उच्चस्तरीय साधना है। यह कोश की शुद्धि का सबसे प्रधान एवं सबसे महत्वपूर्ण साधन है कि मस्तिष्क में अधिक से अधिक समय तक श्रेष्ठ विचारधारा प्रवाहित होती रहे। अतः इस साधना के इच्छुकों को अपनी रीति-नीति को परिमार्जित करना होगा। हीन श्रेणी के जिन विचारों ने मनोभूमि पर अधिकार कर रखा है, मनन द्वारा उसकी सफाई करनी होगी। व्यक्ति के खुले तथा गोपनीय जीवन में झाँक करने वाला मनन दोषों को हटाने व श्रेष्ठताओं को बढ़ाने का प्रमुख प्रेरणा स्रोत है। उसमें विलक्षण ऊर्जा व क्षमता है। यदि साधक निष्पक्ष भाव से और ईमानदारीपूर्वक मनन द्वारा यह खोजने और स्वीकार करने का साहस कर सके कि अमुक कार्य को करने का उसका असली उद्देश्य क्या था ? उस समय उसकी मनोवृत्ति क्या चल रही थी, क्या सुझाव दे रही थी? हृदय में कौन सी इच्छा जागी हुई थी ? ईश्वर, समाज और स्वयं की दृष्टि में क्या यह सब उचित माना जा सकता है, अथवा इन मनोभावों में सुधार की आवश्यकता है, तब मन उस सत्यनिष्ठ साधक को क्रमशः उस स्थान तक पहुँचा देने की क्षमता रखता है, जहाँ से मनोमय कोश के विकास का राजमार्ग प्रारम्भ होता है। इस उपलब्धि में ‘चिन्तन’ की प्रभावशाली प्रक्रिया ‘मनन’ का बहुत सहयोग करती है।


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